सबद 1- ओ3म् गुरु चीन्हों गुरु चीन्ह पुरोहित, गुरु मुख धर्म बखाणी।
भावार्थ- ओउम् यह परम पिता परमात्मा सर्वेश्वर अनादि निराकार भगवान विष्णु का ही परम प्रिय नाम है। नाम से ही नामी का ज्ञान होता है। सर्वप्रथम सृष्टि के आदि काल में तो वह परम सत्ता ओ3म् नाम से ही जानी जाती थी परन्तु आगे समयानुसार ही सत्ता शिव, राम, विष्णु आदि नामों से जानी जाने लगी। उपनिषद् में कहा भी है - ओमिति एकाक्षर ब्रह्या उद्गीथमुपासीत गीता में - ‘ओमित्येकाक्षर ब्रह्या व्यवहारन् मामनुस्मरन्’ पातंजलि ने कहा- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ इत्यादि निर्देश दिये गये हैं। ओ3म् का ध्वनि से उच्चारण किया जाता है तब वह परमात्मा अति प्रसन्न होता है क्योंकि वह परमात्मा का सर्वाधिक प्रिय नाम है, इसलिए शब्दों के प्रारम्भ में यह ओ3म् का पाठ देना उचित ही है। इससे मंगल स्तुति नमस्कारादि सभी नियमों का समुचित पालन हो जाता है। गुरु ‘श्री देवजी कहते हैं- हे संसार के लोगो! आप सभी लोग सर्वदा ही यदि अपना कल्याण चाहते हैं तो उस परमपिता परमात्मा परमेश्वर परम सत्ता ओ3म् नामी गुरु को पहचानो। यहां पर चिन्हो का अर्थ मानना या स्मरण करना नहीं है, यहां चिन्हो का अर्थ पहचान करना है। गुरु की पहचान कुछ सद्गुणों द्वारा ही हो सकती है वे गुण आगे बतलाये जाएंगे। हे पुरोहित! तू भी गुरु को पहचान तथा गुरुमुखी होकर सद्धर्म का उपदेश कर तथा मनमुखी धर्म का परित्याग कर, क्योंकि गुरुमुख से निकला हुआ वचन सदा धर्म की ओर ले जाने वाला ही होगा।
*जो गुरु होयबा सहजे शीले नादे वेदे, तिहिं गुरु का आलिंकार पिछांणी।*
सहज स्वभाव से ही शील व्रतधारी, शब्द विद्या का ज्ञाता, अनहद नाद ध्वनि का श्रोता व सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता तथा वक्ता यदि गुरु है तो उस गुरु के ये गुण अलंकार ही होंगे। उन अलंकारों से विभूषित गुरु को पहचान कर लेना। वास्तव में इन विशेषणों से युक्त ही सद्गुरु हो सकता है इन गुणों के बिना सतगुरु होने की कल्पना नहीं की जा सकती।
*छव दरसण जिहिं के रूपण थापण, संसार बरतण निज कर थरप्या सो गुरु प्रत्यक्ष जांणी।*
भारतीय आस्तिक ऋषियों द्वारा रचित न्याय, सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, योग, वेदान्त ये छः दर्शन जिस परमात्मा स्वरूप सद्गुरु के सम्बन्ध में अति विस्तार से वर्णन करते हैं। इन्हीं छः शास्त्रों मे जीव ईश्वर और जगत के बारे में अति सूक्ष्मता से वर्णन हुआ है। इस संसार रूपी घट बरतन को जिस सतगुरु रूपी परमात्मा ने अपने ही हाथों द्वारा बनाया है। उसी सतगुरु को हे पुरोहित! तू यहां पर प्रत्यक्ष देखकर पहचान।
*जिहिं के खरतर गोठ निरोतर वाचा, रहिया र्रूद्र समाणी।*
जिस परमात्म स्वरूप गुरु के बारे में विचार करते हुए अच्छी-अच्छी विद्वानों की संगोष्ठियां भी चुप हो जाती है। अपनी सामथ्र्यनुसार विचार कर लेने के पश्चात वेद की ध्वनि का अनुसरण करती हुई ‘नेति-नेति’ कहते हुए मौन हो जाती है, क्योंकि परमात्मा वाणी का विषय नहीं है, अनुभव गम्य विषय को वाणी प्रगट नहीं कर सकती, क्योंकि वह परमात्मा र्रुद्र रूप से सर्वत्र समाया हुआ है। जिस प्रकार से शरीर में रूधिर समान रूप से सर्वत्र है उसी प्रकार से वह चेतन-ज्योति भी सर्वत्र सामान्य रूप से समायी हुई है। गुरु आप संतोषी अवरां पोखी, तंत महारस बाणी। गुरु आप तो स्वयं संतोषी हैं अर्थात् कभी किसी से कुछ भी लेने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि वह तो सम्पूर्ण जीवों का पालन-पोषण करने वाले हैं तथा जीवों के पास कुछ देने को भी नहीं है, केवल अहंकार ही अपनी निजी संपत्ति है उसे हम समर्पण कर सकते हैं, यही सच्चा त्याग हो सकता है तथा सद्गुरु की वाणी तत्व को बतलाने वाली होती है और महारसीली मीठी वाणी से श्रोता को अमृत पान कराते हुए वे अजर-अमर कर देती है।
*के के अलिया बासण होत हुतासण, तामैं खीर दूहीजूं।*
इस विशाल संसार में कुछ लोग कच्चे मटके की तरह होते हैं, उसमें दूध, पानी नहीं रूक सकता अर्थात् जिनका अंतःकरण अभी मलीन है उनके उपर ज्ञान की बात असर नहीं करती किन्तु यही मटका जब अग्नि के संयोग से पक जाता है, तब उसमें दूध दूहा जा सकता है क्योंकि पकने के पश्चात् दूध ठहरने की योग्यता उस बर्तन में आ जाती है, ठीक उसी प्रकार से ही इस अमृतमय वाणी रूपी अग्नि का संयोग मूढ जनों के अंतःकरण से होगा तब वे भी मलिनता को दूर करके ज्ञान रूपी अमृत को धारण कर सकेंगे, इसलिए कहा है- ‘श्रोतव्य, मन्तव्य, निधिध् याषितव्य, दृष्टव्य’ श्रवण, मनन, निधिध्यासन करने से परमात्मा का दर्शन होता है।
रसूवन गोरस घीय न लीयूं, न तहां दूध न पाणी।
दूध में से घृत निकाल लेने पर पीछे छाछ ही रह जाती है, न तो उसको आप दूध ही कह सकते और न ही उसे जल कह सकते। ठीक उसी प्रकार से ही मानव के अन्दर ‘रसो वै सः’ वह रसमय आत्म ज्योति है किन्तु उसका साक्षात्कार नहीं होता है तो मानव छाछ की तरह ही रसहीन है। न तो आप उसे अपने मूल स्वरूप स्वभाव में स्थित कह सकते क्योंकि वह तो स्वरूप को भूल चुका है और न ही उसे आप रस विहीन ही कह सकते क्योंकि उस आनन्द मय रस में तो वह ओत-प्रोत ही हैं। किन्तु वह रस उसे अब तक प्राप्त नहीं हुआ है, तो हम उसे गोरस ही कह सकते हैं। गुरु ध्याईरे ज्ञानी तोड़त मोहा, अति खुरसाणी छीजत लोहा। इसलिए ज्ञानी गुरु का ध्यान कर, वह तेरे मोह का बन्धन तोड़ देगा जिस प्रकार से खुरसाणी पत्थर कठोर लोहे के लगे हुए जंग रूपी मैल को काट देता है उसे शुह् पवित्र कर देता है ठीक उसी प्रकार से ही तुम्हारे जंग रूपी मोह को सत्गुरु ही काट सकते हैं।
पाणी छल तेरी खाल पखाला, सतगुरु तोड़े मन का साला।
हे मानव तेरा पंच भौतिक शरीर चमड़े की बनी हुई पखाल की तरह ही है। क्योंकि उस चमड़े की पखाल में भी पानी भरा जाता है तथा ऊंट के पीठ पर लाद करके जब ले जाते हैं तो वह छलकती है। ठीक उसी प्रकार से भी तुम्हारा शरीर भी पानी से भरा हुआ है चलने पर यह भी छलकता है। जिस प्रकार से पखाल में छोटा छेद हो जाता है तो सम्पूर्ण जल निकल जाता है। उसी प्रकार से तुम्हारा शरीर भी फूट जायेगा तो पांचों तत्व स्वकीय स्वरूप में विलीन हो जायेंगे, यह देह मृत हो जायेगी। आत्मा अपने कर्मानुसार अन्य शरीर में गमन करेगी। मानसिक दुःख को सत्गुरु ही मिटा सकता है, तभी मानसिक दुःखों से सर्वदा निवृति हो जायेगी तो कायिक आदि दुःख तो स्वतः ही निवृत हो जाएंगे।
सतगुरु है तो सहज पिछाणी, विष्ण चरित बिन काचै करवै रह्यो न रहसी पांणी।
हे पुरोहित! तुम्हारे सामने बैठा हुआ बालक यदि सत्गुरु है तो सहज ही में पहचान कर लेना। यहां पर सत्गुरु होने का बहुत बड़ा प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं कि देख विष्णु चरित के बिना कच्चे घड़े में न तो कभी जल ठहरा और न ही कभी भविष्य में ठहर सकेगा किन्तु विष्णु चरित से तो असंभव भी संभव हो जाता है। कच्चे घड़े में जल ठहर जाना यह विष्णु चरित ही है। इस प्रकार से पुरोहित के प्रति गुरु जांभोजी ने बाल्यावस्था में यह प्रथम शब्द, गुरु महिमा से युक्त उच्चारण किया।
शब्द २ ::
ओउम मोरे छायान माया लोह न मांसु । रक्तुं न धातुं । मोरे माई न बापुं । रोही न रांपु । को न कलापुं । दुख; न सरापुं । लोंई अलोई । तयुंह त्रुलाइ । ऐसा न कोई । जपां भी सोई।
जिहीं जपे आवागवण न होई । मोरी आद न जाणत । महियल धुं वा बखाणत । उरखडा- कले तॄसुलुं । आद अनाद तो हम रचीलो, हमे सिरजीलो सैकोण । म्हे जोगी कै भोगी कै अल्प अहारी । ज्ञानी कै ध्यानी, कै निज कर्म धारी । सौषी कै पोषी । कैजल बिंबधारी, दया धर्म थापले निज बाला ब्रह्मचारी ।। २।।
भावार्थ: प्राय सभी सांसारिक जीव माया की छाया में ही रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं| इसलिए उनको सत्य-असत्य का विवेक नहीं हो पाता|किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं -हे उधरण !मेरे इस शुद्ध रूप में ना तो माया हैं और न ही माया की अज्ञान रूपी छाया हैं,अर्थात अन्य लोगों की तरह मैं मायाच्छादित नहीं हूं|इस शुद्ध स्वरूप चैतन्य आत्मा में पंच भौतिक शरीर की भांति लोहा, मांस, रक्त और धातु नहीं हैं| इस निर्गुण निराकार सच्चिदानंद आत्मा के न तो कोई माता हैं और न ही पिता हैं | यहाँ पर अयात्मा ब्रह्म के अनुसार आत्मा-परमात्मा दोनों का अभेद प्रतिपादन किया गया हैं |
मैं स्वयं अपने आप में ही स्थित हूं अर्थात अपने जीवन यापन के लिए किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता मुझे नहीं हैं |वन्य जीवन की भांति अव्यवस्थाओं से भरा हुआ मेरा जीवन नहीं हैं | दुर्गुणों से दुर होकर शुद्ध सात्विक हो चुका हूं इसलिए किसी भी प्रकार का क्रोध ,मोह आदि मेरे यहाँ नहीं हैं तथा जब क्रोध ही नहीं हैं तो दुख भी नहीं हैं और दुख न होने से मैं किसी को शाप भी नहीं दे सकता| किन्तु आशीर्वाद दे सकता हूं|
उधरण ने पूछा हे देव! जब आप स्वयं ही ब्रह्म स्वरूप हैं तो जप तप किसका करते हैं ? गुरु जम्भेश्वर जी ने कहा- यह बात तुम्हारी ठीक हैं किन्तु जड़, चेतन मय तीनों लोकों में कहीं भी उस चेतन शक्ति से खाली नहीं हैं ,वह सर्वत्र व्याप्त हैं ,उसी व्यापक स्वरूप परमात्मा का भजन हो रहा हैं |
परमेश्वर का भजन करने से जन्म-मृत्यु का चक्र छूट जाता हैं क्योंकि जैसी उपासना करता हैं ,वह उपासक भी वैसा ही हो जाता हैं| अमरत्व की साधना करने वाला अमर पद प्राप्त कर लेता हैं
हे उधरण !मेरे शुद्ध स्वरूप परमात्मा की आदि कोई ऩहीं जानता क्योंकि जब वह आदि स्वरूप में स्थित था तब तो सृष्टि की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी, तब इस सृष्टि का मानव परमात्मा के प्रथम स्वरूप को कैसे जान सकेगा ?किन्तु अनुमान के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता हैं ,जैसे पर्वत पर धुआं देख कर अग्नि का अनुमान लगाते हैं | उसी प्रकार कार्य रूप जगत को देख कर कारण स्वरूप परमात्मा का अनुमान मात्र ही होता हैं | उसे प्रत्यक्ष कदापि नहीं कर सकते हैं |
हे उधरण !दैहिक, दैविक और भौतिक ये तीन प्रकार के ताप जो सदा सुल की तरह ऊपर ऊठे हुए चुभते रहते हैं ,इनको ढकने का प्रयत्न कर ,यहीं इस समय कर्तव्य हैं | व्यर्थ के वाद विवाद में पड़ कर समय बर्बाद मत कर|
यह वर्तमान था, इससे पूर्व सृष्टि की रचना तो परमात्मा स्वरूप मैंने ही की हैं ,तब प्रश्न उठता हैं कि परमात्मा की रचना करने वाला भी तो कोई होगा? यदि यहाँ पर कार्य कारण भाव की कल्पना करने हैं तो अनावस्था दोष आता हैं इसलिए जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हमारी सृजना करने वाला कोई भी नहीं हैं ,यदि होता तो उसका भी कर्ता कोई और होगा तथा उसका भी कोई और होगा, यही अनावस्था दोष हैं |
हमारे जैसे अवतारी पुरुष योगी हैं या भोगी अथवा थोडा आहार करने वाले हैं ,या हम ज्ञानी हैं अथवा ध्यान करने वाले ध्यानी या स्वकीय कर्तव्य कर्म का पालन करने वाले हैं|
हम आप किसी का शोषण करने वाले हैं या जल में प्रतिबिम्ब रूप हैं या स्वयं सूर्य सदृश बिम्ब रूप हैं | हे उधरण ! मैं क्या हूँ इसकी चिंता तुम छोड़ो | परमात्मा अवतार धारण किस रूप में करते हैं इसका कोई निश्चय नहीं हैं उपयुर्कत बताएं हुए गुणों में वह किसी भी रूप में हो सकता हैं | किन्तु यहाँ पर तुम मुझे दया धर्म की स्थापना करने वाले बाल ब्रह्रचारी रूप में ही समझो|
ओ3म् मोरें अंग न अलसी तेल न मलियों, ना परमल पिसायों।
हे वीदा! मेरे इस शरीर पर किसी भी प्रकार का अलसी आदि का सुगन्धित तेल या अन्य पदार्थ का लेपन नहीं किया गया है क्योंकि मैं यहां सम्भराथल पर बैठा हुआ हूं। यहां ये सुगन्धित द्रव्य उपलब्ध भी नहीं है और न ही इनकी मुझे आवश्यकता ही है।
जीमत पीवत भोगत विलसत दीसां नाही, म्हापण को आधारूं।
पृथ्वी का गुण गन्ध है जो भी पार्थिव पदार्थों का शरीर रक्षा के लिये सेवन करेगा, उस शरीर में दुर्गन्ध अवश्य ही आएगी किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हे वीदा! मुझे इस शरीर रक्षार्थ इन पृथ्वी आदि पांच द्रव्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि परमात्मा तो सभी का आधार है, परमात्मा का आधार कोई नहीं होता है। वह परमात्मा पंच भौतिक शरीर धारण करता है। तो भी अन्य सांसारिक जनों की भांति खाना-पीना भोग विलास आदि नहीं करता, वे अत्यल्प आवश्यकतानुसार आहार यदि करते हैं तो वह आहार दुर्गन्ध आदि विकार उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिए हमारा शरीर सुगन्ध वाला है न कि दुर्गन्ध वाला।
अड़सठ तीर्थ हिरदै भीतर, बाहर लोका चारूं।
अड़सठ स्थानों में प्रसिद तीर्थ तो बाह्या न होकर ह्रदय के भीतर ही हैं अर्थात् जिस प्रकार से अड़सठ तीर्थ ह्रदय में प्रवाहित होते हैं, योगी लोग उनमें स्नान करते हैं उसी प्रकार से चेतन सत्ता भी ह्रदय देश में प्रत्यक्ष रूपेण रहती है, उसमें ही जो रमण करेगा उसके शरीर में कैसी दुर्गन्ध, वह ज्योतिर्मय ईश्वर तो सदा सर्वदा सुगन्धमय ही है तथा जिनकी वृत्ति बाह्या शरीर में ही विचरण करती है। परमात्मा की झलक से वंचित हो चुकी है तथा बाह्या पदार्थों का आश्रय ग्रहण किया है ऐसे जनों का शरीर दुर्गन्धमय ही होगा। इसलिए हे वीदा! मैं तो अड़सठ तीर्थों में स्नान नित्य प्रति करता ही हूं, यहां पर सांसारिक जनों की भांति व्यवहार तो मेरा लोकाचार ही है। नान्ही मोटी जीया जूणी, एति सांस फूंरंतै सारूं। सृष्टि के छोटे तथा बड़े, जीवों की उत्पत्ति , स्थिति तथा प्रलय के बीच का समय एक श्वांस का ही होता है। जितना समय श्वांस के आने तथा जानें में लगता है, उतनें ही समय में परमात्मा सम्पूर्ण जीवों की सृजना कर देते हैं वह सृजन कर्ता मैं ही हूं।
वासंदर क्यूं एक भणिजै, जिहिं के पवन पिराणों|
यहां पर उपर्युक्त वचनों को श्रवण करने पर वीदा के अन्दर कुछ क्रोध उत्पन्न हो गया, इसलिए जम्भेश्वर जी ने कहा- हे वीदा! तूं एकमात्र क्रोध रूपी अग्नि को ही क्यों बढ़ावा देता है। यह क्रोध तुम्हारे लिए विनाशकारी है। अग्नि और क्रोध में सादृश्यता बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से अग्नि की प्राण वायु होती है उसी प्रकार से क्रोध का प्राण भी वायु रूप झट से निकला हुआ कठोर वचन होता है। आला सूका मेल्है नाही, जिहिं दिश करै मुहाणों।
जब अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तब न तो हरी वनस्पति को छोड़ती है और न ही शुष्क वनस्पति को छोड़ता और न ही निर्दोषी का ख्याल करता, विवेक शून्य होकर दोनों पर बराबर ही अपराध कर देता है। अग्नि तथा क्रोध दोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे उस तरफ तबाही मचा देंगे।
पापे गुन्है वीहे नाही, रीस करै रीसाणों।
अग्नि तथा क्रोधदोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे अर्थात् जिस व्यक्ति को भी अपना लक्ष्य बनाएंगे उस समय न तो उसे पापी का ज्ञान रहेगा और न ही गुणी का ज्ञान रहेगा। क्रोध में व्यक्ति जब क्रोधित हो जाता है तो निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है, उसका कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक भ्रष्ट हो जाता है।
बहूली दौरे लावण हारू, भावै जाण मैं जाणूं।
यह क्रोध ही सभी दुर्गुणों की जड़ है। एक क्रोध से ही सभी दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं और ये दुर्गुण बार-बार नरक में ले जाने वाले होते हैं। इस जीवन में दुःखों को भोगते हैं तथा परलोक भी दुःखमय बन जाता है। अग्नि हाथ में चाहे जान कर ले या अनजान में ले वह तो जलाएगी ही। इस प्रकार से क्रोध भी चाहे जानकर करें या अनजान
में करें वह तो दुःखित करेगा ही।
न तूं सुरनर न तूं शंकर, न तू राव न राणों।
हे वीदा! न तो तूं देवता है और न ही तूं मानव है, तथा न ही तूं शंकर है, न तूं राजा है, और न ही तूं राणा है।
काचै पिण्ड अकाज चलावै, महा अधूरत दाणों।
तेरा यह शरीर तो कच्चा है इस पर तूं इतना अभिमान क्यों करता है यह कभी भी टूट सकता है तथा इस स्थित काया से तूं पाप करता है यह तो महाधूर्तों का, दानवों का कार्य है।
मौरे छुरी न धारू लोह न सारूं, न हथियारूं।
जब वीदा कुछ नम्रता को प्राप्त हुआ तब कहने लगा कि आप इस भयंकर वन में रहते हैं आपके पास कोई हथियार तो अवश्य ही होगा, यदि नहीं होगा तो आपको जरूर रखना चाहिए। यह शंका उत्पन्न होने पर जम्भेश्वर जी ने कहा- मेरे पास लोहे की बनी हुई धारीदार-पैनी छुरी या
अन्य हथियार नहीं है। तब वीदे की शंका ने आगे पैर पसारा कि आखिर आपके शत्रु क्यों नहीं? आगे जम्भेश्वर जी बतलाया-
सूरज को रिप बिहंडा नाही, तातैं कहा उठावत भारूं।
हे वीदा! सूर्य का शत्रु जुगनूं- आगिया नहीं हो सकता क्योंकि शत्रुता तथा मित्रता ये दोनों बराबर वालों में ही होती है। इसलिए मैं तो सूर्य के समान हूं तथा अन्य संसारिक शत्रु लोग तो जुगनूं के समान ही हैं। सूर्य जब तक उदय नहीं होता तब तक ही जुगनूं चम चम करता है। सूर्य उदय होने पर तो लुप्त हो जाता है इसलिए मैं यह शस्त्र रूपी लोहे का भार क्यों उठाऊं। क्योंकि मेरा शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता तो शरीर की रक्षा के लिए मैं भार क्यों उठाऊं।
जिहिं हाकणड़ी बलद जूं हाकै, न लोहै की आरूं।
मेरे पास तो जो बैल हांकने की साधारण लकड़ी होती है उसके अग्र भाग में लोहे की छोटी सी कील लगी रहती है उसके बराबर भी लोहे का शस्त्र नहीं है।
महाप्रलयावस्था में जब सृष्टि के कारण रूप आकाशादि तत्व ही नहीं रहते, वे अपने कारण में विलीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि प्रारंभ अवस्था में अपने कारण से कार्य रूप से परिणित हो जाते हैं, यही क्रम चलता रहता है। श्री देवजी कहते हैं कि जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई थी उस समय सृष्टि के ये कारण रूप पवन, जल, पृथ्वी, आकाश और तेज नहीं थे। जैसा इस समय आप देखते हैं वैसे नहीं थे, अपने कारण रूप में ही थे।
चन्द न होता सूर न होता, न होता गिंगंदर तारूं।
उस समय सूर्य, चन्द्रमा नहीं थे तथा ये आकाश मण्डल के तारे भी नहीं थे अर्थात् अग्नि तत्व का फैलाव नहीं हुआ था। यानि अग्नि स्वयं कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी थी।
गग्न गोरू माया जाल न होता, न होता हेत पियारूं।
तथा अन्य पृथ्वी तत्व का पसारा भी तब तक नहीं हो सका था जो प्रधानतः गाय-बैल के रूप में प्रसिह् हैं तथा तब तक ईश्वरीय माया ने अपनी गति विधि प्रारम्भ नहीं की थी। सभी जीव-आत्मा अपने शुह् स्वरूप में ही स्थित थे। माया ने अपना जाल अब तक नहीं फैलाया था। जिससे प्रेम, मोह, द्वेष आदि भी नहीं थे किंतु सभी कुछ सामान्य ही था।
माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न होता पख परवारूं।
तब तक माता-पिता, बहन-भाई सगा-सम्बन्धी मित्र आदि परिवार का पक्ष नहीं था। जीव स्वयं अकेला ही था। मोह माया जनित दुख से रहित चैतन्य परमात्मा हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित था। लख चैरासी जीया जूणी न होती, न होती बणी अठारा भारूं। चैरासी लाख योनियां भी तब तक उत्पन्न नहीं हुई थी अर्थात् मनुष्य आदि जीव भी सुप्तावस्था में ही थे। अठारह भार वनस्पति भी उस समय नहीं थी। ;शास्त्रों में वर्णित है कि कुल वनस्पति अठारह भार ही है यह भार एक प्रकार का तोल ही है।
सप्त पाताल फूंणींद न होता, न होता सागर खारूं।
सातों पाताल तथा पाताल लोक का स्वामी पृथ्वी धारक शेष नाग भी नहीं था। यहां पर केवल पाताल लोकों का ही निषेध किया है, इसका अर्थ है कि अन्य उपरि स्वर्गादिक लोक तो थे तथा खारे जल से परिपूर्ण समुन्द्र भी उस समय नहीं था।
अजिया सजियां जीया जूणी न होती, न होती कुड़ी भरतारूं। जड़, चेतनमय दोनों प्रकार की सृष्टि उस समय नहीं थी तथा उन दोनों प्रकार की सृष्टि के रचयिता माया पति सगुण-साकार ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों देव भी तब तक नहीं थे। आकाशादि सृष्टि के उत्पत्ति के पश्चात् ही सर्वप्रथम विष्णु की उत्पत्ति होती है, विष्णु से ही ब्रह्म की उत्पत्ति होती है, ब्रह्म ही अपनी झूठी मिथ्या माया से जगत की रचना करते हैं ऐसी प्रसिह् िहै इसलिए उस समय कूड़ी, झूठी माया तथा माया पति दोनों ही नहीं थे, तब जड़ चेतन की उत्पत्ति भी नहीं थी।
अर्थ न गर्थ न गर्व न होता, न होता तेजी तुरंग तुखारूं।
उस समय ये सांसारिक चकाचैंध पैदा करने वाले धन दौलत तथा उससे उत्पन्न होने वाला अभिमान नहीं था। चित्र-विचित्र रंग-रंगीले तेज चलने वाले घोड़े, भी उस समय नहीं थे।
हाट पटण बाजार न होता, न होता राज दवारूं।
श्रेष्ठ दुकानें, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बाजार आदि दिग्भ्रमित करने वाले राज-दरबार भी उस समय नहीं थे। जो इस समय यह उपस्थित चकाचौंध तथा राज्य प्राप्ति की अभिलाषा जनित क्लेश है उस समय नहीं था।
चाव न चहन न कोह का बाण न होता, तद होता एक निरंजन शिम्भू।
इस समय की होने वाली चाहना यानि एक-दूसरे के प्रति लगाव या प्रेम भाव, खुशी से होने वाली चहल-पहल, उत्सव तथा क्रोध रूपी बाण भी उस समय नहीं थे। प्रेम तथा क्रोध दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर स्थित होकर मानव को घायल कर देते हैं, यह स्थिति उस समय नहीं थी तो क्या? कुछ भी नहीं था। उस समय तो माया रहित एकमात्र स्वयंभू ही था।
कै होता धंधूकारूं बात कदो की पूछै लोई, जुग छतीस विचारूं।
या फिर धंधूकार ही था। पंच महाभूतों की जब प्रलयावस्था होती है तब वे परमाणु रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, उन परमाणुओं से धन्धूकार जैसा वातावरण हो जाता है। हे सांसारिक लोगो! आप कब की बात पूछते जो ? यदि आप कहें तो एक या दो युग नहीं, छतीस युगों की बात बता सकता हूं। तांह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। ह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। उससे पूर्व का तो कोई अन्त पार भी नहीं है। म्हे तदपण होता अब पण आछै, बल बल होयसा कह कद कद का करूं विचारूं।
जब इस सृष्टि का विस्तार कुछ भी नहीं था, इसलिए मैं बता भी सकता हूं कि उस समय क्या स्थिति थी। इस समय मैं विद्यमान हूं और आगे भी रहूंगा। हे उधरण! कहो कब कब का विचार कहूं। अर्थात् आप लोग मेरी आयु किस किस समय की पूछते हैं? मैं अपनी आयु कितने वर्षों की बतलाऊ।
√ ओउम अइयालो अपरंपर बाणी,महे जपां न जाया जीयूं।|
हे संसार के लोगों ! मेरी बाणी अपरंपार है अर्थात् तुम लोग जिनकी परंपरा से उपासना करते आये हो और अब भी कर रहे हो, ऐसी परंपरा वाली उपासना मैं नहीं करता। आप लोगों ने जिस परम तत्व की कभी कल्पना भी नहीं की होगी, जो लोगों की सामान्य वाणी से परे है। केवल योगी लोगों द्वारा अनुभव गम्य है, उसी परम देव की मैं मन वचन कर्म से उपासना तथा जप करता हूं और आप लोग भी उसी की उपासना करो। हमारे जैसे पुरूष कभी भी जन्में हुए जीवों की उपासना जप नहीं करते यदि आप लोग करते हैं तो छोड़ दीजिये। जन्मा जीव तो स्वयं असमर्थ है, कमजोर व्यक्ति दूसरे की क्या सहायता कर सकता है।
√ नव अवतार नमो नारायण,तेपण रूप हमारा थीयूं।|
परम सत्तावान भगवान विष्णु के ही नवों अवतार हुए हैं, ये नव अवतार-मच्छ, कच्छ, वाराह, नृसिंह, बावन, परशुराम, राम-लक्ष्मण, कृष्ण तथा बुद्ध इत्यादि। ये नवों अवतार ही नमन करने योग्य हैं, इनसे अतिरिक्त अन्य जन्मा जीव उपास्य नहीं है तथा ये नवों अवतार श्री जाम्भोजी कहते हैं कि मेरे ही स्वरूप है। देश काल, शरीर से भिन्न होते हुए भी तत्व रूप से तो मैं और नवों अवतार एक ही है।
√ जपी तपी तक पीर ऋषेश्वर, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं।|
अब आगे जन्मे हुए जीवों को बता रहे हैं, जिनका जप लोग किया करते हैं, उनमे यती, तपस्वी, तकिये पर रहने वाले फकीर, ऋषि,मण्डलेश्वर, इत्यादि जन्मे जीव हैं। हे लोगों ! इनका जप क्यों करते हो ?
√ खेचर भूचर खेत्र पाला परगट गुप्ता,
कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं|| आकाश में विचरण करने वाले, धरती पर रहने वाले, खेत्रपाल, भोमियां इत्यादि कुछ तो प्रगट तथा कुछ गुप्त इन्हें आप क्यों जपते हैं ये तो जन्मे हुए जीव हैं।
√ वासग शेष गुणिदां फुणिदां, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं|| वासुकि नाग, शेषनाग, मणिधारी, गुणवान तथा फणधारी, नागराज ही क्यों न हों ये सभी जन्में हुए जीव है इसलिये जप करने के योग्य नहीं है फिर इनके नीचे पड़ कर धोक क्यों लगाते हो ?
√ चैषट जोगनी बावन भैरूं,
कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं|| चैंसठ प्रकार की योगनियां तथा बावन प्रकार के बीर - भैरव जो देहातों में अब भी पूजे जाते हैं ये सभी जन्म-मरण धर्मा सामान्य जीव है इनकी आराधना सदा ही वर्जनीय है, आप लोग क्यों भोपों-पुजारियों के चक्कर में पड़ कर धन, बल, समय, व्यर्थ में ही बरबाद करते हो।
√ जपां तो एक निरालंभ शिम्भूं, जिहिं के माई न पीयूं||
एक निराकार निरालंभ, निरंजन, स्वयंभूं का ही हम तो जप करते हैं जिनके न तो कोई माता है और न ही कोई पिता ही है तथा जो सर्वाधार सर्वशक्तिमान है और वह सभी के माता-पिता भाई-बन्धु सभी कुछ है।
√ न तन रक्तूं न तन धातूं,न तन ताव न सीयू||
एक मात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिये, प्राप्त करना चाहिये।
√ सर्व सिरजत मरत विवरजत,तास न मूलज लेणा कीयों।| एकमात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिए, प्राप्त करना चाहिए।
√ अइयालों अपरंपर बाणी, महे जपां न जाया जीयूं।|
इसीलिये हे लोगो! मेरा मार्गकुछ विचित्र है किन्तु सत्य सनातन है, संसार की लीक से हटकर होने से आश्चर्य नहीं करना। अतः मैं जन्में जीवों का जप नहीं करता। जो स्वयं फंसे हैं वे दूसरों को कैसे मुक्ति दिला सकते हैं?
√ ओउम भवन भवन म्हें एका जोती, चुन चुन लिया रतना मोती।
भावार्थ- सम्पूर्ण चराचर सृष्टि के कण-कण में परम तत्व रूप परब्रह्या की सामान्य ज्योति सर्वत्र है अर्थात् प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा उसी एक परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है। जैसा बिम्ब रूप परमात्मा है वैसे ही प्रतिबिम्ब रूप जीव है, दोनों में कोई भेद नहीं है। यदि किसी को भेद मालूम पड़ता है तो वह केवल उपाधि के कारण ही हो सकता है। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि जीव सभी एक होने पर भी तथा परमात्मा का अंश होने पर भी, हमारे जैसे अवतारी पुरुष सभी जीवों का उद्धार नहीं करते क्योंकि सभी जीव अब तक ईश्वर प्राप्ति की योग्यता नहीं रखते इसलिए जो हीरे-मोती सदृश अमूल्य शुह् सात्विक सज्जनता को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें ही हम परम धाम में पहुंचाते हैं।
√ म्हे खोजी थापण होजी नाही, खोज लहां धुर खोजूं।
हम खोजी हैं अर्थात् जिन जीवों के कर्मजाल समाप्त हो चुके हैं वे लोग अब परम तत्व के लिए बिल्कुल तैयार हैं, उन्हें केवल सहारे की जरूरत है। ऐसे जीवों की हम खोज करेंगे तथा चुन-चुन कर उन्हें परम सत्ता से साक्षात्कार करवाएंगे। हम होजी नहीं हैं, अर्थात् अज्ञानी या नासमझ नहीं हैं। एक-एक कार्य बड़ी शालीनता से किया जाएगा जो सदा के लिए सद्मार्ग स्थिर हो जाएगा। सृष्टि के प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक जितने भी जीव बिछुड़ गए हैं उन्हें प्रह्लाद जी के कथनानुसार वापिस खोज करके सुख शांति प्रदान करूंगा। इसलिए मेरा यहां पर आगमन हुआ है।
√ अल्लाह अलेख अडाल अजोनी स्वयंभू, िजिहका
किसा विनाणी।
उस परम तत्व की प्राप्ति जीव करते हैं, वह अल्लाह, माया रहित, शब्द लेखन शक्ति से अग्राह्र उत्पत्ति रहित, मूल स्वरूप, जो स्वयं अपने आप में ही स्थित है, उसका विनाश कैसे हो सकता है? इसलिए इस सिद्धांत से विपरीत जो जन्मा हो, लेखनीय हो, डाल रूप हो, जो उत्पत्तिशील हो उसका ही विनाश संभव है। इसलिए उस नित्य आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके जीव भी नित्य आनन्द रूप ही हो जाता है।
√ म्हे सरै न बैठा सीख न पूछी, निरत सुरत सब जाणी।
जब उधरण ने पूछा कि हे देव! यह शिक्षा आपने कौन सी पाठशाला में प्राप्त की, क्योंकि ऐसी विद्या तो हम भी सीखना चाहते हैं। तब जम्भेश्वरजी ने कहा कि ‘मैंने यह विद्या किसी पाठशाला में बैठकर नहीं सीखी।’
उधरण-तो फिर कैसे जान गए?
हे उधरण! मैंने इसी प्रकृति की पाठशाला में बैठकर सुरति-वृति को निरति यानि एकाग्र करके सभी कुछ जान लिया। पाठशाला में बैठकर तो सभी कुछ नहीं जाना जा सकता किन्तु उस सत्ता परमेश्वर के साथ वृति को मिला लेने से सभी कुछ जाना जा सकता है, क्योंकि वह परम तत्व व्यापक होने से वृति एकाग्र कर्ता जीव भी व्यापकत्व को प्राप्त हो जाता है और सभी कुछ जान लेता है। इसलिए आप भी मन-वृति को एकाग्र कीजिए और सभी कुछ जानिए।
√ उत्पत्ति हिन्दू जरणा जोगी, किरिया ब्राह्रण, दिलदरवेसां, उनमुन मुल्ला, अकल मिसलमानी।
उत्पत्ति से तो सभी हिन्दू हैं, क्योंकि जितने भी धर्म और सम्प्रदाय चले हैं, उनका तो कोई न कोई समय निश्चित है। किन्तु हिन्दू आदि अनादि हैं, कोई भी संवत् निश्चित नहीं है तथा मानवता जिसे हम कहते हैं,वह पूर्णतया हिन्दू में ही सार्थक होती है, इसलिए उत्पन्न होता हुआ बालक हिन्दू ही होता है, बाद में उसको संस्कारों द्वारा मुसलमान, इसाई आदि बनाया जाता है। जिसके अन्दर जरणा अर्थात् सहनशीलता है वही योगी है। जिस प्राणी के अन्दर क्रिया, आचार-विचार, रहन-सहन, पवित्र तथा शुह् हैं वही ब्राह्रण है। जिस मानव का अंतःकरण शुद्ध पवित्र, विशाल, राग द्वेष से रहित है वही दरवेश है। जिस मनुष्य ने मानसिक वृतियों को संसार से हटाकर आत्मस्थ कर लिया है वही मुल्ला है तथा जो इस संसार में बुद्धिद्वारा सोच-विचार के कार्य करता है वही मुसलमान हो सकता है क्योंकि मुसलमान पंथ संस्थापक ने अकलहीनों को अकल दी थी जिससे यह पंथ स्थापित हुआ था। कोई भी जाति विशेष इन विशिष्ट कर्मों द्वारा ही निर्मित होती है। कर्महीन होकर केवल जन्मना जाति से कुछ भी लाभ नहीं है। यह तो मात्र पाखण्ड ही होगा।
ॐ हिन्दू होय कै हरि क्यूं न जंप्यों, कांय दहदिश दिल पसरायों। भावार्थ- हिन्दू होने का अर्थ है कि भगवान विष्णु से सम्बन्ध स्थापित करना। विष्णु निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना तथा विष्णु परमात्मा का अनुमान करना, तथा विष्णु परमात्मा का स्मरण करना। यदि हिन्दू होय कर यह कर्तव्य तो किया नहीं और मन इन्द्रीयों को दसों दिशाओं में भटकाते रहे तो फिर तुम कैसे हिन्दू हो सकते थे।
सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बन रायों।
आप लोग हिन्दू होकर भी चन्द्रमा के रहते, अमावस्या के समय तथा सूर्यदेव के समक्ष हरे वृक्षों को काटते हो तो तुम कैसे हिन्दू हो सकते हो? अर्थात् किसी भी समय हरे वृक्ष नहीं काटने चाहिए। ये जीवधारी होते हुए मानव आदि के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। सम्पूर्ण समय में सोम-चन्द्रमा, अमावस तथा आदित्य-सूर्य ये तीनों उपस्थित रहेंगे ही। दिन में सूर्य रात्री में चन्द्रमा तथा अन्धेरी रात्रि में अमावया रहेगी। इन तीनों के बिना तो समय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए हरे वृक्ष नहीं काटना चाहिए, सदा ही वर्जनीय है।
गहरण गहंते बहण बहंतै, निर्जल ग्यारस मूल बहंतै। कांयरे मुरखा तैं पांलंग सेज निहाल बिछाई।
सूर्य चन्द्र ग्रहण के समय में, प्रातः सायं संध्या के समय में ;उस समय वेणा अर्थात् कूवें तालाब से जल लानें की बेला मेंद्ध निर्जला ग्यारस में तथा मूल नक्षत्र में ;यह नक्षत्र अनिष्टकारी होता है | हे मूर्ख! ऐसे समय में तुमने सुन्दर पलंग बिछा कर सांसारिक सुख के लिए प्रयत्नशील रहा। इन समय में गर्भाधान से होने वाली संतान शारीरिक, मानसिक, बौह्कि रूप से स्वस्थ पैदा नहीं होगी, दुष्ट स्वभाव जनित विकृत ही होगी।
जा दिन तेरे होम जाप न तप न किरिया, जान कै भागी कपिला गाई।
उन ग्रहणादि दिनों में तेरे को हवन, जप, तप, शुद्ध आचारादि क्रिया, शुभ कर्म करने चाहिए थे किन्तु ये कर्म तो तूने किए नहीं तो जान- समझ कर के भी घर में ही आयी हुई कामधेनु को तुमने भगा दिया।
कूड, तणों जे करतब कियो, ना तैं लाव न सायों।
इस समय में इस संसार में रह कर, झूठ बोलकर, कपटपूर्ण कर्तव्य किया,न तो उसमें कुछ लाभ हुआ और न ही अच्छा कहा जा सकता है। सत्य प्रिय हित कर वचनों की परवाह न कर के तूने अपने जीवन को नीचे धकेल दिया है।
भूला प्राणी आल बखाणी, न जंप्यों सुर रायों।
हे भूले हुए हिन्दू प्राणी! तूने यथार्थ की बात तो कभी नहीं कही, तथा वैसे ही व्यर्थ की आल-बाल बातें बकता रहा किन्तु देवाधिदेव विष्णु हरि का जप नहीं किया।
छंदै का तो बहुता भावै, खरतर को पतियायों।
स्वकीय प्रशंसा परक तथा परकीय निंदा परक बातें तो तुझे बहुत ही अच्छी लगी और किसी साहसी जन ने सच्ची यथार्थ बात तुम्हारी तथा परायी कही तो वह तुम्हें अच्छी नहीं लगी, उस पर तुमने विश्वास तक नहीं किया क्योंकि तुम्हें अपनी प्रशंसा और दूसरों की बुराई में ही आनन्द आता है।
हिव की बेला हिव न जाग्यों, शंक रह्यो कदरायों।
अनायास ही प्राप्त इस अमूल्य समय में ह्रदय को जगाया नहीं क्योंकि ह्रदय में ही तो जीव चेतन रहता है, वह तो वचनों द्वारा जगाया जा सकता है। यदा कदा किसी ने जगाने की चेष्टा भी की तो झट से तूने शंका खड़ी कर दी। जिसे तुम्हारी शंका कभी निर्मूल नहीं हो सकी और न ही जाग सका, उल्टा अभिमान के वशीभूत हो गया।
ठाढ़ी बेला ठार न जाग्यों, ताती बेला तायों।
सूर्यास्त की बेला ठण्डी होती है उसी प्रकार से मानव की वृद्धावस्था भी ठण्डी बेला ही है, क्योंकि शरीर प्रायः ठण्डा ही होता है। धीरे-धीरे समय आने पर बचा-खुचा तेज भी गमन कर जाता है, तब हम उसे मृत कहते हैं। जवानी अवस्था तो दुपहरी के सूर्य के समान गर्म बेला है। हे प्राणी! वृद्धावस्था में तो ठण्डा हो जाएगा, शक्ति क्षीण हो जाएगी। कुछ कर नहीं सकेगा और युवावथा में तो गर्मी के जोश में तैने कुछ ऐसा कार्य किया ही नहीं जो पार उतार दें यदि चाहता तो कर सकता था।
बिंबै बेला विष्णु न जंप्यो, ताछै का चीन्हौं कछु कमायो। बाल्यावस्था तो उगते हुए सूर्य की भांति अति सुन्दर निर्दोष तथा मनमोहक है व तो बिम्बै बेला है, इसमें तो सचेत होना भी कठिन है क्योंकि जब तक ना समझ है। हे प्राणी! तूने इन तीनों अवस्थाओं में ही भगवान का भजन नहीं किया तो फिर किसकी पहचान की और क्या कमाई की अर्थात् यह जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया।
अति आलस भोलावै भूला, न चीन्हों सुररायो।
आलस्य ही मानव का महान शत्रु है। हे प्राणी! अति आलस में पड़कर न तो तुमने स्वयं कुछ कल्याणकारी कार्य किया और न ही किसी और करने दिया। स्वयं तो भूल में रहा और दूसरों को भी भूल में डालता रहा। देवपति भगवान विष्णु का स्मरण- ध्यान नहीं किया तो यही जीवन में भूल की है।
पार ब्रह्या की सुध न जाणी, तो नागे जोग न पायों।
जब तक परब्रह्रा की सुधी नहीं जान सकता तब तक नंगे रहने से या धूणी धूकाने से अथवा भभूत लमाने से कोई योगी या हिन्दू नहीं हो सकता।
परशुराम के अर्थ न मूवा, ताकी निश्चै सरी न कायों।
परशुराम जी भगवान विष्णु के ही अवतार थे, उन्होंने इस संसार में अनेकानेक आश्चर्यजनक कार्य किए थे। अपने जीवन काल में ब्राह्रणत्व और क्षत्रियत्व दोनों धर्मों को एक साथ पूर्णता से निभाया। संसार में आयी हुई विपत्ति का विनाश कर के सद्मार्ग प्रशस्त किया यदि इस समय उनके मार्ग पर चल कर कोई व्यक्ति अपने प्राणों का बलिदान देता है तो उसी का ही जीवन सफल है और जो तपस्यामय कठोर मार्ग से घबराता है उसका कार्य निश्चित ही सफल नहीं हो सकेगा। इसलिए हे पुरोहित! हिन्दू तो वही है जो हिन्दू धर्म को धारण करता है, केवल नाम मात्र से कुछ भी नहीं होता|
ओझ्म् सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, सुण रे बकर कसाई। भावार्थ- भावार्थ-बकरी आदि निरीह जीवों की हत्या करने वाले कसाई रूपी काजी, , मुल्ला तुम लोग मेरी बात को ध्ध्यान पूर्वक श्रवण करो।
किणरी थरपी छाली रोसो, किणरी गाडर गाई।
किस महापुरूष पैगम्बर ने यह विध्धान बनाया है कि तुम काजी मुल्ला मुसलमान या हिन्दू मिलकर या अलग-अलग इन बेचारी भेड़-बकरी और माता तुल्य गऊ के गले पर छुरी चलावो अर्थात् ऐसा विध्धान किसी ने नहीं बनाया तुम मनमुखी हो तथा अपना दोष छिपाने के लिये किसी महापुरूष को बदनाम मत करो।
सूल चुभीजै करक दुहैली, तो है है जायों जीव न घाई।
यदि तुम्हारे शरीर में कांटा चुभ जाता है तो भी दर्द असह्य हो जाता है फिर बेचारे जन्मे जीव ये भी तो शरीर ध्धारी है इनके गले पर छुरी चलाते हो कितना कष्ट होता है। सभी प्राणी जीना चाहते है मृत्यु भयंकर है, , उस दुखदायी अवस्था में इन मूक प्राणियों को आप पहुंचा देते है इससे बढ़कर और क्या कष्ट होगा, , यही बड़े दुख की बात है।
थे तुरकी छुरकी भिस्ती दावों, खायबा खाज अखाजूं।
आप लोग मुसलमान है और हाथ में छुरी रखते है तथा अखाद्य मांस आदि का खाना खाते है फिर भी स्वर्ग में जाने का दावा करते है, , यह असंभव है।
चर फिर आवै सहज दुहावै, तिसका खीर हलाली।
जो गऊ, , भेड़, , बकरी आदि वन में घास चरकर आती है और स्वाभाविक रूप से अमृत तुल्य दूध्ध देती है और उस दूध्ध से खीर, , घी, , दही आदि बनते है वह तो तुम्हारी हक की कमाई है किन्तु-
जिसके गले करद क्यूं सारो, थे पढ़ सुण रहिया खाली।
अन्याय द्वारा उन पर करद की मार क्यों करते हो, , आप लोग कुरान आदि पढ़-सुन कर भी खाली ही रह गये, , कुछ भी नहीं समझ सके।
ओ३म् दिल साबत हज काबो नेड़ै, क्या उलबंग पुकारो। भावार्थ- यदि तुम्हारे दिल शुद्ध सात्विक विकार रहित है तो तुम्हारे काबे का हजा नजदीक ही है अर्थात् हृदय ही तुम्हारा काबै का हज है तो फिर क्यों मकानों की दिवारों पर चढ़कर ऊंची आवाज से उस अल्ला की पुकार करते हो, , यह तुम्हारी बेहूदी उलबंग तुम्हारा अल्ला नहीं सुन सकेगा क्योंकि वह अल्ला तो तुम्हारे दिल में ही है।
भाई नाऊ बलद पियारो, ताकै गलै करद क्यूं सारों।
अपने प्रियजन भाई से भी हल चलाने वाला बैल प्रिय होता है, भाई मौके पर कभी भी जबाब दे सकता है किन्तु वह भोला-भाला बैल कभी भी संकट की घड़ी में जबाब नहीं देगा। आप लोग महा मूर्ख हो जो उस बैल के गले पर भी करद चलाते हो, यदि आप लोग जरा भी सोच-समझ रखते हो तो फिर ऐसा क्यों करते हो।
बिन चीन्है खुदाय बिबरजत, केहा मुसलमानों।
तुम लोगों ने ईश्वर को तो पहचाना नहीं है। उस खुदा ने भी तो जीव हत्या करना मना किया है फिर भी जीव हत्या करते हो, तो तुम सच्चे मुसलमान कैसे हो सकते हो। शिष्य यदि गुरु का कहना नहीं माने तो फिर कैसा गुरु और कैसा शिष्य।
काफर मुकर होकर राह गुमायो, जोय जोय गाफिल करें धिंगाणों।
अपने गुरु के वचनों को छोड़कर आप लोग वास्तव में काफिर-नास्तिक हो चुके हो और अपने पथ से भ्रष्ट होकर जबरदस्ती करते हो। वास्तव में अपने मार्ग का पता तो तुम्हें है किन्तु जानते हुऐ भी अनजान बनकर पाप कर्म करने में प्रवृत हो गये, यही तुम्हारी जबरदस्ती है।
ज्यूं थे पश्चिम दिशा उलबंग पुकारो, भल जे यो चिन्हों रहमाणों।
जिस प्रकार से आप लोग पश्चिम दिशा की ओर मुख करके बड़े जोर से हेला(आवाज) मारते हो ठीक उसी प्रकार से यदि उस दया-ज्ञान सिन्धु रहम करने वाले परमेश्वर को सच्चे दिल से याद करो तो तुम्हारा भला होना निश्चित ही है।
तो रूह चलंते पिण्ड पड़ंतै, आवै भिस्त विमाणों।
यदि आप लोग सच्चे मन से नमाज की तरह ही परमात्मा का स्मरण करो तो जब यह आत्मा शरीर से विलग हो जायेगी यह शरीर गिर जायेगा, उस समय स्वर्ग से विमान तुम्हारे लिये अवश्य ही आयेगा।
चढ़ चढ़ भींते मड़ी मसीते, क्या उलबंग पुकारो।
बीना सच्चाई के तो केवल भींत, मेड़ी , मस्जिद आदि पर चढ़कर पुकार करने से कोई लाभ नहीं कभी स्वर्ग की आशा नहीं करना।
कांहे काजै गऊ विणासै, तो करीम गऊ क्यूं चारी|
भगवान श्री कृष्ण ने गऊवें चराई थी यदि गउवों को मारना ही इष्ट होता तो वे समर्थ पुरूष कभी भी गउवें नहीं चराते। अब तक तो यहां संसार में एक भी गऊ जीवित नहीं होती तो फिर तुम लोग क्यों गउवों का विनाश करते हो।
कांही लीयो दूधूं दहियूं, कांही लीयूं घीयूं महीयूं। कांही लीयूं हाडूं मासूं, काहीं लीयूं रक्तूं रूहियूं।
यदि तुम लोग गऊवों का विनाश करना ठीक मानते हो तो फिर उनका अमृतमय दूध, दही, घी , मेवा आदि क्यों ग्रहण करते हो? इन वस्तुओं से सदा परहेज रखो और यदि घी, दूध आदि ग्रहण करते हो तो फिर उनके हाड़, मांस, रक्त और जीव को क्यों खा जाते हो? यह तुम्हारा न्याय नहीं हो सकता।
सुणरे काजी सुणरे मुल्ला, यामै कोण भया मुरदारूं।
रे काजी, रे मुल्ला! ध्यानपूर्वक सुनों! इसमें मुर्दा कौन हुआ? मारने वाला या मरने वाला? यहां तो ऐसा ही लगता है कि मुर्दे को खाने वाला ही मुर्दा(मृत) है। जो मर चुका है वह तो नया शरीर धारण कर ही लेगा, किन्तु मरे हुऐ को खाने वाला तो रोज मुर्दा-मृत होता है अर्थात् तुम लोग सभी मुर्दे हो।
जीवां ऊपर जोर करीजै, अंत काल होयसी भारूं।
इस समय यदि जीवों पर जोर जबरदस्ती करते हो तो अन्त समय में तुम्हारे लिये मुश्किल पैदा हो जायेगी। तुम्हारा यह जीवन मूल ही नष्ट हो जायेगा।
ओ३म् विसमिल्ला रहमान रहीम, जिहिं कै सदकै भीना भीन।
भावार्थ- विसमिल्ला तो रहम-दया भाव रखने वाले स्वयं विष्णु अवतारी राम ही है। उनका मार्ग तो तुम्हारे से भिन्न ही था। वर्तमान में तुमने जो जीव हत्या का मार्ग अपना रखा है यह तुम्हारा मनमुखी है। उनको बदनाम मत करो।
तो भेटिलो रहमान रहीम, करीम काया दिल करणी।
सभी पर रहम करने वाले श्री राम एवं गोपालक श्री कृष्ण को दिल रूपी हृदय गुहा में स्थिर करके फिर कोई शुभ कार्य करोगे तभी तुम्हारा कार्य सुफल होगा। उस रहीम से भेंट मिलन भी हो सकेगा।
कलमा करतब कौल कुराणों, दिल खोजो दरबेश भइलो तइयां मुसलमानों|
शुभ कर्तव्य कर्म करना ही कलमा रखना है और प्रतिज्ञा निभाना ही कुराण पढ़ना है तथा यही पीर पैगम्बरों का आदेश है। जो व्यक्ति अपने ही अन्तःकरण में छिपे हुऐ अवगुणों को खोजकर उनको बाहर निकाल देता है एवं शुद्ध पवित्र हो जाता है वही सच्चा मुसलमान है तथा वही दरवेश है।
पीरां पुरूषां जमी मुसल्ला, कर्तब लेक सलामों।
पीर पुरूष और सभी एकत्रित हुए मुसलमानों आप लोग आपस में एक दूसरे के प्रति सलाम कहते हो यह भी तुम्हारी सलाम व्यर्थ ही है क्योंकि जब तक नेक कमाई नहीं करोगे तब तक तुम्हारा कभी भी कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है। कथनी और करनी में एकता ही जीवन में सुख का मूल है। वास्तविक सलाम तो नेक कमाई है।
हम दिल लिल्ला तुम दिल लिल्ला, रहम करे रहमाणों। हमारे दिल में वह लीलाधारी परमेश्वर है और तुम्हारे दिल में भी वही विराजमान है क्योंकि वह रहम करने वालों में सर्वश्रेष्ठ है। अर्थात् जो एक हिन्दू महात्मा को मानव शरीर दिया है उसी ने ही मुसलमान को भी वही अमूल्य मानव चोला दिया है तथा स्वयं ही उसमें प्रवेश भी हुआ है।
इतने मिसले चालो मीयां, तो पावो भिस्त इमाणों।
हे मियां! ऊपर बताये हुए मार्ग नियमों पर चलोगे तो भिस्त स्वर्ग प्राप्त कर सकते हो। जिस की प्राप्ति के लिये दिन-रात प्रयत्न शील दिखाई देते हो।
ओ३म् दिल साबत हज काबो नैड़ै, क्या उलबंग पुकारो। भावार्थ- यदि तुम्हारे दिल में सच्चाई है तो काबे की हज निकट ही है। जब तुम्हारा अपना अन्तःकरण नजदीक ही है तो फिर उसे दूर समझकर इतनी जोर से आवाज क्यों लगाते हो क्योंकि वह अल्ला तो तुम्हारे दिल में ही है।
सीने सरवर करो बंदगी, हक्क निवाज गुजारो।
उस परमपिता परमात्मा की प्राप्ति करना चाहते हो तो हृदय में प्रेम और दीनता से पुकार करो यही सच्ची प्रार्थना होगी। प्रतिदिन केवल नमाज अदा करने से तो कुछ कार्य सफल नहीं हो सकेगा। जब तक अपने जीवन में हक की कमाई नहीं करोगे, नमाज का अर्थ ही है कि हम अपने जीवन को शुद्ध परोपकारमय बनावें।
इंहि हैड़ै हर दिन की रोजी, तो इस ही रोजी सारों।
ईमानदारी से भले ही कितना ही कठिन कार्य करना पड़े वही कार्य अपने जीवन यापन के लिये उत्तम है। बेईमानी से किया हुआ कर्म जीवन को बर्बाद कर देगा वह अच्छा कैसे हो सकता है। जीवन में शारीरिक परिश्रम करके जो कुछ प्राप्त होता है वही संतोषजनक हो सकता है।
आप खुदाय बंद लेखौ मांगै, रे वीन्है गुन्है जीव क्यूं मारो।
स्वयं खुदा न्यायकारी आपसे न्याय मांगेगा और पूछेगा कि रे प्राणी! तेरे को अमूल्य मानव जीवन दिया था।इस जीवन में तेने क्या क्या कर्म किये? उन जीवों ने तेरा क्या अपराध किया था। जिससे तुमने उनको मार डाला। तुझे किसी भी प्राणी को मारने का हक नहीं है, यदि तूं किसी को जीवन दान नहीं दे सकता तो मृत्यु देने का क्या हक है? यह अनाध्धिकार चेष्टा है।
थे तक जाणों तक पीड़ न जांणो, विन परचै वाद निवाज गुजारो। आप लोग बल प्रयोग द्वारा प्राणियों को मारना तो जानते हो किन्तु उनकी पीड़ा को नहीं जानते अर्थात् आपके पास सहानुभूति नहीं है अपने जीवन में कभी किसी सद्गुरु की बात का विश्वास पूर्ण श्रवण नहीं किया जिससे आत्मज्ञान प्राप्ति के बिना ही व्यर्थ में ही विवाद करते हो इसी प्रकार से अज्ञानी रहकर ही नमाज अदा करते हो तो इससे जीवन में कुछ भी लाभ नहीं होगा।
चर फिर आवै सहज दुहावै, जिसका खीर हलाली। तिसके गले करद क्यूं सारौ, थे पढ़ सुण रहिया खाली।
जो माता तुल्य गऊ वन में चरकर आती है और वापिस आकर स्वभाव से ही अमृत तुल्य दूध देती है। उससे तुम लोग खीर आदि बनाकर खाते पीते हो फिर ऐसी परोपकारी माता के गले पर करद का वार भी करते हो तो तुम लोग पढ़-लिख, सुनकर भी खाली रह गये। तुम्हारा पढ़ना-लिखना व्यर्थ ही सिद्ध हो गया।
थे चढ़ चढ़ भींते मड़ी मसीते, क्या उलबंग पुकारो। कारण खोटा करतब हीणा, थारी खाली पड़ी निवाजूं।
गऊ आदि जीव धारियों का मांस भक्षण करके फिर भींतों पर मेड़ी और मस्जिदों पर चढ़कर क्यों उलबंग से पुकार करते हो, , क्या वह खुदा तुम्हारी बात को कभी सुनेगा? क्या वह बहरा या अन्धा हो गया है जो तुम्हारे इन खोटे पाप कर्मों को नहीं सुनता और देखता। क्या वह तुम्हारे हृदय की बात को नहीं जानता।जब तक तुम्हारे कार्य कारण रूप से खोटे कर्म है इन दुष्ट कर्मों का परित्याग नहीं करोगे तब तक तुम्हारा नमाज पढ़ना व्यर्थ है इससे कुछ भी अच्छा फल मिलने वाला नहीं है।
किहिं ओजूं तुम धोवो आप, किहिं ओजूं तुम खण्डा पाप। किहिं ओजूं तुम धरो धियान, किहिं ओजूं चीन्हों रहमान।
इस प्रकार से जीव हत्या करते हुए फिर आप लोग किस प्रकार से अपने को साफ करोगे तथा किस प्रकार से पापों का नाश करोगे? किस प्रकार से परमसत्ता परमेश्वर - अल्ला का ध्यान करोगे और किस प्रकार से उस रहम करने वाले रहीम-राम को पहचान कर स्मरण करोगे। तुम्हारा अन्तःकरण व शरीर इतना अपवित्र हो चुका है, , जिससे तुम्हारी इन शुभ कार्य करने की योग्यता समाप्त हो गयी है और न ही नमाज पढ़ने से पूर्व हाथ पांव आदि धोना रूप ओजूं से ही कुछ शुभ कार्य होने वाला है।
रे मुल्ला मन मांही मसीत नमाज गुजारिये, सुणता ना क्या खरै पुकारिये।
रे मुल्ला काजी! इस लोक दिखावा रूप उलबंग को छोड़कर अपने मनरूपी मसीत में ही शांति तथा सावधानी पूर्वक निमाज पढिये। वह अन्तर्यामी खुदा क्या सुनता नहीं है? वह तो घट घट की बात जानने वाला है।तो फिर खड़े होकर जोर से पुकारने की आवश्यकता नहीं है।
अलख न लखियो खलक पिछाण्यो, चांम कटै क्या हुइयो। मन बुद्धि द्वारा परमात्मा का अनुभव तो किया नहीं और संसार में ही दशों दिशाओं में वृति को भटकाता रहा, केवल संसार को ही सत्य सभी कुछ समझा तो फिर सुन्नत कराने से क्या लाभ हुआ।
हक हलाल पिछाण्यों नांही, तो निश्चै गाफल दोरै दीयो।
इस संसार में रहते हुऐ कर्तव्य -अकर्तव्य, पाप-पुण्य, , हक्क-बेहक्क की पहचान तो की नहीं। विवेक बुद्धि से तो कार्य किया नहीं हे गाफिल! निश्चित ही तुझे खुदा-ईश्वर दौरे नरक में ही डालेंगे।
: सबद-12 ::
ओ३म् महमद महमद न कर काजी, महमद का तो विषम विचारूं।
भावार्थ- अपने कुकर्मों पर परदा डालने के लिये हे काजी! तूं मुहमद का नाम बार-बार मत ले। तुम्हारे विचारों,कर्तव्यों से मुहम्मद का कोई मेल जोल नहीं है। उनके विचार सर्वथा भिन्न थे।
महमंद हाथ करद जो होती, लोहै घड़ी न सारूं।
यदि तुम्हारी यह मान्यता है कि मुहमद भी हाथ में करद रखते थे तो यह बात सर्वथा गलत है क्योंकि प्रथम तो मुहमद जैसे महापुरूष हाथ में कभी हिंसा करने वाली खड़ग रख ही नहीं सकते और यदि रखते थे तो उनके पास में लोहे की बनी हुई नहीं थी। वह तो ज्ञान रूपी खड़ग ही थी। जिससे लोगों के पाप नाश किया करते थे।
महमद साथ पयंबर सीधा, एक लख असी हजारूं।
मुहमद के साथ में तो एक लाख असी हजार पैगम्बर यानि सिद्ध पुरूष थे। उन्होंने तो सद्मार्ग अपना करके स्वयं का तथा साथ में इन सिद्ध पुरूषों का भी उद्धार किया था।
महमद मरद हलाली होता, तुम ही भये मुरदारूं।
मुहमद तो पूर्णतया हक्क से कमाई करके शाकाहारी भोजन करते थे और तुम लोग जो अपने को उनका शिष्य बतलाकर मुर्दा खाते हो अर्थात् मांसाहारी होकर उनके मार्ग के अनुयायी कदापि नहीं हो सकते।
इस प्रकार से पुरोहित और काजी दोनों ने अलग-अलग शब्द सुनकर वापिस यथा स्थान पहुंचकर लूणकरण और मुहमद को अवगत करवाया।
सबद-13 ::
ओ३म् कांय रे मुरखा तै जन्म गुमायो, भुंय भारी ले भारूं। भावार्थ- रे मूर्ख! तुमने इस अमूल्य मानव जीवन को व्यर्थ में ही व्यतीत क्यों कर दिया। यह तुम्हारे हाथ से निकल गया तो फिर लौटकर नहीं आयेगा। इस संसार में रहकर भी तुमने चोरी , जारी,निंदा,झूठ आदि पापों की पोटली ही बांधी है। जब इस संसार में आया था तो काफी हल्का था,निष्पाप था। किन्तु यहां आकर इन पापों की पोटली से स्वयं ही बोझ से दब रहा है और इस धरती को भी भार से बोझिल बना दिया।
जां दिन तेरे होम नै जाप नै, तप नै किरिया। गुरु नै चीन्हौं पन्थ न पायो, अहल गई जमवारूं।
उन दिनों में जब तूं स्वस्थ था तथा अमावस्यादि पवित्र दिन थे। उन दिनों में तुम्हें हवन-जप आराध्धना तपस्या तथा शुद्ध सात्विक क्रियायें करनी चाहिये थी। इस संसार में रहते हुऐ तुझे गुरु की पहचान करके उनसे सम्बन्ध स्थापित करना था तथा उन सद्गुरु से प्रार्थना करके सद्मार्ग के बारे में पूछकर उन पर चलने का प्रयत्न करना चाहिये था। यह शुभ कार्य तुमने नहीं किया तो तेरा जन्म व्यर्थ ही चला गया।
ताती बेला ताव न जाग्यो, ठाढ़ी बेला ठारूं। बिंम्बै बैला विष्णु न जंप्यो, तातै बहुत भई कसवारूं। प्रत्येक दिन में तीन बेला आती है प्रातः, दुपहरी और सांय ठण्डी बेला। उसी प्रकार से मानव जीवन की भी बाल्यावस्था यह बिम्बै बैला है। युवावस्था यह ताती बेला है क्योंकि जवानी का खून गर्म होता है और वृद्धावस्था यह ठण्डी बेला है, यह अन्तिम अवस्था है इसमें तेज मंद हो जाता है। हे प्राणी! इन तीनों अवस्थाओं में तुमने भगवान विष्णु का भजन नहीं किया तो बहुत ही बड़ी कमी रह गयी। अपने जीवन को सफल नहीं कर पाया इससे बढ़कर और ज्यादा हानि क्या हो सकती है।
खरी न खाटी देह बिणाठी, थीर न पवना पारूं।
शुभ कर्तव्य कर्म तो तूने किया नहीं वैसे ही आल-जंजाल में फंसा रहा। इस उहा-पोह में तेरे शरीर की आयु व्यतीत हो गयी क्योंकि इस संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। पवन, पानी , तेज, पृथ्वी आदि सभी का समय निश्चित है इसलिये तेरा श्वांस भी स्थिर कैसे हो सकता है।
अहनिश आव घटंती जावै, तेरे श्वांस सबी कसवारूं।
दिन और रात्रि करके तुम्हारी यह सीमित आयु घटती जा रही है। तुम दिनोंदिन छोटा होता जा रहा है। ये तेरे प्रत्येक श्वांस बड़े कीमती है। एक एक श्वांस का मूल्य चुकाया नहीं जा सकता।
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते नर कुबरण कालूं। जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते नगरे कीर कहारूं। जिस मानव ने परमपिता परमेश्वर अवतार धारी सर्व जन पालन-पोषण कर्ता भगवान विष्णु का जप नहीं किया वह चाहे भले ही मृत्यु के उपरांत दूसरे जन्म में मानव योनि को प्राप्त कर ले किन्तु वह अच्छा सुस्वस्थ मानव कदापि नहीं हो सकता। उसे किसी दुखी परिवार में जन्म लेना पड़ेगा। वह काले रंग का दुष्ट प्रकृति वाला ही होगा या नगर में रहकर दिन भर गध्धे की तरह भार उठायेगा। मानव शरीर तो प्राप्त हुआ किन्तु विष्णु कृपा विना पवित्र श्रीमानों के घर पर जन्म मिलना अति दुर्लभ है।
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते कांध सहै दुख भारूं। जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते घण तण करै अहारूं।
जिस प्राणी ने सर्वत्र व्यापक भगवान विष्णु का जप नहीं किया वह जन्मान्तर में कंध्धे पर भार उठाने वाला शरीर प्राप्त करेगा तथा अत्यध्धिक भोजन करने वाला शरीर जो कभी पेट भी भरता नहीं जो सदा भूखे रहने वाले पशु पक्षी या मानव शरीर को ध्धारण करेगा।
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ताको लोही मांस विकारूं |
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, गावै गाडर सहरै सुवर जन्म जन्म अवतारूं।
जिस प्राणी ने मानव शरीर धारण करके हरिनारायण विष्णु की सेवा पूजन तन - मन- धन से नहीं किया उसके लोही, मांस में सदा विकार पैदा होगा अर्थात् सदा ही रोगी रहेगा और दूसरे जन्म में गांवों में गाडर भेड़ का जन्म होगा तथा शहरों में सुवर का जन्म ध्धारण करना पड़ेगा जिसे सदा ही दुख झेलना पड़ेगा।
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो,ओडा के घर पोहण होयसी,पीठ सहै दुख भारूं। जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, राने वासो मोनी बैसे ढ़ूकै सूर सवारूं।
मानव शरीर धारी को स्वकीय मूल स्वरूप देवाध्धिदेव विष्णु परमात्मा की प्राप्ति के लिये उन्हीं परम सत्ता से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये। सम्बन्ध स्थापित करने का प्रमुख साधन विष्णु का नाम स्मरण ही है, , यदि कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो वह जन्मों जन्मों में गध्धे का जीवन ध्धारण करके अपने मालिक ओड जाति के यहां पर भार उठाना पड़ेगा। या फिर डोड- गृध्ध पक्षी का रूप ध्धारण करके रात्रि में तो कहीं आहार के लिये जा नहीं सकेगा भूखे ही रात्रि व्यतीत करेगा प्रातःकाल ही मौन रहकर गंदगी में अपना भोजन प्राप्त करेगा।
जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते अचल उठावत भारूं। जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते न उतरिबा पारूं। जा जन मन्त्र विष्णु न जंप्यो, ते नर दौरे घुप अंधारूं। जिस पंचभौतिक शरीर ध्धारी आत्मा रूप मानव ने अनन्त अवतारध्धारी भगवान विष्णु को हृदयस्थ नहीं किया उन्हें चैरासी लाख जीया जूणी रूपी अचल भार उठाना पड़ेगा। वह संसार सागर के दुखों से पार तो नहीं हो सकता और बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त हुआ कठिन अन्ध्धकार मय भयंकर नरक में गिरेगा।
तातै तंत न मंत न जड़ी न बूंटी, ऊंडी पड़ी पहारूं। विष्णु न दोष किसो रे प्राणी, तेरी करणी का उपकारूं।
इसलिये इन दुखमय योनियों से छूटने के लिये न तो कोई तंत्र है न ही कोई मंत्र है न ही कोई जड़ी या बूंटी ही है। इनसे छूटने का मात्र एक उपाय केवल भगवान विष्णु ही है वही तुम्हें छुड़ा सकता है। यदि वह अवसर चला गया तो फिर लौटकर नहीं आयेगा। बहुत दूर चैरासी लाख पर चला जायेगा। फिर कभी भूलकर विष्णु को दोष नहीं देना। प्रायः लोगों को जब कष्ट आता है तो भगवान को दोष देते है। हे प्राणी! तूं ऐसा कभी मत करना। ये सुख दुख तो तेरे कर्मों का ही फल है। बीज तो मानव स्वयं ही बोता है पर बीजों को फूलने फलने में सहायता भगवान स्वयं करते है इसलिये जैसा बीज बोवोगे फल भी तो वैसा ही होगा। तो फिर स्वयं का दोष दूसरों के उपर क्यों डालता है।
√√ सबद-14 √√
ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं, शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई। मेरा शब्द खोजो, ज्यूं शब्दे शब्द समाई।
भावार्थ- हे जाट! मेरे मुख से निकले हुए शब्द ही सत्य से साक्षात्कार कराने वाले वेद ही है तथा सार तत्व रूप परमेश्वर का भेद बताने वाले है। इन शब्दों को अन्य शास्त्र पुस्तकों से यदि आप प्रमाणित करना चाहेंगे तो तुम्हें प्रमाण नहीं मिल सकेगा। मेरे शब्दों को जानने के लिये बाह्य खोज न करते हुऐ मेरे शब्दों को ही खोजो। जिस प्रकार से शब्द रूप ब्रह्म से निकला हुआ शब्द पुनः शब्द ब्रह्म में लीन हो जाता है। उसी प्रकार शब्दों में लीन होकर अर्थ रूप कण तत्व की खोज करो। यहां पर शब्दों को ही वेद बताया है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है तथा वेद हम उस शास्त्र को कहते हैं जो सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम रचा गया तथा अन्य किसी शास्त्र से प्रमाणित न किया हो। यहां पर सबदवाणी के विषय में भी ऐसा ही है। गुरु जम्भेश्वर जी ने स्वकीय अनुभव की वाणी कही। अन्य किसी शास्त्र से ज्ञान उध्धार नहीं लिया गया तथा सामान्य से विद्वान जनों तक के लिये बराबर ज्ञान दाता होने से वेद कहना उचित ही है। विशेषतः अनपढ़ किसान वर्ग के लिये संस्कृत भाषा में रचित वेद व्यर्थ ही सिद्ध हो रहे थे। उनके लिये तो वास्तव में अपनी मातृभाषा में दिया गया| सबदवाणी ज्ञान ही सच्चा वेद है।
हिरणा द्रोह क्यूं हिरण हतीलूं, कृष्ण चरित बिन क्यूं बाघ बिडारत गाई।
वन में निद्र्वन्द्व रूप से विचरण करने वाली हरिणियां के झुण्ड में एक ही नर हरिण रहता है यदि कोई अन्य हरिण झुण्ड में आने का प्रयत्न करता है तो दोनों में घन घोर युद्ध होता है जो कमजोर होगा वही मार खाकर भाग जायेगा। एक दूसरों के प्राणों के प्यासे क्यों हो जाते हैं? इतना द्वेष क्यों रखते है और बाघ उनकी हत्या भी कर देता है ऐसा क्यों? श्री देवजी कहते हैं कि यह सभी कुछ कृष्ण के दिव्य चरित्र को आत्मसात् किये बिना पशुओं में ऐसा अनर्थ होता है। उसी प्रकार मानव में भी कृष्ण की झलक हृदयस्थ किये विना ऐसा ही होता देखा गया है।
सुनही सुनहा का जाया, मुरदा बघेरी बघेरा न होयबा। कृष्ण चरित विन, सींचाण कब ही न सुजीऊ।
श्वान अर्थात् कुत्ते-कुत्ती का जाया हुआ निहायत कमजोर होने से बघेरी-बघेरा नहीं हो सकता। वैसे देखा जाय तो देह दृष्टि से तो कुछ भी बघेरा और कुत्ते में फर्क नहीं है किन्तु अन्दर ऊर्जा-शक्ति में अन्तर अवश्य ही है। जिससे बघेरा कुत्ते को मार डालता है। बाज पक्षी कभी भी सुजीव नहीं हो सकता। उसकी दृष्टि भी अपने से कमजोर पर लगी रहती है। संसार में ऐसा अनर्थ क्यों होता है। यह भोजन भोज्य भाव एक-दूसरे के प्रति वैर भाव क्यों होता है। इसका मात्र एक ही कारण है कृष्ण की अलौकिक लीला का जीवन मे अभाव होना। इसी प्रकार से मानव भी राग-द्वेष के अन्दर डूब जाते है और अपने को तबाह कर लेते है। किन्तु जीवन में परमात्मा को स्थान नहीं देते। यदि सभी लोग कृष्ण परमात्मा का चरित्र अपने जीवन में अपना लें तो सभी समस्याएँ स्वतः ही हल हो जायेगी।
खर का शब्द न मधुरी बाणी, कृष्ण चरित बिन श्वान न कबही गहीरूं।
गधे की ध्वनि सप्त स्वर में गूंजती है किन्तु मधुर नहीं होती है।उसे कोई भी सुनना पसन्द नहीं करता तथा कुत्ता कभी भी गम्भीर नहीं हो सकता। सदा ही चंचल रहता है कितना भी खाना खिलाओं संतोष नहीं करता ऐसा क्यों होता है।यह सभी कुछ भगवान के दिव्य आध्यात्मिक जीवन को स्वीकार न करने से ही संभव होता है। मानव भी जब तक ईश्वरीय ज्ञान को धारण नहीं करेगा तब तक न तो मधुर ही बोल सकेगा और न ही गंभीर एवं संतोषी हो सकेगा कृष्ण लीला से ही ये सद्गुण धारण करना संभव है।बिना कृष्ण के तो कुत्ते एवं गध्धे के सदृश ही है।
मुंडी का जाया मुंडा न होयबा, कृष्ण चरित बिन रीछा कबही न सुचीलूं।
सज्जन प्रकृति वाली, सींगों रहित गऊ आदि के उत्पन्न हुआ बच्चा वैसा नहीं होता अर्थात् जैसे माता-पिता हो वैसी गुणों वाली सन्तान उत्पन्न नहीं होती और न ही रीछ कभी सुजीव होकर सज्जनता का व्यवहार कर सकता क्योंकि उनमें कृष्ण भगवान सम्बन्धी ज्ञान का सर्वथा अभाव है। उसी प्रकार से मानव भी कृष्ण चरित रहित सुजीव नहीं हो सकता। जीवन में सुधार भगवान की लीला में भक्ति पैदा होने से सम्भव है।
बिल्ली की इन्द्री संतोष न होयबा,कृष्ण चरित बिन काफरा न होयबा लीलूं।
भोग्य पदार्थ भोग लेने के पश्चात् भी बिल्ली की चक्षु रसना आदि इन्द्रियां संतोष को प्राप्त नहीं होती, ज्यों-ज्यों भोग प्राप्त होते है त्यों-त्यों लालसा उतरोतर बढ़ती जाती है। उसी प्रकार मानव की भी दशा है और नहीं काफिर-नास्तिक व्यक्ति कभी परमात्मा की दिव्य लीलाओं में आनन्द ले सकता क्योंकि अब तक उन पर कृष्ण परमात्मा की दृष्टि नहीं पड़ी है। आध्यात्मिक ज्ञान का संस्कार अब तक उदित नहीं हुआ है। कृष्ण की अपार कृपा से ही मानव की इन्द्रियां संतोष को प्राप्त होती है तथा मानव आस्तिकता को प्राप्त करता है।
मुरगी का जाया मोरा न होयबा, कृष्ण चरित बिन भाकला न होयबा चीरूं।
मुर्गी का जन्मा हुआ कभी मोर नहीं हो सकता अर्थात् प्रकृति से ही छोटा आदमी कभी बड़ा नहीं बन सकता। मूलभूत प्रकृति में बदलाव आना अति कठिन है और न ही कभी भाकला ऊंट की जटाओं से बना हुआ मोटा वस्त्र मल मल रेशमी वस्त्र नहीं हो सकता अर्थात् भगवान की अहेतुकी कृपा बिना स्वभाव से कठोर व्यक्ति कभी भी निर्मल नहीं हो सकता। कोमल बनने के लिये कृष्ण की दिव्य लीलाओं का श्रद्धापूर्वक आत्मसात् करना ही पड़ेगा।
त बिवाई जन्म न आई, कृष्ण चरित बिन लोहै पड़ै न काठ की सूलूं।
जब बच्चा संसार में आता है तो उसके जन्म के साथ ही दांत नहीं आते। दांत आने के लिये समय चाहिये उसी प्रकार से मानव इस संसार में पदार्पण करता है तो साथ में लेकर कुछ भी नहीं आता यहां आकर ही कुछ समय पश्चात् दांत रूपी धन को जोड़ता है किन्तु यह सभी कुछ कृष्ण चरित से ही संभव हो सकता है। बालक के दांत और मानव का धन। लोहे की शिला में लकड़ी की खूंटी नहीं गाड़ी जा सकती किन्तु कृष्ण चरित से सम्भव हो सकती है। अनहोनी को भी होनहार कर दे यही कृष्ण चरित्र है। ऐसा जीवन में कई बार देखा गया है।
नींबडिये नारेल न होयबा, कृष्ण चरित बिन छिलरे न होयबा हीरूं।
नीम वृक्ष के कभी नारियल नहीं लग सकता और छोटे तालाबों में कभी भी हीरा नहीं मिल सकता। हीरों की प्राप्ति के लिये अथाह जल राशि समुद्र में गोता लगाना पड़ेगा और नारियल के लिये नीम को छोड़कर नारियल वृक्ष का ही सहारा लेना पड़ेगा किन्तु कृष्ण चरित्र से ये दोनों नीम और छिलरीये में मिल सकते है। इस मरूभूमि रूपी नींब के वृक्ष पर तथा इन थोड़े से लोगों के बीच छिलरीये में भी कभी कभी ईश्वरीय शक्ति रूपी नारियल और हीरा प्रगट हो जाता है। श्री देवजी कहते है कि यह मैं कृष्ण चरित्र से ही यहां पर अवतरित हुआ हूं अन्यथा असंभव था।
तूंबण नागर बेल न होयबा, कृष्ण चरित बिन बांवली न केली केलूं। कड़वाहट से भरी हुई तूंबे की बेल कभी भी मध्धुर नागर बेल नहीं हो सकती और न ही बांवली वृक्ष के कभी केला लग सकता, , किन्तु यह कृष्ण चरित्र से विपरीत कार्य तूंबे की बेल नागर और बांवली के केला लग सकता है। कहीं पर गुरु जम्भेश्वरजी ने लगाया भी है।जिस व्यक्ति में जन्म जात कड़वाहट भरी हुई है वह कभी मधुर स्वभाव वाला नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें कृष्ण परमात्मा की भक्ति का अभाव है।और जिस दिन भी वह कृष्ण चरित्र को हृदय में स्थान देगा उसी दिन से मधुरता प्रारम्भ हो जायेगी।कृष्ण चरित्र रहित बांवली रूपी जन पर भी मधुर कोमल केले का फल आने लगेगा। यही है कृष्ण चरित्र की विशेषता।
गऊ का जाया खगा न होयबा, कृष्ण चरित बिन दया न पालत भीलूं।
गऊ का जन्मा हुआ कभी पक्षी नहीं हो सकता और भील शिकारी के अन्दर दया नहीं होती है। किन्तु कृष्ण चरित्र से गऊ का जन्मा पक्षी भी हो सकता है और भील के अन्दर दया भी पैदा हो सकती है। कभी कभी स्वभाव से संत जन भी दुष्ट हो जाते हैं। वे शिकारी की तरह आचरण करने लगते हैं। किन्तु यदि कोई भक्त जन शक्ति सम्पन्न सिद्ध जन से ईश्वरीय चरित्र ग्रहण कर लेता है तो वह भी तन्मय होकर प्रकृतिस्थ हो जाता है।
सूरी का जाया हस्ती न होयबा, कृष्ण चरित बिन ओछा कबही न पूरूं।
सुवरी का जन्मा हुआ कभी हाथी नहीं हो सकता तथा छोटा आदमी कभी पूर्ण नहीं हो सकता किन्तु कृष्ण शक्ति से ये दोनों ही संभव हो सकते हैं। नीच कर्म करने वाला व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार छोटी-मोटी चैरासी लाख योनियों में ही भटकेगा क्योंकि उनमें कृष्ण की गीता का ज्ञान नहीं था और यदि वह अमूल्य कृष्ण चरित्र के ज्ञान को धारण कर ले तो वह तत्काल ही सूवर से हाथी सदृश महान बन सकता है और सद्गुणों रहित अपूर्ण मानव भी कृष्ण भगवान की आज्ञा का पालन करे तो वह भी गुणों से परिपूर्ण हो सकता है।
माया को समझ कर हृदय से परमात्मा को प्राप्त करने के लिये कृष्ण को अपने जीवन में अपनाता है तो वह भी कृष्ण शक्ति के प्रभाव से कोयल सदृश निर्मल दोष रहित होकर सर्वजन प्रिय हो जाता है। बगुला से हंस होने की सामथ्र्य आ जाती है।
ज्ञानी कै हृदय प्रमोध आवत, अज्ञानी लागत डासूं।
यह कृष्ण चरित्र सम्बन्धी अपार महिमा सुनकर ज्ञानी को तो आनन्द आता है और अज्ञानी को कांटे की तरह वार्ता चुभती है। यही ज्ञानी और अज्ञानी की परख है।
√ सबद-15 √√
ओ३म् सुरमां लेणां झीणा शब्दूं, म्हे भूल न भाख्या थूलूं।
भावार्थ- हे जाट! तूं इन मेरे वचनों को धारण कर जो सुरमें के समान अति बारीक सूक्ष्म है जैसे सुरमां महीन होता है उसी प्रकार से मेरे शब्द भी अति गहन से गहन विषय को बताने वाले है इसीलिये कुशाग्र बुद्धि से ही ग्राह्य है। इन शब्दों को तो शूरवीर पुरूष ही समझकर इन पर चल सकता है। हमने अपने जीवन में कभी भी स्थूल व्यर्थ की बात नहीं कही। सदा सचेत रहकर आनन्द दायिनी वाणी का ही बखान किया है।
सो पति बिरखा सींच प्राणी, जिहिं का मीठा मूल स मूलूं।
हे प्राणी! तूं उस वृक्षपति को मधुर जल से परिपुष्ट कर जिसका फल फूल समूल ही मधुर हो।
पाते भूला मूल न खोजो, सींचो कांय कु मूलूं।
तुमने वृक्ष के मूल में तो जल डाला नही और कभी पतों में कभी डालियों में जल सेंचन करता रहा इससे वह मधुर फलदायी वृक्ष हरा भरा नहीं होगा और अज्ञानता वश तुमने कुमूल स्वरूप आक धतुरा आदि विष वृक्षों को पानी पिलाता रहा, यह जीवन में तुमने बड़ी भूल की है।
विष्णु विष्णु भण अजर जरीजै, यह जीवन का मूलूं।
हे प्राणी!अपने प्राणों के चलते हुऐ श्वासों श्वास ही विष्णु परमात्मा को सदा ही याद रख उन्हीं विष्णु का उच्चारण करते हुऐ जप भजन करें और काम, क्रोध, मोह, मात्स्र्य, ईष्र्या, राग, द्वेष आदि दोषों को निकालकर शुद्ध पवित्र हो जा। यही जीवन का मूल मन्त्र है। यहां सर्व जन के मूल स्वरूप भगवान विष्णु है तथा डालियां पते रूप छोटे-मोटे देवी देवता है और भूत-प्रेत, जोगिणी, भेरूं आदि कुमूल विष वृक्ष है। विष वृक्ष रूपी भूत-प्रेतों की सेवा सदा ही जीवन को विषैला बना देगी। डाली-पती रूपी देवता से कुछ भी लाभ नहीं, , परिश्रम व्यर्थ होगा, , इसीलिये सभी के मूल स्वरूप मध्धुर फलदायी विष्णु की सेवा, जप सर्वोपरि है।
खोज प्राणी ऐसा विनाणी,केवल ज्ञानी,ज्ञान गहीरूं,जिहिं कै गुणै न लाभत छेहूं।
हे प्राणी! तूं उन सर्व प्राणियों के मूल स्वरूप सत्य सनातन, , पूर्ण ब्रह्म परमात्मा भगवान विष्णु की प्राप्ति का प्रयत्न कर, जो वह केवल ज्ञानी है ज्ञान के भण्डार है जन्म मृत्यु जरा रहित है उनके गुणों का तो कोई आर-पार ही नहीं है।
गुरु गेवर गरवां शीतल नीरूं, मेवा ही अति मेऊं।
यदि उस सद्गुरु परमात्मा की महानता का वर्णन करें तो वजन पक्ष में तो वह सुमेरू पर्वत से भी भारी है और शीतलता में तो जल से भी कहीं अध्धिक शीतल है। मीठापन में तो मेवा से भी अध्धिक मीठा है अर्थात् आप जिस रूप में भी ग्रहण करना चाहते है उन्हीं से भरपूर है।
हिरदै मुक्ता कमल संतोषी, टेवा ही अति टेऊ।
सद्गुरु परमात्मा हृदय कमल में सदा ही मुक्त है अनेकानेक हृदयगत रहने वाली वासनाओं की वहां पर स्थिति नहीं है। सदा ही अपनी स्थिति में संतुष्ट रहते है। उन्हें किसी बाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं है। सद्गुरु स्वयं तो सदा परकीय आश्रय रहित है। किन्तु सांसारिक निराश्रित जनों के सदा ही आश्रय दाता है। जब किसी पर प्रसन्न होते हैं तो पूर्णतया अपने दास को अपना बना लेते है।‘‘गुणियां म्हारा सुगणा चेला, म्हे सुगणा का दासूं।’’
चड़कर बोहिता भवजल पार लंघावै, सो गुरु खेवट खेवा खेहूं।
दयालु सतगुरु ने यह शब्दों रूपी नौका इस संसार सागर से पार उतारने के लिये प्रदान कर दी है। जो सचेत होकर इस नैया पर सवार हो जायेगा उसको तो सत्गुरु स्वयं केवट होकर पार उतार देंगे। जो इस नाव से वंचित रह जायेगा वह बारंबार डूबता रहेगा। सद्गुरु का अर्थ ही है कि वह केवट की तरह समिपस्थ जनों को जन्म-मरण के दुखों से छुड़ा दे।
√√ सबद-16 √√
ओ३म् लोहे हूंता कंचन घड़ियो, घड़ियो ठाम सु ठाऊं। जाटा हूंता पात करीलूं, यह कृष्ण चरित परिवाणों।
भावार्थ- प्रारम्भिक अवस्था में सोना भी लोहा जैसा ही विकार सहित होता है। खानों से निकालकर उसे अग्नि के संयोग से तपाकर विकार रहित करके सोना बनाया जाता है तथा उस पवित्र स्वर्ण से अच्छे से अच्छा गहना आभूषण बनाया जाता है जिसे युवक युवतियां पहनकर आनन्दित होते है। उसी प्रकार से इस मरूदेशीय जाट भी लोहे जैसे ही थे किन्तु अब मेरी संगति में आ जाने से ये सभी पवित्र देव तुल्य हो गये है। इन लोगों ने सबदवाणी रूपी ताप से अपने को पवित्र बना लिया है। इस प्रकार से ये जाट पवित्र हुऐ है। इनकी पवित्रता में सबसे बड़ा हेतु तो कृष्ण परमात्मा का दिव्य अलौकिक चरित्र है। कृष्ण की अपार शक्ति कृपा ने इनको वास्तव में सहयोग दिया है।
बेड़ी काठ संजोगे मिलिया, खेवट खेवा खेहूं। लोहा नीर किसी विध तरिबा, उतम संग सनेहूं।
लकड़ी से बनी हुई नौका के साथ संयोग होने से लोहा भी नदी जल से पार हो जाता है डूबने का डर नहीं होता है। क्योंकि उस लोहे ने उतम लकड़ी का संग किया है और फिर अच्छा केवट नौका चलाने वाला भी प्राप्त हो जाता है। तो हजारों मन लोहा अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाता है। उसी प्रकार से जाट लोग भी अब निश्चित ही संसार सागर से पार उतर जायेंगे, क्योंकि इन्होंने समयानुसार मेरे से संगति की है। अपने जीवन को उतम बनाया है और अब इनके केवट रूपी सतगुरु का हाथ सिर पर आ गया है। अब डूबने की कोई आशंका नहीं है।
बिन किरिया रथ बैसैला, ज्यूं काठ संगीणी लोहा नीर तरीलूं। नांगड़ भांगड़ भूला महियल, जीव हतै मड़ खाइलो।
शुद्ध क्रिया रहित यह शरीर रूपी रथ इस अथाह संसार सागर में डूब जायेगा। जिस प्रकार से लोहा काठ संगति रहित डूब जाता है तथा सत्संगति से लोहा तथा मानव दोनों ही पार उतर जाते है। संसार में सतगुरु मिलना अति दुर्लभ है। वैसे आप किसी सतगुरु की खोज के लिये प्रयास करोगे तो आपके सामने अनायास ही नंगे रहने वाले साध्धु, सन्यासी, भांग पीकर मदमस्त रहने वाले जो अपने आप को भूले हुए है और दूसरों को भी भुलावे में डालकर धन ऐंठते है। ऐसे ऐसे लोग जो जीवों को मारकर मुरदों को खाते है सभी नशीली वस्तुओं का सेवन करते है फिर भी ज्ञान देने का दावा करके जिज्ञासुओं को अपने जाल में फंसा लेते है। ऐसे लोगों से सावधान रहकर ही सत्संगति पायी जा सकती है|
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किसी समय विश्नोइयों की जमात भ्रमणार्थ गई हुई थी। उस समय एक अजाराम सियाग बनिया गांव का रहने वाला बड़ा विवादी था। उससे भेंट हो गयी। परस्पर गुरु जम्भेश्वर जी के बारे में चर्चा चली, तब वह कहने लगे कि जाम्भोजी भी हमारी तरह गृहस्थी है, वो स्त्री भी रखते है मैने सुना है। तब बिश्नोई कहने लगे उनके कोई स्त्री नहीं है। वे तो निराहारी निराकार माया रहित ईश्वरीय रूप है। इस प्रकार के विवाद को सुलझाने के लिये वे सभी सम्भराथल पर पहुंचे। वहां पर अपने शिष्य मण्डली सहित जम्भेश्वरजी विराजमान थे। विश्नोइयों ने आकर पूछा - तब जम्भेश्वर जी ने कहा कि मैं स्त्री अवश्य ही रखता हूं। उस समय विश्नोइयों ने कहा-हमने तो कभी आंखों से नहीं देखी और न ही कभी कानों से सुनी है। श्री देवजी ने कहा वह स्त्री ही ऐसी है जिसे आप न तो कानों से सुन सकते और न ही आंखों से देख ही सकते। आप लोग सुनों मैं कैसी स्त्री रखता हूं।
√√ सबद-17 √√
ओ३म् मोरै सहजे सुन्दर लोतर बाणी, ऐसो भयो मन ज्ञानी। भावार्थ- मेरी यह स्वभाव से ही उच्चरित होने वाली सुन्दर प्रिय वाणी ही स्त्री है। इस प्रिय वाणी से मेरा मन ऐसा ज्ञानी हो चुका है,जिससे अब सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है,अब मुझे किसी सांसारिक स्त्री की आवश्यकता नहीं है। ऐसी दिव्य स्त्री मेरे पास हर समय रहती है। यदि आपको चाहिये तो ले जा सकते हो।
तइयां सासूं तइयां मांसूं, रक्तूं रूहीयूं, खीरूं नीरूं, ज्यूं कर देखूं। ज्ञान अंदेसूं, भूला प्राणी कहे सो करणों।
तब किसी का भी मन ज्ञानी हो जाता है तो फिर नारी-पुरूष में भेदभाव मिट जाता है। क्योंकि जो श्वांस एक नारी में चलता है वही पुरूष में भी जो मांस स्त्री में है वही पुरूष में ही है|
जो रक्त स्त्री में प्रवाहित होता है वह रक्त पुरूष में भी तथा जो जीवात्मा स्त्री में है वही पुरूष में भी है। तो फिर भेदभाव कैसा? जिस प्रकार से हंस दूध्ध व पानी को अलग-अलग कर देता है दूध्ध ग्रहण कर लेता है और जल त्याग देता है उसी प्रकार से मानव को भी विवेकशील होना चाहिये। सार वस्तु का ग्रहण और असार वस्तु का परित्याग। यही ज्ञान का संदेश है। हे भूले हुए प्राणी! मनमुखी कार्य छोड़ कर सद्गुरु शास्त्र, सज्जन पुरूष कहे वैसा ही करना, क्योंकि तुम तो भूल चुके हो स्वयं तो तुझे कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक नहीं है।
अइ अमाणों तत समाणों, अइया लो म्हे पुरूष न लेणा नारी।
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्दर वह सूक्ष्म रूप परब्रह्म समाया हुआ है। इसलिये हे सात्विक लोगों! न तो हम पुरूष रूप है और न ही हम स्त्री रूप है। वह परम तत्व कोई स्त्री या पुरूष रूप में नहीं होता। वह तो सामान्य रूप से दोनों ही है। इसलिये हमारे जैसे पुरूषों के यहां स्त्री-पुरूषों में कदापि भेदभाव नहीं है। न तो हम स्त्री से घृणा से परित्याग करते हैं और न ही पुरूष को उतमता से अपनाते भी हैं।
सोदत सागर सो सुभ्यागत, भवन भवन भिखियारी। भीखी लो भिखियारी लो, जे आदि परम तत्व लाधों।
सन्यास लेने के पश्चात् भी सभी को स्त्री-पुरूष का भेदभाव नहीं मिटता। किन्तु वीर पुरूष तो वही होता है जो उस परम तत्व की खोज करता है। वह खोज भी बड़े ध्धैर्य एवं लग्न के साथ बहुत समय तक करता है वही सुभ्यागत है, ऐसे सुभ्यागत साध्धु की सेवा करने से गृहस्थ को अड़सठ तीर्थों का फल मिलता है। वही सुभ्यागत अभ्यास करते करते उस परम तत्व की प्राप्ति कर लेता है। तो फिर भिक्षा मांगने का अध्धिकारी हो जाता है। वह चाहे कहीं भी रहे किसी भी अवस्था में रहे भिक्षा मांगकर उदर पूर्ति कर ले,उन्हें किसी प्रकार का मान सम्मान या अपमान नहीं रहता, यही दशा युक्त भिक्षुक होता है।
जांकै बाद विराम विरासों सांसो, तानै कौन कहसी साल्हिया साधों।
जिस साध्धु के अब तक व्यर्थ का वाद-विवाद अन्दर बैठा हुआ है अर्थात् तर्क-वितर्क रूपी कैंची जिसके पास है जो काटना ही जानता है और जोड़ना नहीं जानता तथा सच्ची बात को भी नष्ट करना जानता है अपने ज्ञानाभिमान के कारण ग्रहण शक्ति नहीं है और प्रत्येक बात मे तथा ईश्वर के अस्तित्व में अब तक संशय है उसे साल्हिया सुलझा हुआ साध्धु कौन कहेगा, , अर्थात् समझदार पुरूष तो कदापि नहीं कह सकते। मूर्खों की तो भगवान ही जाने।
सबद-18
ओ३म् जां कुछ जां कुछ जां कुछू न जांणी,नां कुछ नां कुछ तां कुछ जांणी।
भावार्थ- जो व्यक्ति कुछ जानने का दावा करता है अपने ही मुख से अपनी ही महिमा का बखान करता है। वह कुछ भी नहीं जानता, , अन्दर से बिल्कुल खोखला है और इसके विपरीत कोई व्यक्ति कहता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता वह कुछ जानता है। अहंकार शून्यता ही व्यक्ति को ज्ञान का अधिकारी बनाता है। इस दुनिया में अपार ज्ञान राशि है इतनी छोटी सी आयु में कितना ही प्रयत्न करें तो भी व्यक्ति सदा अधूरा ही रहता है। यदि कोई पूर्ण होने का दावा करता है तो वह झूठा ही अहंकार है। उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के दरवाजे हमेशा के लिये बन्द कर लिये है।
ना कुछ ना कुछ अकथ कहाणी, ना कुछ ना कुछ अमृत बाणी।
इस महान संसार में भूत, भविष्य, वर्तमान कालिक अनेकों कहानियां कही जा चुकी है। अनेकानेक शास्त्र इन्हीं कथाओं से भरे पड़े हैं। सभी कुछ कहा जा चुका है। अब अकथनीय कुछ भी नहीं है किन्तु जो कुछ भी अब तक वाणी द्वारा कहा गया है या लिखा गया है वह तो केवल स्थूल संसार के विषयों तक ही सीमित रहा है। उस अमृतमय सत्चित आनन्द ब्रह्म का निरूपण नहीं हो सका है। अनुभव गम्य वस्तु को शब्दों में बांधना असंभव है। वेद के ऋषियों ने भी नेति-नेति कहकर अपनी वाणी को विराम दिया है।
ज्ञानी सो तो ज्ञानी रोवत, पढ़िया रोवत गाहे।
उस प्राप्य वस्तु अमृत तत्व की प्राप्ति न होने से आचरण रहित केवल शास्त्र ज्ञानी विद्वान और कर्मकाण्डी पंडित ये दोनों ही रोते है। जो व्यक्ति अपनी वस्तु रूप अमृत से वंचित होकर चाहे संसार की कितनी ही भोग-विलास सम्बन्धी सामग्री एकत्रित कर ले, आखिर तो उसे रोना ही पड़ेगा उन आनन्द रहित वस्तुओं में वह परमानन्द कहां है।
केल करंता मोरी मोरा रोवत, जोय जोय पगां दिखाही। आनन्द रहित वह ज्ञानी उसी प्रकार रोता है जैसे श्रावण-भादवा के महिने में नाच क्रीड़ा करते हुऐ मोर मोरनी अपने बैडोल पैरों को देखकर रोते है। शरीर तो इतना सुन्दर दिया परन्तु आनन्द से वंचित क्यों रखा? विद्वान हो चाहे मूर्ख दोनों ही दुख में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते है अपने समीप में होते हुऐ भी आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकते।
उरध खैणी उनमन रोवत, मुरखा रोवत धाही। कुछ योगी लोग प्राणायाम द्वारा श्वांसों को ब्रह्माण्ड में स्थिर कर लेते है। श्वांस के साथ ही चंचल मन भी शांत हो जाता है किन्तु उस समाधी अवस्था से बाहर जब जगतमय वृति होगी तो वे योगी लोग भी रोते है, वापिस समाधिस्थ होने की चेष्टा करते है और मूर्ख लोग तो दिन रात संसार के प्रपंच में ही सुख मानकर दौड़ते है किन्तु कहीं कुछ प्राप्ति तो नहीं होती है।
मरणत माघ संघारत खेती, के के अवतारी रोवत राही। जब पेड़ पौधों पर आया हुआ माघ अर्थात् मंजरी फूल आदि नष्ट हो जाते है तथा पककर तैयार हुई खेती पर तूफान ओले आदि गिरकर खेती आदि को नष्ट कर देते है तो किसान रोता है। उसी प्रकार से हमारे जैसे अवतारी लोग भी रोते है। यदि हमारे कार्य पूर्ण होने में विघ्न पैदा हो जाता है किन्तु हमारा रोना स्वकीय स्वार्थ के लिये न होकर परमार्थ के लिये ही होता है।इस दुखमय संसार में रोना तो सभी को ही पड़ता है।
जड़िया बूंटी जे जग जीवै, तो वेदा क्यूं मर जाही।
इस रोने से छूटने का उपाय जड़ी-बूंटी औषधियां नहीं हो सकती यदि औषधी मन्त्र आदि उपाय हो तो इनसे दुख छूट जाये जगत जीवन को धारण कर ले, अमर हो जाये तो वैद्य लोग क्यों मर जाते है, क्यों दुखी होते है क्यों रोते है।
खोज पिराणी ऐसा विनाणी, नुगरा खोजत नाही। यदि तुझे दुखों से छूटना है तो हे प्राणी! उस नित्य निरंजन सद्चिद् आनन्द रूप तत्व की खोज करके प्राप्ति कर तथा तन्मय जीवन को बना, यही उपाय है। नुगरा मनमुखी हठी लोग तो उसकी खोज नहीं कर सकते और दुखों से भी नहीं छूट सकते।
जां कुछ होता ना कुछ होयसी, बल कुछ होयसी ताही।
इस संसार पर कभी भी विश्वास नहीं करना, यह सदा ही परिवर्तनशील है इस संसार में वह नित्य अमृत कहां से प्राप्त होगा। जहां पर कभी कुछ नगर-गांव आदि थे वहां अब कुछ भी नहीं है और आगे भविष्य में भी हो सकता है फिर कभी वहां पर चहल-पहल हो जाये, अन्य ही कोई नगर बस जाये। यही संसार का मिथ्या होने का प्रमाण है|
√√ शब्द - 19 √√
ओ३म् रूप अरूप रमूं पिण्डे ब्रह्मण्डे, घट घट अघट रहायो।
भावार्थ- रूपवान अरूपवान प्रत्येक शरीर तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मैं ब्रह्म रूप से रमण करता हूं। दृष्ट रूप कण कण मे तथा अदृष्ट रूप कण कण में मैं सर्वत्र तिल में तेल, फूल में सुगन्ध्धी की तरह हर जगह प्रत्येक समय में समाया हुआ हूं। इसलिये सर्व व्यापकत्व परमात्मा स्वतः ही सिद्ध होता है।
अनन्त जुगां में अमर भणीजूं, ना मेरे पिता न मायो।
मैं देश तथा काल से भी परे हूं, अनन्त युग बीत जाने पर भी मैं अमर ही रहता हूं ऐसा शास्त्र वेद आदि भी कहते हैं। मेरे माता-पिता भी कोई नहीं है। यदि मेरा जन्म होता तो मृत्यु भी धुव्र थी इसलिए जन्म-मरण रहित अजन्मा आदि-अनादि का योगी हूं।
ना मेरे माया न छाया, रूप न रेखा, बाहर भीतर अगम अलेखा। लेखा एक निरंजन लेसी, जहां चीन्हों तहां पायो।
न ही मुझ पर अन्य लोगों की भांति माया का प्रभाव है और न ही माया की छाया से मैं आवृत ही हुआ हूं, न ही मेरे कोई रूप ही है और न ही किसी प्रकार की आकृति ही है। मैं बाहर-भीतर , गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्वों में सदा एक रस ही रहता हूं। वह चेतन ज्योति की सत्ता अलेखनीय होते हुए भी अनुभवगम्य अवश्य ही होती है। माया रहित होकर उसका पार पाया जा सकता है, जाना जा सकता है। इसको जानने के लिये कहीं भी देश घर छोड़कर जाने की आवश्यकता नहीं है। जहां पर भी आप प्रेम पूर्वक एकाग्र मन से ध्ध्यान करोगे, वहीं पर प्राप्त हो जायेगा। ,,
अड़सठ तीर्थ हिरदा भीतर, कोई कोई गुरु मुख बिरला न्हायो।
यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहता है कि अड़सठ तीर्थों में जाने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है तो यह बात पूर्णतया सत्य नहीं कही जा सकती।यदि आप लोग सहज रूप से ही प्राप्त परम तत्व की हृदय में खोज करोगे तो अड़सठ तीर्थ हृदय के भीतर ही है। भीतर वाले तीर्थों की अवहेलना करके बाह्य तीर्थों में भटकोगे तो कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। सर्व साध्धारण जन के लिये तो बाह्य गंगादि अवश्य ही है। किन्तु भीतर के परमानन्द दायक तीर्थों में स्नान तो कोई-कोई गुरुमुखी सुगरा विरला ही करता है। अन्दर के तीर्थों का स्नान तो सर्वश्रेष्ठ है और बाह्य तीर्थों का स्नान मध्ध्यम श्रेणी का है और जो दोनों से वंचित है वह तो कनिष्ठ श्रेणी का ही कहा जायेगा।
√ सबद-20 √√
ओ३म् जां जां दया न माया, तां तां बिकरम काया। भावार्थ- जिस जिस व्यक्ति में दया भाव तथा प्रेम भाव नहीं है, उस व्यक्ति के शरीर द्वारा कभी भी शुभ कर्म तो नहीं हो सकते। सदा ही मानवता के विरूद्ध कर्म ही होंगे। इसलिये दया तथा प्रेम भाव ही शुभ कर्मों का मूल है।
जां जां आव न वैसूं, तां तां सुरग न जैसूं।
जहां जहां पर आये हुऐ अतिथि को आदर - सत्कार नहीं है अर्थात् ‘‘आओ, , बैठो, , पीयो पाणी ये तीन बात मोल नहीं आणी‘‘ इस प्रकार से नहीं होता है, वहां पर उस घर में कभी स्वर्ग जैसा सुख नहीं हो सकता। क्योंकि अतिथि अग्नि स्वरूप होता है। अग्नि जल से ठण्डी होती है। अतिथि सत्कार से ठण्डा होता है नहीं तो अग्नि रूप अतिथि स्वकीय अग्नि को वहीं छोड़कर चला जाता है वह घर सदा ही जलता रहता है।
जां जां जीव न ज्योति, तां तां मोख न मुक्ति।
जिस विद्वान या भक्त ने प्रत्येक जीव में उस पामात्मा की ज्योति का दर्शन नहीं किया है जिसका अब तक द्वेत भाव जनित राग, द्वेष आदि निवृत नहीं हुऐ है तब तक उसकी मोक्ष या मुक्ति कदापि नहीं हो सकती। ‘‘ऋते ज्ञानात् न मुक्ति‘‘ ज्ञान विना मुक्ति संभव नहीं है।
जां जां दया न धर्मूं, तां तां बिकरम कर्मूं।
जहां पर जिस देश काल या व्यक्ति में दया भाव जनित धर्म नहीं है वहां सदा ही धर्म विरूद्ध पापमय ही कर्म होंगे। दयाभाव, नम्रता, शीलता, धार्मिकता ये मानव के भूषण है। ये धारण करने से मानवता निखर करके सामने आती है।
जां जां पाले न शीलूं, तां तां कर्म कुचीलूं।
जिस मानव ने शीलव्रत का पालन नहीं किया अर्थात् सभी के साथ सुख दुख में सहानुभूति रखते हुऐ नम्रता का व्यवहार नहीं किया तो वहां पर उस व्यक्ति में सदा ही कुचिलता ही रहेगी। वह कभी भी सज्जनता से सत्य व्यवहार नहीं करेगा, , सदा ही कुटिलता का ही व्यवहार करेगा।
जां जां खोज्या न मूलूं, तां तां प्रत्यक्ष थूलूं।
जिस साधक जन ने उस मूल स्वरूप परमात्मा की खोज नहीं की किन्तु अपने को साधक भक्त-सिद्ध कहता है तो समझो कि उसने प्रत्यक्ष रूप प्रतिमा आदि पर मत्था टेककर समय व्यर्थ ही गंवा दिया। खोज तो सर्वत्र समाहित की ही होती है न कि प्रत्यक्ष स्थूल पदार्थों की।
जां जां भेद्या न भेदूं, तो सुरगे किसी उमेदूं।
अध्ययनशील जिस पुरूष ने भी सत्य असत्य का सम्यग् प्रकारेण निर्णय नहीं किया, , ग्राह्य एवं त्याज्य का ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो उसे स्वर्ग सुख की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये। जगत में कर्तव्य कर्म करने चाहिये और अकर्तव्य कर्म त्यागने चाहिये। तभी स्वर्ग सुख प्राप्त होता है।
जां जां घमण्डै स घमण्डूं, ताकै ताव न छायो, सूतै सांस नशायो।
जो अज्ञानी व्यक्ति स्वकीय अभिमान द्वारा ही सभी को दबाना चाहता है। अपने को ही सर्वोपरि समझता है। उस व्यक्ति का ताव यानि तेज सभी उपर नहीं छा जाता। यानि सभी को बल से नहीं जीता जा सकता। यदि किसी के हृदय में अपनी झलक छोड़ना है तो वह बल अभिमान से नहीं, किन्तु प्रेम सज्जनता से ही संभव है। ऐसे अभिमानी पुरूष का श्वांस तो निन्द्रा के वशीभूत होने पर ही निकल जायेगा। अपने अभिमान से तो अपने प्रिय श्वांसों को भी वश में नहीं कर सकता तो अन्य प्राणियों को तो वश में करना दूर की बात है।
देव दवारै चारणी, चल कै आयी एक। बाललो चाड़यो गले को, लीयो नहीं अलेख। देव कहै सुण चारणी, मेरे पहरै कोय। बेटा बहु मेरे न कछु, बाललो पहरै सोय। चारणी कहै सुण देवजी, ऊंठ दरावों मोय। घणी दूर मैं नाव को, प्रगट करस्यो तोहि। बाजा खूब बजाय के, कहूं तुम्हारो जस। मो दीने बड़पण मिले, नित मिले अजस। किति एक दूर प्रगट करे, कही समझावो भेव। आठ कोठड़ी मैं फिरूं, सब जाणै गुरु देव।
गुरु जाम्भोजी के पास सम्भराथल पर एक चारण जाति की स्त्री चारणी आयी। अपने गले का बालला स्वर्ण हार गुरुदेव के चरणों में चढ़ाया किन्तु गुरुजी ने लिया नही और कहा- कि हे चारणी!मेरे ये काम की वस्तु नहीं है, इसको कौन पहनेगा? न तो मेरे बेटे है और न ही बहू है। तब चारणी ने कहा कि हे महाराज! आप मुझे एक ऊंठ दिला दीजिये, जिस पर सवार होकर आपका नाम,यश का प्रचार करूंगी। खूब ढ़ोल बजाऊंगी साथ में आपके नाम का भी गान करूंगी। आप मेरे को ऊंठ देवोगे तो आपको बड़पण मिलेगा नहीं तो आपके यश का प्रचार नहीं होगा। जम्भदेवजी ने कहा-तूं मेरे नाम यश को कहां तक प्रगट करेगी।
चारणी ने कहा-हे देव! मैं आठ राजाओं के महलों में आती-जाती हूं वहां पर ही मैं आपके यश को गा सकूंगी इससे ज्यादा तो नहीं। तब श्री देवजी ने सबद रूप से बतलाया-
√√ सबद-21 √√
ओ३म् जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, ते सरवर कित नीरूं।
भावार्थ- जो अज्ञानी जन संसार के गाजे-बाजे, कीर्ति, , नाम कीर्तन करना, करवाना को ही सार रूप समझते हैं वह हमारे जैसे वीतराग पुरूषों के लिये सार वस्तु नहीं है तथा जो इन मान यश, बड़ाई को ही मानव का अन्तिम लक्ष्य समझते है, वह हमारे लिये पार नहीं है। संसार में थोड़े से मनुष्यों के सामने अपना यश बखान करके उनसे वाह वाही लूट लेना ही थाघ समझते है, वह हमारे लिये अन्तिम थाघ लक्ष्य कदापि नहीं हो सकता क्योंकि जिसके यहां आनन्द उमंग की लहरें समुद्र की तरह उमड़ रही है, उन्हें इन छोटे-छोटे तालाबों के गंदे जल से क्या प्रयोजन है हमारे यहां तो आनन्द है और ये सांसारिक लोगों के पास तो अत्यल्प कीर्ति रूपी छोटा सा तालाब है।जो कभी भी सूख सकता है किन्तु हमारा सनातन उमंग का आनन्द सदा स्थिर रहने वाला है।
बाजा लो भल बाजा लो, बाजा दोय गहीरूं। एकण बाजै नीर बरसै, दूजै मही बिरोलत खीरूं।
हे चारणी! यदि तेरे को बाजा ही बजाना है तो अब तक इस सृष्टि में दो ही बाजे प्रसिद्ध हुए है। पहला बाजा जब बजता है तो मेघ उमड़ कर आते हैं और अमृतमय वर्षा करते है। इसे गर्जना कहते है। दूसरा बाजा तो जब देव-दानवों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया था तब बजा था जिससे अमृत निकला था। ये दो ही बाजे है, तीसरा कोई नजर नहीं आता है। एक छोटा बाजा घर घर बजता है तो मक्खन घृत की प्राप्ति होती है। यदि तेरे को बाजा ही बजाना है तो उस अमृतमय बाजे को ग्रहण कर जिससे देवता पीकर अमर हो गये तूं भी उस अमृतमय बाजे को पीकर अमर हो जा।
जिहिं के सार असारूं, पार अपारूं, थाघ अथाघूं। उमग्या समाघूं, गहर गंभीरूं, गगन पयाले, बाजत नादूं।
वही दो ही बाजे सार रूप है वही सर्वोपरि है तथा वही बाजे अन्तिम थाघ है। उस अमृत की प्राप्ति से शरीर में उमंग की लहरें यानि आनन्द की प्राप्ति होती है। वही प्राप्ति गंभीरता को प्राप्त करवाती है। उन बाजों की ध्वनि गगन पाताल आदि सभी जगहों पर पहुंची थी। ठीक उसी प्रकार से एकाग्र मन से निरोध अवस्था में साध्धक भी उसी नाद ध्वनि की गर्जन श्रवण के पश्चात् अमृत वर्षा में स्नान करता है।
माणक पायो फेर लुकायो, नहीं लखायो।
हे चारणी!तुझे इस मानव शरीर रूपी अमूल्य माणिक मिला है। स्वकीय पूर्व जन्मों के शुभ कर्मो तथा ईश्वर की महती अनुकम्पा से प्राप्त हो गया किन्तु यह सदा स्थिर रहने वाला भी नहीं है। समय रहते हुऐ इसको तूं समझ नहीं सकी यही तूंने बड़ी भूल की है।
दुनिया राती बाद विवादूं,बाद विवादे दाणूं खीणां ज्यूं पहुपे खीणां भंवरी भंवरा। भावै जाण म जाण पिराणी, जोलै का रिप जंवरा।
यह दुनिया तो व्यर्थ के विवाद में रची हुई है। इन्हें हीरे जैसे शरीर का पता ही नहीं है। यह तर्क-वितर्क के बकवाद में पड़कर मनुष्य तो क्या अनेकों दानव नष्ट हो गये। इसका इतिहास पुराण साक्षी देते है जिस प्रकार से- रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्री। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहारः। कमल के फूल में भंवरी-भंवरा रात्रि के समय कैद हो गये और कहने लगे कि रात्रि व्यतीत हो जायेगी सूर्योदय हो जायेगा और यह कमल खिल जायेगा हम उड़ जायेंगे स्वतंत्र हो जायेंगे। किन्तु इस विवाद के बीच में ही उसी तालाब में ही पानी पीने के लिये हाथियों का झुंड आया क्रीड़ा करते हुऐ उस कमल को मसल डाला भंवरा-भंवरी की वहीं मृत्यु हो गयी, यही दशा जीव की भी होती है। समय से पूर्व ही काल रूपी मृत्यु आ जाती है और उसे शरीर से विलग कर देती है। वह चाहे जान में हो चाहे अनजान में। इस शरीर के शत्रु यमदूत अवश्य ही है। जो जीव को निकालकर ले जाते हैं।
भेर बाजातो एक जोजनो, अथवा तो दोय जोजनो। मेघ बाजा तो पंच जोजनो, अथवा तो दश जोजनो। सोई उतम ले रे प्राणी, जुगां जुगांणी सत कर जांणी।
बाह्य वाद्यों की ध्ध्वनि तो सीमित है जैसे भेरी की आवाज एक योजन तक सुनायी देती है या यदि ज्यादा जोर से बजी तो दो योजन तक सुनायी दे सकती है। दूसरा बाजा तो वर्षा के समय में गर्जता है वह भी पांच योजन या अध्धिक तो दश योजन तक ही सुनायी देता है। किन्तु इनसे भिन्न भी एक उतम बाजा वह बजता है जिसे हम नाद ध्ध्वनि कहते हैं वह बाजा ही सदा अमृत तत्व से साक्षात्कार कराने वाला है, युगों युगों से बजता आया है और बजता ही रहेगा। ऐसे उतम नाद ध्ध्वनि रूप बाजे को श्रवण करो। जिससे शाश्वत शांति प्राप्त हो सके अमृत प्राप्ति का द्वार खुल सके।
गुरु का शब्द ज्यूं बोलो झीणी बाणी, जिहिं का दूरा हूंतै दूर सुणीजै। सो शब्द गुणां कारूं, गुणां सारूं बले अपारूं।
यदि आप नाद ध्ध्वनि का श्रवण नहीं कर सकते तो ये आपके सामने उपस्थित गुरु के शब्द, इनको सभी एक साथ मिलकर गंभीर मीठी ध्ध्वनि से सस्वर उच्चारण करो, जिससे उच्चारण कर्ता का अन्तः करण पवित्र होगा तथा जितना उच्च स्वर से उच्चारण होगा उतने ही दूर तक वातावरण को शुद्ध करेगा। श्रोतागण श्रवण करके अपने को ध्धन्य समझेगा, वही शब्द गुणाकारी है। शब्द बोलने का फल भी तभी प्राप्त होता है। जिस फल का कोई अन्तपार ही नहीं है। उच्च स्वर से ध्ध्वनि निर्मित होती है वही ध्ध्वनि फलदायक होती है। इसलिये सभी को मिलकर एक स्वर से शब्द बोलना चाहिये।
"प्रसंग-दोहा"
वरसंग आय अरज करी, सतगुरु सुणियें बात।
तब ईश्वर कृपा करी, पीढ़ी उधरे सात।
म्हारै एक पुत्र भयो, झाली बाण कुबाण।
माटी का मृघा रचै, तानै मारै ताण।
बरसिंग की नारी कहै, देव कहो कुण जीव।
अपराध छिमा सतगुरु करो, कहो सत कहैं पीव।
धाड़ेती गऊ ले चले, इक थोरी चढ़ियो बार।
रूतस में प्रभू मैं भई, दृष्ट पड़यों किरतार।
तब सतगुरु प्रसन्न भये, दुभध्या तजे न दोय।
सत बात तुमने कही, सहजै मुक्ति होय।
जांगलू धाम निवासी बरसिंग जी बणिहाल(बैनीवाल) ने सम्भराथल पर आकर जम्भेश्वर जी से प्रार्थना करते हुए कहा-हे देव! आपने तो पहले कहा था कि तुम्हारे पुत्र-पौत्र सहित तुम्हारा सात पीढ़ियों का उद्धार होगा किन्तु हमारे घर में एक पुत्र ने जन्म लिया है अब बड़ा होकर मिट्टी के मृग बनाकर उन्हें बाणों द्वारा मारता है।इससे पता चलता है कि यह कोई कुजीव है किन्तु हमारे यहां पर आगमन क्यों हुआ? इससे तो लगता है कि आपकी बाणी सत्य होने में संदेह है। वरसिंग की धर्मपत्नी कहने लगी-यह जीव कौन है। यदि मेरा कोई अपराध है तो क्षमा करें। वरसिंग की नारी ने सत्य बात बताते हुऐ कहा-एक बार डाकू लोग गऊवों को ले जा रहे थे, तब पीछे से छुड़ाने के लिये बाहर चढ़ी थी। उनमें एक थोरी जाति का शिकारी भी उनके साथ था। उस समय मैं भी ऋतुवंती अवस्था में होते हुऐ भी उनके साथ थी उनकी सेवा में जल पिलाने के लिये मुझे भी जाना पड़ा था। हो सकता है उस शिकारी की दृष्टि मेरे उपर पड़ी हो, ऐसा कोई दृष्टि दोष हो सकता है तो मालूम नहीं किन्तु प्रत्यक्ष दोष तो नहीं हो सकता। इस सत्य को सुनकर श्री देवजी ने कहा-जो भी हो, अब इनके पूर्व जन्म के संस्कार निवृत करके नये अच्छे संस्कार जमाओ,निश्चित ही इसका सुधार होगा। यह सद्मार्ग का अनुयायी बनेगा तथा मुक्ति को प्राप्त करेगा। श्री देवजी ने जीव और देह का विज्ञान इस सबद द्वारा बताया है।
√√ सबद-22 √√
ओ३म् लो लो रे राजिंदर रायों, बाजै बाव सुवायो। आभै अमी झुरायो, कालर करसण कियो, नैपै कछू न कीयो।
भावार्थ- इस सबद के द्वारा गुरु जम्भेश्वर जी ने कहा मानव स्वर्ग सुख भोग लेने के बाद जब वापिस मृत्यु लोक में आता है तो वापिस आगमन का तरीका प्रथम बतलाया है। गीता में कहा है-ते तं भुक्त्वा स्वर्ग लोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्यु लोकं विशन्ति‘‘ भुक्त्वा स्वर्ग लोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्यु लोकं विशन्ति‘‘ इसी विषय को छान्दोग्य उपनिषद् में भी इस प्रकार से वर्णित किया है। जब वह जीव वापिस आता है तब अचेत अवस्था को प्राप्त होकर सर्वप्रथम अन्तरिक्ष में आता है। वहां से फिर परमात्मा की इच्छा से समुद्र से उठे हुए लहलोर - लो लो रे यानि देवराज इन्द्र स्वरूप बादलों में आता है। वही बादल रूप जल जो वाष्प रूप में रहता है, आकाश में विचरण करता है। उसी समय मानसूनी हवाएं अर्थात् सुवायु चलती है तो बादलों को धकेल कर इधर ले आती है वर्षा का आना या न आना सुवायु पर ही निर्भर करता है। प्रभु की इच्छा से चली सुवायु आकाश में बादलों का गहरा डंबर कर देती है। वही बादल ऊसर भूमि पर बरस जाता है, तो वहां पर कुछ भी नहीं होता। बरसा हुआ जल वापिस सूर्य किरणों द्वारा उड़कर बादल बन जाता है। अर्थात् उस जल में रहने वाला सूक्ष्म जीव जल के साथ ही तद्रूप होकर विचरण करता है।
अइया उतम खेती, को को इमृत रायो, को को दाख दिखायो। को को ईख उपायो, को को नींब निंबोली, को को ढ़ाक ढ़कोली। को को तूषण तूंबण बेली, को को आक अकायो, को को कछू कमायो।
वे ही जल की बूंदें यदि उतम उपजाऊ तैयार खेती पर पड़ती है तो बीज निपजा देती है। इसमें जल का कोई दोष नहीं है। जैसा बीज होगा फल भी तो वैसा ही होगा, यदि वह जल दाख में गिरेगा तो अमृतमय दाख पैदा कर देगा और ईख में गिरेगा तो भी गुड़ पैदा कर देगा और वही जल यदि नीम के पेड़ पर बरसेगा तो निंबोली पैदा कर देगा। ढ़ाक पर ढ़कोली तूंबे की बेल पर वर्षा से तूंबा पैदा होगा और आक पर वर्षा से विषमय आक हो जायेगा। जैसा बीज होगा वैसा ही फल होगा। यहां जल रूपी माता-पिता का रज-वीर्य है तथा बीज रूपी जीव है। माता-पिता का दावा तो केवल शरीर तक ही सीमित है क्योंकि माता-पिता तो केवल शरीर को ही पैदा करते है। जीव को पैदा करने का सामथ्र्य नहीं है। माता-पिता के शरीर से उनके बच्चे के शरीर की सादृश्यता है न कि जीव से। जीव अपने पूर्व जन्मों के संस्कार साथ लेकर जन्मता है। इसलिये सुपुत्र या कुपुत्र का जन्म होना माता-पिता के वश की बात नहीं है। सज्जन पुरूष के यहां सुजीव ही भेजना यह ईश्वर का ही कार्य है। जिस प्रकार से जल से सिंचित होकर बीज पेड़ का रूप धारण कर लेता है। ठीक उसी प्रकार से सिंचित हुआ बीज रूपी जीव शरीर को धारण कर लेता है और वृद्धि को प्राप्त होता है।
ताका मूल कुमूलूं, डाल कुडालूं, ताका पात कुपातूं। ताका फल बीज कूबीजूं, तो नीरे दोष किसा
नीम, आक, तूंबा आदि इतने कड़वे विषैलै क्यों होते है? जल तो दाख, नींब दोनों में एक जैसा ही वर्षा है। उतर देते हैं-कि उनका मूल ही कुमूल है अर्थात् बीज रूप ही जिनका कड़वाहट से भरा है। तो वैसा ही फल होगा। डाल, पते, फूल, फल, बीज सभी वैसे ही होंगे इसमें जल का क्या दोष है बीज का ही दोष है।इसी प्रकार स्वयं जीव ही दुष्टता से परिपूर्ण है तो उसका विस्तार रूप शरीर तथा कार्य भी वैसा ही होगा।इसमें माता-पिता का क्या दोष है।
क्यूं क्यू भऐ भाग ऊणां, क्यूं क्यूं कर्म बिहूणां, को को चिड़ी चमेड़ी। को को उल्लू आयो, ताकै ज्ञान न ज्योति, मोक्ष न मुक्ति। यांके कर्म इसायो, तो नीरे दोष किसायों।
कुछ कुछ लोग भाग्य विहीन होते है तथा कुछ कुछ लोग शुभ कर्मों से रहित होते है। जो छोटी छोटी चैरासी लाख योनियों में भटकते हैं। उन जीवों को वही दुखदायी शरीर प्राप्त होते है। कभी चिडि़या कभी चमेड़ी उल्लू आदि जिनको न तो कभी ज्ञान की ज्योति थी और न ही कभी हो सकती तथा विना ज्ञान के तो ये प्राणी मोक्ष या मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। इनके कर्म ही ऐसे है तो फिर जल का क्या दोष है अर्थात् स्वयं जीव ही कुकर्मी है तो फिर जल रूपी शरीर का क्या दोष है। इसलिये हे बरसिंग!इस बालक के सम्बन्ध्ध में इतना दुखी नहीं होना। यह पूर्व जन्म का शिकारी है। किसी कारणवश या दृष्टि दोष के कारण यहां पर आ गया। अब इसे अच्छे संस्कारों से शुद्ध करो। यही जीव जैसे दुष्ट हुआ था वैसे ही सज्जन भी हो जायेगा। इस समय तुम्हारा यही कत्र्तव्य है। इसलिये माता-पिता ही प्रथम गुरु होते हैं। इस बालक का शरीर तुम्हारा होने से इसमें रहने वाला जीव भी इस समय तुम्हारा सम्बन्ध्धी हो चुका है। इसलिये तुम्हारी बात अवश्य ही स्वीकार करेगा। तुम्हारे द्वारा प्रदत इस शरीर में रहनेवाला जीवात्मा भी इस शरीर में रहकर तुम्हारे संस्कारों से पवित्र हो जायेगा।
प्रसंग-8 दोहा'
विष्णु भक्त गुंणावती, रहे जूं तेली जात। विश्नोई
धर्म आचरै, जम्भेश्वर किया पात। एक मृघा और तेल पे,
आठ सै एक हजार। खड़े सकल वानै चढ़ै, वह्या करारी
धार। थलसिर हरखे देवजी, साथरियां बूझे बात। भाग
खुलै किस जीव के, कहिये दीना नाथ।
गुणावती नगरी निवासी तेली जाति के कुछ
व्यक्ति थे। वे तिलों से तेल निकालने का कार्य करने
वाले तथा भगवान विष्णु के उपासक थे। उन्हें सुजीव
समझकर श्री देवजी ने पाहल देकर पवित्र किया और
विश्नोई पन्थ में सम्मिलित किया था। एक समय उन
पर विपत्ति आयी कि शिकारियों ने वन्य जीवों
का संहार करते हुए हिरण आदि जीवों को मार
डाला था। उन्हें मृत पशुओं को पकाने के लिये उन
विष्णु भक्त विश्नोइयों से तेल मांगा था।
विश्नोइयों ने उनके कार्य का विरोध करते हुए उन्हें
तेल नहीं दिया। जीव हत्या के इस प्रकार के अनूठे
विरोध को वे लोग (राजकर्मचारी) सहन नहीं कर
सके और एक हजार आठ सौ व्यक्तियों को चोट
पहुंचायी थी। वे विष्णु के सच्चे भक्त उनकी तीक्ष्ण
तरवार की धारा से कुछ भी भयभीत नहीं हुए और
सभी मरने के लिये तैयार थे। इस प्रकार की धर्म में
अडिगता देखकर उन राज पुरूषों का हृदय पसीज गया
था और वे पीछे हट गये थे। इस घटना को सम्भराथल पर
विराजमान श्री गुरु जम्भेश्वर जी ने देखा और हर्षित
होते हुए शरीर में उमंग की लहर से प्रकम्पन्न जैसा
भाव पैदा हुआ। उस रोमांचित दृश्य को देखकर संत
साथरियों ने पूछा कि हे देव! आपकी इस विशेष
प्रसन्नता का क्या कारण है। आज कौनसे जीवों के
भाग खुले है क्योंकि ऐसी विचित्र क्रिया
अप्रयोजन कभी भी नहीं हुआ करती। गुरु जम्भेश्वर
जी ने इस घटना का वर्णन करते हुऐ उनके प्रति यह
सबद सुनाया-
√√ सबद-23 √√
ओ३म् साल्हिया हुवा मरण भय भागा, गाफिल मरणै
घणा डरै।
भावार्थ- ये धर्मवीर पुरूष पवित्र हो चुके हैं। काम,
क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेषादि कूड़ा-करकट
निकालकर साल्हिया हुए है। अब इन्हें मृत्यु से कुछ भी
भय नहीं है। अन्य छोटे-बड़े खतरों से तो डर का सवाल
ही कहां उठता है। इनके विपरीत जो अल्हिया जन है
जिनके अन्दर अब तक मोह मायादि बिमारी
विद्यमान है, वे गाफिल है ऐसे अज्ञानी लोग मृत्यु से
बहुत ही डरते हैं। वे लोग कभी भी धर्म रक्षार्थ
प्राणों की बलि नहीं दे सकते है। साल्हिया जन ही
यह कार्य कर सकते हैं।
सतगुरु मिलियो सतपन्थ बतायो, भ्रान्त चुकाई, मरणे
बहु उपकार करे।
क्योंकि इन धर्मवीर पुरूषों को सतगुरु मिला है, ,
सतपन्थ बताया है और भ्रान्ति मिटा दी है। इसलिये
भ्रमज्ञान रहित ये ज्ञानी जन बड़े आनन्द के सहित
मरने के लिये तैयार है। ऐसे लोग अपने प्राणों का
बलिदान देकर समाज देश तथा धर्म का बहुत ही
उपकार कर जाते हैं। उनकी मृत्यु सफल है क्योंकि आने
वाली पीढ़ी तथा वर्तमान दोनों ही उनसे शिक्षा
ग्रहण करते हैं।
रतन काया सोभंति लाभै, पार गिराये जीव तिरै,
पार गिराये सनेही करणी।
धर्म की रक्षा करते हुऐ प्राण छूट भी जाये तो भी
व्यर्थ में नहीं जाता, उसे इस शरीर के छूटने के बाद आगे
स्वर्ग में जाने के लिये दिव्य रत्न सदृश काया मिलती
है। उस नवीन काया रूपी सूक्ष्म शरीर द्वारा स्वर्ग में
सुखों को भोगता हुआ वह जीवन मुक्ति को प्राप्त
हो जाता है। वहां तक पहुंचने के लिये जीवात्मा को
ऐसा ही परोपकारार्थ कार्य करना पड़ता है तथा
परोपकारी कार्य भी तभी हो सकता है। जब सभी
जीवों पर स्नेह भाव हो। इसलिये स्नेही करणी होनी
चाहिये।
जंपो विष्णु न दोय दिल करणी, जंपो विष्णु न निंदा
करणी।
स्नेही करणी के लिये एकाग्र मन प्रेम भाव से विष्णु
का स्मरण करो, वही तुम्हारे हृदय में प्रेम भाव
जगायेगा। प्रेम-स्नेह की बाधक परायी निंदा करते
हुए समय को व्यर्थ में कभी नष्ट मत करो। जितना
समय परनिंदा में लगाते हो उतना समय उस परम दयालु
समदर्शी परमेश्वर विष्णु के ध्यान भजन स्मरण में
व्यतीत करो। इसी में ही तुम्हारा कल्याण है।
मांडो कांध विष्णु के सरणै,अतरा बोल करोजे साचा
तो पार गिराय गुरु की वाचा|
विष्णु परमात्मा की संगति ग्रहण करके धर्म तथा
जीव रक्षार्थ अपने शरीर को उन हत्यारों के आगे
स्थिर कर दो। यदि तुमने सच्चाई में ही विष्णु की
शरण ग्रहण की है तो तुम्हारा वे शिकारी कुछ भी
नहीं बिगाड़ सकते और वे हत्यारे नहीं हटते है, आप पर
हथियार चला देते है तो भी कोई हानि नहीं है,
निश्चित ही तुम्हें विष्णु परमात्मा का सानिध्य
प्राप्त होगा। यदि इतने बताये हुऐ गुरु के वचनों पर
सत्यता से चलते हो तो यह सद्गुरु का वचन है कि
निश्चित ही तुम लोग संसार सागर से पार उतर
जाओगे।
रवणां ठवणां चवरां भवणां, ताहि परेरै रतन काया छै,
लाभै किसे विचारे।
स्वर्ग में गन्ध्धर्वों द्वारा गायन, अप्सराओं द्वारा
नृत्य, आलिशान भवनों में चंवर ढ़ुलाना आदि
अस्थायी सुखों से भी परे अन्य लोक है। जहां पर
दिव्य रतन सदृश काया प्राप्त करके पहुंचा जा सकता
है। किन्तु कौनसे विचारों द्वारा उस परमात्मा को
प्राप्त कर सकते है आगे बतलाते है।
जे नविये नवणी, खविये खवणी, जरिये जरणी। करिये
करणी, तो सीख हुवां घर जाइये।
यदि इस संसार में नमन करने योग्य व्यक्ति से नमन
करते हुऐ अर्थात् निरभिमानी होते हुए , क्षमा करने
योग्य जगह पर क्षमा शील होते हुए, जरणा करने
योग्य स्थान में जरणा करते हुए और कर्तव्य कर्मों को
करते हुए अपना जीवन यापन करो तो आप लोगों को
यह सीख है कि अपने घर वापिस जाओ। जिस घर से
आप लोग अलग हुए हैं और इस गोवलवास में आ पहुंचे है
श्री देवजी कहते है कि यह मेरी अन्तिम विदाई है अब
आप अपने कर्तव्यों का पालन करके वापिस अपने मूल
स्थान रूप परमतत्व में लीन हो जाओ।
रतन काया सांचे की ढ़ोली, गुरु प्रसादे, केवल ज्ञाने
धर्म आचारे शीले संजमें, सतगुरु तुठे पाइये।
उस परम तत्व की प्राप्ति के लिये जिस रतन काया
की आवश्यकता पड़ती है वह काया सद्गुरु की अपार
कृपा से, कैवल्य ज्ञान,धर्म सम्बन्ध्धी आचार-विचार,
, शील तथा इन्द्रियों के संयम रूपी ढ़ांचे में ढ़लती है।
इसलिये रतन काया की प्राप्ति के लिये इन नियमों
को अपनाना होगा। इतना होने पर भी उस दिव्य
रतन काया को वहां तक पहुंचाने में प्रमुख कारण
सत्गुरु की प्रसन्नता ही होती है।
विश्नोवण एक आय कह्यो, आयस तणों विचार। ढ़ोसी की पहाड़ी हिलावै, ताका कहो आचार।
सम्भराथल पर एक बिश्नोई स्त्री ने आकर जम्भदेवजी से कहा-कि यहां ढ़ोसी नाम की पहाड़ी पर एक योगी बैठा हुआ है। वह कभी कभी ऐसा लगता है कि पहाड़ी को हिला देता है इसमें सच्चाई या झूठ का कुछ पता नहीं है और यह भी मालूम नहीं है कि उसमें सिद्धि है या पाखण्ड? इसका निराकरण कीजिये। इस शंका के निवारणार्थ यह सबद सुनाया-
√√ सबद-24 √√
ओ३म् आसण बैसण कूड़ कपटण, कोई कोई चीन्हत वोजूं वाटे। वोजूं वाटै जे नर भया, काची काया छोड़ कैलाशै गया।
भावार्थ- योग समाधी के लिये जिस स्थिर सुखमय आसन का योगी लोग प्रयोग करते है। उसी आसन का पाखण्डी लोग भी प्रयोग करके यानि बैठकर झूठ कपट और ठगने का व्यवहार करते हैं, अधिकतर तो ऐसा ही होता देखा गया है। किन्तु कोई कोई विरला ही सन्त शूरवीर वास्तविक रूप से आसन पर बैठकर सत्य मार्ग को अपनाकर इस कच्ची काया को समय पर त्याग करके भगवान विष्णु के सर्वोच्च परम धाम को प्राप्त कर लेते हैं।
ओ३म् राज न भूलीलो राजेन्द्र, दुनी न बंधै मेरूं। पवणा झोलै बिखर जैला, धुंवर तणा जै लोरूं।
भावार्थ- हे राजेन्द्र!इस राज्य की चकाचौंध में अपने को मत भूल। अपने स्वरूप की विस्मृति तुझे बहुत ही धोखा देगी तथा दुनिया मेरी है इस प्रकार से दुनिया में मेरपने में बंधना नहीं है। यदि इस समय तुम स्वयं बंधन में आ गये तो फिर छूटने का कोई उपाय नहीं है। यह संसार तो जिसे तुम अपना कहते हो यह धुएं के थोथे बादलों की तरह है। जिसमें न तो स्थिरता है और न ही वर्षा है। ऐसे निरस संसार पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जरा भी पवन का झोंका आते ही इधर-उधर बिखर जायेगा। काल रूपी वायु के झोंके के सामने इस संसार की भी स्थिति नहीं है।
वोलस आभै तणा लहलोरूं,आडा डंबर केती बार बिलंबण,यो संसार अनेहूं।
आपने देखा होगा कई बार आकाश में उमड़-घुमड़ कर थोथे बादल घटाटोप अन्धकार पैदा कर देते है किन्तु न तो उनमें वर्षा ही होती है और न ही स्थिरता। जरा भी हवा चलने से बिखर जाते है। ठीक उसी प्रकार से ही यह संसार की मोह-माया थोड़े दिनों के लिये ही आती है और अपनी चकाचौंध दिखला देती है। किन्तु वास्तविकता से बहुत दूर की बात है। यह माया आती है तो सुख का आभास करा देती है और तुरंत चली जाती है। तो दुख पैदा कर देती है। यह किसी की भी नहीं है। जो इससे स्नेह करके अपनी समझेगा वह सदा ही धोखा खायेगा क्योंकि स्नेह न करने योग्य माया से स्नेह करता है।
भूला प्राणी विष्णु न जंप्यो, मरण विसारो केहूं।
मोह माया में भटके हुए प्राणी ने परमात्मा विष्णु का स्मरण तो किया नही और सदा ही यहां पर अजर-अमर होकर रहने की ठान ली है। उस अवश्यंभावी मृत्यु को भूल गया है यही गलती मानव करता आ रहा है।
म्हां देखंता देव दाणूं, सुरनर खीणां, जंबू मंझे राचि न रहिबा थेहूं।
देव-दानव, मानव आदि इस संसार में अनेकानेक आये और चले गये।ऐसा मैने प्रत्यक्ष देखा है और अब भी देख रहा हूं कि उसी गति से अब भी आ रहे हैं। इस जम्बु द्वीप में तो अब तक कोई स्थिर नहीं रह सका है। स्थायी रहने के लिये किये गये सभी प्रयत्न विफल हो गये है।
नदिये नीर न छीलर पाणी, धूंवर तणां जे मेहूं।
जिस प्रकार से नदी का जल स्थिर नहीं हो सकता वह तो बहेगा ही और छीलर अर्थात् तालाब का थोड़ा पानी भी नहीं टिक सकता तथा ओस की वर्षा भी सूर्य की किरण एवं वायु के सामने स्थिर नहीं रह सकती। उसी प्रकार से यह संसार तथा सांसारिक धन-सम्पति भी स्थिर नहीं है। कर्म और काल के अधीन है।
हंस उडाणों पन्थ विलंब्यो, आसा सास निरास भईलो|
यह जीवात्मा रूपी हंस इस शरीर से विलग हो जायेगा तथा अपने कर्मानुसार आगे का मार्ग पकड़ कर जहां पर भी स्वर्ग-नरक या मुक्ति को प्राप्त करेगा वह तो एक दिन होना निश्चित ही है। किन्तु इस जीवन में होने वाली अनेक आशाएं धूमिल हो जायेगी।अन्तिम समय में तो आशाओं से निराश होकर अपने जीवन का सुधार करें ‘‘आसा पास शतैर्बद्धा काम क्रोध्ध परायणा‘‘ गीता।
ताछै होयसी रंड निरंडी देहूं, पवणा झोलै बिखर जैला गैण विलंबी खेहूं।
जब यह जीवात्मा शरीर से निकलकर गमन कर जायेगी तब यह सौभाग्यवान तुम्हारा शरीर विधवा हो जायेगा। जिस प्रकार से आकाश में उठे हुऐ धूल के कण भी हवा चलने से बिखर जाते है। उसी प्रकार से यह जुड़ा हुआ पंचभौतिक शरीर भी बिखर जायेगा। ये पांचों तत्त्व स्वकीय स्वरूप में विलीन हो जायेंगे। इसलिये इस पर अभिमान करना व्यर्थ है।
ओ३म् घण तण जीम्या को गुण नांही, मल भरिया भण्डारूं। आगे पीछे माटी झूलै, भूला बहैज भारूं।
भावार्थ- यह जमात का महंत अध्धिक भोजन खाने से मोटा-स्थूल हो गया है। किन्तु अधिक खाकर मोटा होने में कोई गुण नहीं है। यह शरीर रूपी भण्डार मल से ही तो भरा हुआ है। इसके आगे और पीछे चर्बी रूपी माटी ही तो झूल रही है। यह बेचारा अपनी भूल के कारण ही तो भार उठाकर घूम रहा है। बिना परिश्रम के स्वाद के लिये खाया हुआ अत्यधिक गरिष्ठ भोजन करने से यही मोटापा रूप दण्ड शरीर को मिलता है। इसलिये साधक के लिये तो युक्ताहार - विहार ही श्रेष्ठ है।
घणा दिनां का बड़ा न कहिबा, बड़ा न लंघिबा पारूं। उतम कुली का उतम न होयबा, कारण किरिया सारूं।
अधिक आयु होने से बड़ा महापुरूष नहीं हो सकता और न ही बड़ा होने से कोई संसार सागर से पार ही उतर सकता। थोड़ी आयु होने से भी यदि गुणी है तो महान और ज्ञानी है। वह अपना कल्याण भी कर सकता है। उतम कुल-वंश में जन्म लेने से कोई उतम महान नहीं हो सकता। यदि जन्म से तो उतम ब्राह्मण है किन्तु कर्म से चाण्डाल है तो उसे ब्राह्मण कदापि नहीं कहना चाहिये। उतम और कनिष्ठ होने में क्रिया और कर्म ही कारण है न कि जाति। प्राचीन काल में जन्म से जाति नहीं मानी जाती थी किन्तु कर्म से जातियों का निर्धारण होता था। आज कल इस विधान का व्यक्तिक्रम खत्म हो गया है।
गोरख दीठा सिद्ध न होयबा, पोह उतरबा पारूं।
केवल सिद्ध गोरखनाथ जी के दर्शन करने से ही सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। यदि गोरखनाथ जी की तरह ही सिद्धि प्राप्त करनी है तो जैसा उन्होंने अपनी वाणी में बतलाया है वही मार्ग अपनाकर साधना करो तभी संभव है। अर्थात् यदि जीवन में महानता प्राप्त करनी है तो उस महानता की सिद्धि के लिये वैसा ही मार्ग अपनाकर कठिन परिश्रम एवं लग्न से कार्य करना ही फलदायी गोरख दर्शन का लाभ है।
कलयुग बरतै चेतो लोई, चेतो चेतण हारूं।
इस समय कलयुग चल रहा है। यह कलयुग समय अति शीघ्रता से व्यतीत हो रहा है क्योंकि कार्य अधिक है, जीवन की आयु थोड़ी है। इस अल्प समय में ही हे लोगों! सावधान हो जाओ! यदि सभी लोग नहीं चेत सको तो चेतने योग्य जन तो अवश्य ही सचेत हो जाओ क्योंकि-
सतगुरु मिलियो सतपन्थ बतायो, भ्रान्त चुकाई, विदगा रातै उदगा गारूं।
इस समय आपको सतगुरु सहज में ही प्राप्त हो चुके है। सतपन्थ बता दिया है। भ्रान्ति की निवृति हो चुकी है। क्योंकि सतगुरु की बाणी वेद ग्रन्थों का उद्गार रूप ही है। सम्पूर्ण वेद ग्रन्थों का पढ़ना असंभव है इसलिये वेदों की सार रूपी यह वाणी ही तुम्हारे लिये सच्ची ज्ञानदात्री है।
ओ३म् पढ़ कागल वेदूं, शास्त्र शब्दूं, पढ़ सुन रहिया कछू न लहिया। नुगरा उमग्या काठ पखाणों,कागल पोथा ना कुछ थोथा,ना कुछ गाया गीयूं |
भावार्थ- कागज द्वारा निर्मित वेद, शास्त्र और संत-महापुरूषों के शब्दों को आप लोगों ने पढ़ा है तथा प्रतिदिन पढ़ते भी आ रहे हैं तथा कुछ लोग सुनते भी हैं। किन्तु जब तक पढ़ सुनकर भी कुछ प्राप्ति नहीं करोगे तो कुछ भी लाभ नहीं है। जैसे अनपढ़ अज्ञानी थे वैसे ही पढ़-सुनकर रह गये तथा कुछ नुगरे लोग है। जिन्होंने अब तक गुरु की शरण ग्रहण नहीं की है। ऐसे लोगों की उमंग तो लकड़ी एवं पत्थरों की मूर्ति पर ही है। उन्हीं के सामने जाकर मत्था टेकते हैं इसलिये जब तक उन्हें पढ़कर आचरण में नहीं लाओगे तो कागज पोथा कुछ भी ज्ञान नहीं दे सकेगा , वे तो थोथे ही है और न ही कुछ अन्य गायन करने में ही लाभ है अर्थात् केवल गायन-पठन करना व्यर्थ ही है।
किण दिश आवै किण दिश जावै, माई लखे न पीऊ।
न तो जीवात्मा का आगमन-निर्गमन वेद शास्त्र बता सकते और न ही माता-पिता ही बता सकते हैं क्योंकि शब्द शास्त्र एवं माता-पिता तो स्थूल बुद्धि गम्य को ही बता सकते हैं किन्तु यह जीव विज्ञान तो अनुभव तथा दिव्य दृष्टि द्वारा प्राप्य है। जीव के आने व जाने की दिशा को गुरुजी बतलाते हैं।
इण्डे मध्ये पिंड उपन्ना, पिंडा मध्ये बिंब उपन्ना। किण दिश पैठा जीऊं, इंडा मध्ये जीव उपन्ना।
माता-पिता के रजवीर्य से शरीर की उत्पति होती है। उस शरीर रूप पिण्ड से जीव पहले से ही विद्यमान रहता है। किन्तु उस अवस्था में वह अशरीरी जीव अचेत अवस्था में रहता है। माता का सुरक्षित अनुकूल गर्भ स्थान पाकर वह शनैः शनैः सचेत होकर बाह्य शरीर का आवरण पाकर उत्पन्न शीलता को प्राप्त करता है। जिसे शरीर की दिनोंदिन वृद्धि होती है तथा इस शरीर के साथ ही सूक्ष्म शरीर भी अन्तःकरण सहित सचेत हो जाता है। इसलिये अण्डे आदि में या अन्य किसी भी शरीर में जीवात्मा का बाहर से किसी भी दिशा से प्रवेश नहीं होता, वह तो शरीर के अन्दर होता है। जीव होने से ही तो शरीर की प्राप्ति है। प्रथम जीव बाद में शरीर होता है।
सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, पीर ऋषिश्वर रे मसवासी। तीरथ वासी, किण घट पैठा जीऊं।
काजी मुल्ला, पीर, महान ऋषि, मठ या श्मशान में निवास करने वाले, तीर्थ में निवास करने वाले सभी लोग अपने को विद्वान धर्माध्धिकारी कहते हो पुस्तक पढ़ते हो इसलिये आपसे पूछना ठीक ही है कि इस जीव ने किस द्वार से प्रवेश किया।
कंसा शब्दे कंस लुकाई, बाहर गई न रीऊ। क्षिण आवै क्षिण बाहर जावै, रूतकर बरषत सीऊं।
जिस प्रकार से कांसा के बर्तन में थाली आदि पर चोट करने से एक ध्वनि पैदा होती है। यह ध्वनि कहां से पैदा होती है और कहां चली जाती है। वह अन्दर ही सर्वत्र छुपी हुई है। चोट पड़ने पर प्रकट हो जाती है तथा वापिस उसी में ही लीन हो जाती है। उसी प्रकार से यह जीव भी सर्वत्र समाया हुआ है। परन्तु अप्रकट है तथा अन्त समय में फिर ब्रह्म में लीन हो जाता है। जीव के आने व जाने में केवल एक क्षण का समय लगता है। ऋतु आने पर ही वर्षा होती है तथा सर्दी गर्मी भी पड़ती है। इसी प्रकार से जीव का शरीर में प्रवेश या जन्म भी अपने कर्मानुसार यथा समय पर ही होता है।
सोवन लंक मन्दोदर काजै, जोय जोय भेद विभिषण दीयो।
जिस प्रकार से विभीषण ने सोने की लंका एवं मन्दोदरी के लिये वहां का सम्पूर्ण भेद रामजी को दे दिया था। उसी प्रकार से हे मनोहर! मैने भी तेरे को यह जीव विज्ञान का सम्पूर्ण गोपनीय भेद दे दिया है। विभीषण के भेद को पाकर रामजी ने विजय प्राप्त कर ली थी। अब तूं भी इस भेद को समझकर ज्ञान प्राप्त कर ले, तेरे लिये यही विजय का कार्य होगा।
तेल लियो खल चोपै जोगी, तिहिं को मोल थोड़े रो कियो। तिलों में से तेल निकल जाता है तो पीछे बची हुई खली पशुओं के ही योग्य होती है। उस खली का मूल्य कम हो जाता है। उसी प्रकार से इस शरीर रूपी तिलों से जब जीवात्मा रूपी तेल निकल जाता है तो पीछे खली के समान व्यर्थ का मृत शरीर ही रह जाता है। इसलिये केवल शरीर को ही अति महत्त्व देना कोई बुद्धिमानी नहीं है। महत्वपूर्ण तो स्वकीय चेतनात्मा ही है।
ज्ञाने ध्याने नादे वेदे जे नर लेणा, तत भी तांही लीयो।
जीवात्मा का ज्ञान तथा स्वरूप की प्राप्ति तो सतगुरु द्वारा व्यवहारिक एवं पारमार्थिक शास्त्रीय ज्ञान श्रवण, नाद ध्वनि, वेद पाठन से ही हो सकती है और जो इन साधनों को अपनाता है वह तत्व को जानता है। या जाना जा सकता है। अन्यथा तो स्थूल संसार को ही जीवात्मा मानकर भटकता है।
करण दधीच सिंवर बलराजा, हुई का फल लीयो।
कर्ण, दधीच, राजा शिवि तथा बलि राजा ये सभी महान दानी थे। उन्होंने अपने शरीर तक दान में दे दिया था। किन्तु ये लोग भी अपने दान कर्म का जितना फल, यश, स्वर्ग आदि होता है, उतना ही मिला-प्राप्त किया। ये लोग भी दान के प्रभाव से परम तत्व को प्राप्त नहीं कर सके अर्थात् दान का फल स्वर्ग ही होता है न कि मुक्ति। आवागमन से छूटने का उपाय परम तत्त्व ही हो सकता है।
तारा दे रोहितास हरिचन्द, काया दशबन्ध दीयो।
इन्हीं दान वीरों की परम श्रृंखला में अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र उनकी पत्नि तारा , एवं सुपुत्र रोहिताश ने भी धर्म सत्य की रक्षार्थ अपना सभी कुछ दान में देकर अपनी काया को भी दान में दे दिया। किन्तु निष्काम भाव से दिया हुआ हरिश्चन्द्र का दान फलीभूत हुआ जिससे अपने आप सहित स्वकीय प्रजा जो सात करोड़ थी उनका भी उद्धार किया। यह उद्धार तो ज्ञान, धन एवं स्वकीय काया समर्पण भाव से ही संभव हुआ।
विष्णु अजंप्या जनम अकारथ,आके डोडे खींपे फलीयो,काफर विवरजत रूहीयूं |
उस परम तत्व की प्राप्ति के लिये विष्णु का जप , स्मरण, ध्यान ही परम कारण है। जो व्यक्ति परमात्मा-स्वामी विष्णु का जप नहीं करता, तत्वान्वेषण नहीं करता, उनका जन्म व्यर्थ ही है। जिस प्रकार से आक के डोडिया तथा खींप वृक्ष की फलियां ये दोनों ही पौधे राजस्थान की मरूभूमि में विशेष कर होते है। उनका फल किसी कार्य में नहीं आता। जो यह परम तत्व का मार्ग नहीं अपनाता है नास्तिक है। ऐसे नास्तिक लोग खाली ही रह जायेंगे।
सेतूं भातूं बहु रंग लेणा, सब रंग लेणा रूहीयूं। नाना रे बहुरंग न राचै, काली ऊन कुजीऊं।
सफेद वस्त्र पर तो अनेक भांति के सभी प्रकार के रंग चढ़ जाते है तथा काली ऊन के तो कोई भी रंग नहीं चढ़ सकता है। उसी प्रकार से ही जिसका अन्तःकरण अब तक पवित्र तथा निर्दोष शुभ्र है। उसको तो आप जो चाहो वैसा ही ज्ञान दे सकते हो क्योंकि ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता उसमें है। अब तक दोष रूपी कालिमा नहीं चढ़ी है और जिस व्यक्ति का हृदय कलुषित हो गया है अनेकानेक दुर्गुणों से अन्तःकरण को कलुषित कर लिया है वह काली ऊन की तरह है उसे कभी भी अच्छे संस्कारों से शुद्ध पवित्र नहीं किया जा सकता। जब तक स्वयं वह अपने को बदलने के लिये प्रयत्नशील न हो जाये।
पाहे लाख मजीठी राता, मोल न जिहिं का रूहीयो।
मजीठ रंग से रंजित किये विना लाख का कोई मूल्य नहीं है। जब लाख रंग जाती है तो उसकी चुड़ियां आदि बनती है। जिससे श्रृंगार होता है तथा उसकी कीमत बढ़ जाती है। उसी प्रकार से मानव में जब तक अपठितता, असंस्कारितता अज्ञानी मूर्ख है तब तक उसकी कोई कीमत नहीं है। यही पुरूष विद्वान गुणी हो जाता है तो उसका मूल्य और इज्जत बढ़ जाती है।
कबही वो ग्रह ऊथरी आवै, शैतानी साथै लीयो। ठोठ गुरु वृषलीपति नारी, जद बंकै जद बीरूं।
कभी कभी दुष्ट आदमी भी सचेत हो जाता है। कोई ज्ञान किरण उदित हो जाने से परम तत्व की प्राप्ति के लिये घर से बाहर निकल पड़ता है किन्तु शैतानी-दुष्टता को साथ लेकर ही निकलता है। उसे पीछे छोड़कर नहीं जाता। ज्ञानी गुरु की खोज में भटकता है तो उसे ज्ञानी या पाखण्डी का विवेक तो होता नहीं है और किसी ठोठ गुरु के हाथों चढ़ जाता है। वह गुरु स्वयं ठोठ है तथा झूठ , कपट, नारी प्राप्ति की वासना में लिप्त है। इधर शिष्य भी तो शैतानी लेकर आया है। दोनों में बांकापन है। न तो सीधा शील स्वभाव वाला गुरु है और न ही शिष्य ही है। जब शिष्य अपनी मरोड़ जताता है तो ठोठ गुरु उससे समझौता कर लेता है उस शिष्य को दुर्गुणों से मुक्त नहीं कर सकता।
अमृत का फल एक मन रहिबा, मेवा मिष्ट सुभायो।
स्वाभाविक मेवा सदृश मीठा अमृत का जो फल है। वह फल एकाग्र मन से अर्थात् चित वृति निरोध रूपी योग से प्राप्त किया जा सकता है किन्तु ऐसे ठोठ गुरुओं के पास शैतान शिष्य को वह कहां मिलेगा|
अशुद्ध पुरूष वृषलीपति नारी, बिन परचै पार गिराय न जाई। देखत अन्धा सुणता बहरा, तासों कछु न बसाई।
अपवित्रता से युक्त, झूठ कपटता से पूर्ण, नारी प्राप्ति की वासना से लिप्त, ऐसा पुरूष कभी भी सतगुरु के उपदेश कृपा विना सुधर नहीं सकता तथा विना सुधार किये कभी सुख शांति को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् इह लोक तथा परलोक दोनों ही बिगाड़ लेता है। ऐसा व्यक्ति देखता हुआ भी नहीं देखता अन्धा है। सुनता हुआ भी नहीं सुनता बहरा है। उसका जीना तो केवल आयु पूरी करनी है। वास्तविक जीवन से तो बहुत दूर है।
ओ३म् गुरु के शब्द असंख्य प्रबोधी, खार समंद परीलो। खार समंद परै परै रे, चैखण्ड खारूं, पहला अन्त न पारूं।
भावार्थ-‘‘स तु सर्वेषां गुरु कालेनानवच्छेदात्‘‘ ‘योग दर्शन‘ वह परम पिता परमात्मा ही सभी का गुरु है तथा काल से परे है। ऐसे सतगुरु के शब्द व्यर्थ नहीं हुआ करते, वे तो असंख्य जनों को प्रबोध-ज्ञान कराने वाले होते हैं। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि इन मेरे शब्दों ने असंख्य जनों को ज्ञानी बनाया है। इस जम्बू दीप भारत खण्ड से बाहर खार समुद्रों से परे भी तथा उनसे भी आगे अनेकानेक देशों में मेरे इन शब्दों की गुंजार पहुंची है। इन चारों खण्ड समुद्रों से पार तो इस समय लोगों को शुद्ध सात्विक बनाया है। अब से पूर्व भी समय-समय पर अनेकों शरीर धारण करके लोगो को चेताया है। जिसकी कोई गिनती भी नहीं है।
अनन्त कोड़ गुरु की दावण बिलंबी, करणी साच तरीलो। सांझे जमो सवेरे थापण, गुरु की नाथ डरीलो।
सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक अनन्त करोड़ प्राणियों ने गुरु की दावण यानि नियम बद्ध जीवन स्वीकार किया है और सत्य धर्म मय जीवन स्वीकार करके संसार सागर से पार उतर गये। सतगुरु ने उन्हें उद्दण्डता से निवृत करके सांय समय जागरण सत्संग तथा प्रातः काल कलश स्थापना करके हवन-पाहल रूपी नाथ पहनायी। वही धर्म साधक नाथ जीवन को संयमित करती है।वे लोग सदा ही गुरु के नियमों पर तत्पर रहकर पापमय जीवन से डरते है।
भगवी टोपी थलसिर आयो, हेत मिलाण करीलो। अम्बाराय बधाई बाजै, हृदय हरि सिंवरीलो।
वही सतगुरु जो देश देशान्तरों में भ्रमण करके अनन्त करोड़ों को पार उतारने वाले है। यहां सम्भराथल पर भगवीं टोपी पहन कर आये है। यदि कोई अपना हित चाहता है तो मिलाप कर सकता है। जो भी मिलाप करेगा वह निश्चित ही हृदय में हरि विष्णु परमात्मा का स्मरण करता हुआ आनन्दमय लोक को प्राप्त करेगा। जब वह वहां पहुंचेगा तो देवता लोग स्वागत सहित अपने यहां वास देंगे।
कृष्ण मया चैखण्ड कृषाणी, जम्बू दीप चरीलो। जम्बू दीप ऐसो चर आयो, इसकन्दर चेतायो। मान्यो शील हकीकत जाग्यो, हक की रोजी धायों।
परमात्मा श्री कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया का ही यह दृश्य अदृश्य जगत रूप है। एक बीज रूपी माया का यह जगत रूप पसारा है। किन्तु इसके कृषक स्वयं परमात्मा है। श्री देवजी कहते है कि इस विशाल सृष्टि के अन्दर भ्रमण करते हुऐ भी मैं यहां विशेष रूप में ही विचरण करता हूं।तथा इसमें विचरण करते हुऐ दिल्ली के बादशाह सिकन्दर को चेताया है।उसे अधर्म मार्ग से निवृत करके शील व हक की कमाई करने का उपदेश दिया है। वह बादशाह होते हुए भी यह स्वीकार किया है। अब वह हक की कमाई करके ही अपना जीवन निर्वाह करता है।
ऊनथ नाथ कुपह का पोहमा आण्या, पोह का धुर पहुंचाया।
जो लोग अति उदण्ड थे उनको तो सज्जन बनाया तथा जो लोग कुमार्ग पर चलते थे उनको सुमार्ग में प्रवृत करवाया तथा जो लोग सुमार्ग में चलते थे अपनी क्रिया कर्म में पक्के थे उनको परम पद की प्राप्ति करवा दी, यही मेरा परम कत्र्तव्य है, यह मैने ठीक से सम्पूर्ण किया है और आगे भी करूंगा।
मोरे धरती ध्यान वनस्पति वासों, ओजूं मण्डल छायों। गीन्दूं मेर पगाणै परबत, मनसा सोड़ तुलायो।
गुरु जाम्भोजी अपने भ्रमण की व्यापकता को दर्शाते है कि मेरे इस सर्वत्र व्यापक रूप में यह धारण शक्ति सम्पन्ना धरती ही ध्यान है। किसी वस्तु विशेष को निरंतर चित में रखने को ही ध्यान कहते है तथा धरती ही निरंतर सभी जड़-चेतन प्राणियों को धारण करती है। इसलिये मेरा ध्यान तो धरती की तरह अडिग है अर्थात् धरती रूप ही है।जिस प्रकार इस धरती से ही भोजन प्राप्त करके वनस्पति धरती के आधार पर खड़े है और कण-कण में विद्यमान है। उसी प्रकार से श्री देवजी कहते हैं कि मैं भी ध्यान रूप से अडिग होकर वनस्पति रूप में सर्वत्र व्यापक हूं तथा वनस्पति की तरह परोपकारी भी हूं। सत्य सनातन रूप से सम्पूर्ण मण्डल में छाया हुआ हूं। उसी सत्य के बल पर यह मण्डल टिका हुआ है। सुमेरू पर्वत ही मेरा तकिया है तथा अन्य सभी छोटे-मोटे पहाड़ पैरों के नीचे ही रहने वाले छोटे गद्दे है अर्थात् जब मेरा शयन होता है तो वह भी इस पार से लेकर उस पार तक सम्पूर्ण सृष्टि को नीचे दबाकर ही होता है। मनसा-इच्छा ही मेरी सोड़ है। उसी सोड़ को ओढ़कर जब मैं सोता हूं तो इन जीवों को कर्म करने की पूरी छूट मिल जाती है। उस समय यह संसार अनेकानेक वासनाओं से परस्पर तुल जाता है। अनेक व्यक्तियों की परस्पर वासनाएँ संघर्ष पैदा करती है।स्नेह पैदा करती है, वासना पूर्ति के लिये मानव कार्य रत होता है। जिससे इस संसार की उतरोतर वृद्धि होती है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि अनेक लोक भी परमात्मा की इच्छा से ही एक-दूसरों के आकर्षण से तृप्त हुऐ है इसलिये अपने अपने स्थान में स्थित है।ऐ जुग चार छतीसा और छतीसां, आश्रा बहै अंधारी, म्हे तो खड़ा बिहायो।
सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग ये चार युग बीत गये तथा इसी प्रकार से चार युग नौ बार इससे पहले बीत चुके है तथा इनसे पूर्व भी नौ बार ये चार युग बीत चुके, अर्थात् दो बार छतीस युग बीत चुके है ये सभी मेरे परमात्मा के आश्रय से ही व्यतीत हुआ है। उससे पूर्व तो अन्ध्धकार ही था। सूर्य आदि की उत्पति भी नहीं हुई थी। तब तो चेतन ब्रह्म रूप में ही स्थित था। यह मैने व्यतीत होते हुऐ देखा है तो फिर मेरे भ्रमण के बारे में क्या पूछते हो।
तेतीसां की बरग बहां म्हे, बारा काजै आयो। बारा थाप घणा न ठाहर मतांतो डीले डीले कोड़ रचायो,म्हे ऊंचै मण्डल का रायों|
सतयुग में प्रहलाद भक्त के समय में तेतीस करोड़ देव-मानवों का उद्धार करने के लिये भी मैने ही नृसिंह रूप धारण किया था। उसको दैत्यों के त्रास से मुक्ति दिलवाई थी। सतयुग में तो केवल पांच करोड़, त्रेता में सात, द्वापर में नौ करोड़ का ही उद्धार हो सका, अब कलयुग में उनसे बचे हुऐ बारह कोटि जीवों का कल्याण करने के लिये यहां पर मेरा आगमन हुआ है। इन बारह कोटि जीवों का उद्धार करके ज्यादा दिन नहीं ठहरूंगा। यहां पर आने का मुख्य प्रयोजन प्रहलाद पंथी जीवों का उद्धार करना ही है। यदि मैं चाहूं तो प्रत्येक शरीर धारी जीवात्मा में परमात्मा के प्रति तथा शुभ कार्य के प्रति कोड-प्रेम भाव पैदा कर सकता हूं। कुछ लोग तो अब तक मुक्ति प्राप्ति की योग्यता भी नहीं रखते। हम तो सर्वोच्च मण्डल ब्रह्मलोक के राजा है। असंभव को भी संभव कर देते है।
समन्द बिरोल्यो वासग नेतो, मेर मथाणी थायों। संसा अर्जुन मारयो कारज सारयो, जद म्हे रहंस दमामा वायो।
समयानुसार हमने और भी अनेक कार्य किये है जैसे-जब देव दानवों ने मिलकर समुद्र को बिलोया था तब हमारी आज्ञा से वासुकी नाग का नेता-रस्सी बनायी थी और सुमेरू पर्वत की मथानी बनायी थी। यह सभी सामान जुटाने पर भी उनका कार्य सिद्ध नहीं हो सका तो कछुवे का रूप धारण करके उनका कार्य सिद्ध किया था। परशुराम का रूप धारण करके मुझे ही दुष्ट संहस्रार्जुन जैसे क्षत्रियों का विनाश करके पृथ्वी के भार को हल्का करना पड़ा था। उस समय मैने ही दुष्ट क्षत्रियों पर ब्राह्मण की विजय का यह रहस्यमय डंका बजाया था।
फैरी सीत लई जद लंका, तद म्हे ऊथे थायो। दशसिर का दश मस्तक छेद्या, बाण भला निरतायो।
त्रेता युग में जब राम रूप हो करके दशसिर रावण के दशों सिरों को छेदन अच्छे अच्छे नुकीले बाणों द्वारा किया। उस समय दोनो ओर से बाणों का महान नृत्य हुआ था। उन्हीं बाणों द्वारा रावण को मार करके सीता को वापिस लाये तथा लंका को अपने अधीन किया था। उस समय कुछ समय के लिये मुझे लंका में ही रहना पड़ा था।
म्हे खोजी थापण होजी नाही, लह लह खेलत डायों।
हम खोज करने वाले सच्चे पारखी हैं। कहीं भी भूल से गलत निर्णय नहीं लेते हैं। समय समय पर अनेक लोगों को पहले तो उन्हें अत्याचार करने का पूरा मौका देते हैं बाद में खेल के मैदान में आमन्त्रित करके जड़मूल से ही उखाड़ देते हैं। हमारे लिये तो यह एक प्रकार का खेल ही है। दुष्टों का विनाश करते समय भी हम निर्दोष ही बने रहते हैं।
कंसा सुर सूं जूवै रमिया, सहजै नन्द हरायो।
इसी प्रकार द्वापर में भी कंस असुर के साथ मैने वैसा ही खेल किया था। बिना खेल किये आनन्द नहीं आता है। दुनिया वाले उन्हें सच्चा मान लेते हैं। उसी प्रकार से पहले तो मैं नन्द जी के घर पर मक्खन खाकर बड़ा हुआ। गउवें चराई, बंशी बजाई तथा बाद में वृन्दावन गोकुल छोड़कर मथुरा जा बसा फिर वापिस लौटकर देखा तक नहीं। प्रथम तो नन्द जी को अति प्रसन्नता प्रदान की किन्तु बाद में दुखी करके मैने ही हरा दिया।
कूंत कंवारी कर्ण समानों, तिहिं का पोह पोह पड़दा छायो।
उसी समय जब मैं कृष्ण के रूप में था तब कुमारी कन्या कुन्ती के ऋषि वरदान से सूर्यदेव की परछाया रूप कर्ण जैसा बलवान दानी बालक जन्मा था। किन्तु कुन्ती जिन्हें समाज के भय से स्वीकार नहीं कर सकी थी तब मैने ही हमेशा इस घटना पर पर्दा डालकर रखा था। इस रहस्य का पता कर्ण की मृत्यु पर्यन्त किसी को भी नहीं लग सका था। यह असंभव बात भी संभव करके दिखायी था। अब आगे दूसरा पर्दा बतलाते है।
पाहे लाख मजीठी पाखों, बनफल राता पीझूं पाणी के रंग धायो। तेपण चाखन चाख्या भाख न भाख्या,जोय जोय लियो फल फल केर रसायो।
गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं - कर्ण की घटना को तो पर्दे में छिपा दिया था। किन्तु अब कलयुग में कुछ लोग वैसे ही तरह तरह के वेश बनाकर अपने वास्तविक जीवन पर पर्दा डालना चाहते हैं। जैसे लाख की चूडियां बनने से पूर्व अवस्था में सौन्दर्य मय नहीं होती है किन्तु मजीठ रंग चढ़ जाने पर पूर्व का रूप ढ़क जाता है और लाल वर्ण वाली हो जाती
मरूभूमि में होने वाला जाल वृक्ष का फल भी गर्मी के मौसम में पकता है। पकने से पूर्व वह भी हरे रंग का होता है, पक करके लाल रंग धारण कर लेता है। जाल वही है किन्तु पककर लाल रंग का हो जाता है। उसी प्रकार से मरूभूमि में होने वाला केर का पेड़ उसका फल भी पकने से पूर्व हरे रंग का तथा कड़वा ही होता है वही पककर लाल वर्ण वाला हो जाता है तथा कुछ मीठापन भी आ जाता है। ये सभी उपर से देखने में तो अति सुन्दर मालूम पड़ते हैं किन्तु खाने में इनका असली भेद खुल जाता है उसी प्रकार से बाह्यवेश तो संत, योगी, भक्त का बना लेते हैं दूर से देखने में तो सच्चे योगी ही मालूम पड़ते हैं किन्तु व्यवहार करने पर कोरे ही केरिया, पील, लाख जैसे ही निकल आते है। इसी बात को आगे फिर से कहते हैं।
थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या, न चीन्हों सुर रायो। कण बिन कूकस कांस पीसों, निश्चै सरी न कायों।
इस समय तो केवल बाह्य दिखावे के ही योगी है। योगी कहलाने पर भी आपने योग साधना नहीं की तो फिर बिना साधना के कैसे योगी हो सकते हो। इसलिये न तो तुमने योग किया और न ही भोग ही भोगा तथा न ही परमात्मा विष्णु का स्मरण किया अन्य सांसारिक कार्य करने में ही अपना समय व्यर्थ में गमाया तो समझो, बिना धान अनाज का भूसा -चांचड़ा ही पीसते रहे उससे कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकी। अपने कर्तव्य कर्म की सिद्धि नहीं हो सकेगी, घास से भूख नहीं मिटेगी।
म्हे अवधूं निरपख जोगी, सहज नगर का रायों।
जो ज्यूं आवै सो त्यूं थरपा, साचा सूं सत भायो।
हम तो अवधूं पक्षपात रहित योगी है। सदा ही स्वकीय सहज अवस्था में ही रहते हैं। हमें संसार की मोह-माया आच्छादित नहीं कर सकती। इस परमावस्था में रहते हुए भी जन-कल्याणार्थ जो कोई भी जैसी भी शंका तथा भावना लेकर आता है उसे उसी प्रकार की ही भाषा में समझाकर दुर्गुणों की निवृति करते हैं और जो वास्तव में सच्चे लोग है वे मुझे बहुत प्रिय है।
मोरै मन ही मुद्रा तन ही कंथा, जोग मारग सहडायों। सात शायर म्हे कुरलै कीयो, ना मैं पीया न रह्या तिसायों।
मैं आदि अनादि युगों का योगी होते हुऐ भी न तो मेरे कानों में मुद्रा है और न ही शरीर पर कंथा गुदड़ी है। मैने योग मार्ग को सहज ही में स्वीकार कर लिया है। बाह्य दिखावे की आवश्यकता नहीं है। सात चक्रों को मैने भेदन किया है अर्थात् मूलाधार चक्र से ऊर्जा शक्ति का ऊध्ध्र्व गमन प्रारम्भ करके सहस्रार तक पहुंचा हूं। मूलाधार चक्र के चलते समय ही एक एक चक्र का रस मैने चखा है। उसका अल्प मात्रा में ही स्वाद लेकर वहीं नहीं रूका , आगे का और इन सात समुद्रों को तैरकर पार किया है। बीच में आने वाली आनन्द की झलक वैसी थी जैसे कोई प्यासा व्यक्ति जल को होठों पर लगा ले उस समय न तो वह प्यासा ही रहेगा और न ही पूर्णरूपेण जल पी सकेगा। अर्थात् बीच में पड़ने वाले चक्रों में आनन्द तो है परन्तु पूर्ण नहीं, केवल प्यास को मन्द कर सकता है। इसलिये योगी को अन्तिम सप्त सहस्रार में जाकर स्थिर होना चाहिये, वहीं पर ही शाश्वत आनन्द की प्राप्ति होगी।
डाकण शाकण निंद्रा खुध्या, ये म्हारै तांबै कूप छिपायों।
आशा रूपी डाकणी, तृष्णा रूपी शाकणी और निन्द्रा आलस्य तथा भूख प्यास आदि द्वन्द्वों को तो मैने इसके विपरीत, निराश, संतोष, आलस्य रहित,जागृत, युक्ताहार, विहार आदि से नष्ट प्रायः कर दिया है। सूर्य के सामने अन्धकार छिप जाता है। उसी प्रकार से तृष्णा भी शक्तिशाली निराशा व संतोष के सामने छुप जाती है।
म्हारै मन ही मुद्रा तन ही कंथा, जोग मारग सहलियो। डाकण शाकण निंद्रा खुध्या, ऐ मेरे मूल न थीयों।
इसलिये हमारा मन ही मुद्रा है और तन ही कंथा है। इन्हीं द्वारा मैने योग मार्ग को आत्मसात् कर लिया है। न तो मेरे डाकणी आसा है और न ही शाकणी तृष्णा है तथा भूख- प्यासादि द्वन्द्वों की सर्वथा निवृति हो चुकी है। ये सभी मेरे मूल स्वरूप जीवन में नहीं है
ओ३म् भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं का भल बुद्धि पावै। जामण मरण भव काल जु चूकै, तो आवागवण न आवै। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेल्हत डालूं।
भावार्थ- -हे प्राणी!इन कल्पित भूत , प्रेत, देवी,देवता को छोड़कर भगवान विष्णु की ही सेवा तथा समर्पण करो। जिस प्रकार से सुवृक्ष के मूल में पानी देने से डालियां, पते,फल,फूल सभी प्रफुलित प्रसन्न हो जाते है। उसी प्रकार सभी के मूल रूप परमात्मा विष्णु का जप, स्मरण करने से अन्य सभी प्रकार के देवी देवता स्वतः ही प्रसन्न हो जायेंगे तथा कुमूल रूप भूत-प्रेत जोगणी आदि को कभी मत सींचो। वे तो सदा ही दुष्ट प्रकृति के है इनका फल भी दुखदायी ही होगा। उस भले मूल को सींचने से प्रथम तो भली बुद्धि पैदा होगी उससे विवेक द्वारा हम सदा ही जीवन में शुभ कर्म करेंगे, जिससे संसार का भय, मृत्यु, भय मिट जायेगा और जन्म मृत्यु के चक्कर से सदा के लिये छूट जायेंगे। इसलिये भले मूल की ही सिंचाई करो। जिस प्रकार से सिंचाई किया हुआ वृक्ष डालियां पते निकालता है तथा फलदायी होता है। उसी प्रकार से तुम्हारा किया हुआ यह शुभ कर्म उतरोतर वृद्धि को प्राप्त होगा।
हरि परि हरि की आंण न मानी, झंख्या झूल्या आलूं। देवां सेवां टेव न जांणी, न बंच्या जम कालूं।
हरि विष्णु परमेश्वर की आशा तो छोड़ दी तथा जगत एवं कल्पित देवों से आशा जोड़ ली है तथा हरि का बताया हुआ शुभ मार्ग और मर्यादा को तोड़ दिया उसे स्वीकार नहीं किया।इस संसार के लोगों की कुसंगति प्राप्त करके आल-बाल, , झूठ-कपट, व्यर्थ की बाणी बोलता रहा। न ही तुमने कभी परम देवों की पूजा-सेवा करने का तरीका विधि-विधान जाना तो फिर यमदूतों की फांसी से कैसे बचेगा। तेरे को तो इस जीवन में ही यमदूतों ने पकड़ रखा है। तूने कभी छूटने का विचार भी तो नहीं किया तो तुझे कौन मुक्ति दिलायेगा।
भूलै प्राणी विष्णु न जंप्यो, मूल न खोज्यो, फिर फिर जोया डालूं। बिन रैणायर हीरे नीरे नग न सीपै, तके न खोला नालूं।
भूले भटके प्राणी! सृष्टि के मूल रूप विष्णु परमात्मा का तो स्मरण भजन जप नहीं किया तथा डाल-पात रूप देवी देवताओं का ही सहारा लिया। ये डाल पते मूल पर ही टिके हुए है। स्वतः ही समर्थ नहीं है। इसलिये कमजोरों का आधार तुम्हें लेकर डूब जायेगा क्योंकि जिस प्रकार से समुद्र के बिना हीरा अन्य जल में मिलता नहीं है। स्वाति नक्षत्र की बूंद प्राप्ति बिना सीपी के मुख में भी मोती नहीं आता तथा छोटे मोटे नदी नालों में भी बहने वाले जल में स्थिरता नहीं होती , जल्दी ही सूख जाते हैं। उसी प्रकार से परमात्मा विष्णु के बिना इन कल्पित देवताओं में भी वह अमूल्य दिव्य ज्योति तथा स्थिरता गांभीर्य कहां है।
चलन चलंते वास वसंतै, जीव जीवंते सास फुरंतै। काया निवंती कांयरे प्राणी विष्णु न घाती भालूं।
जब तक शरीर स्वस्थ है, कार्य करने में समर्थ है, तब तक चलते-फिरते, उठतै-बैठते जीवन सम्बन्धी अन्य कार्य करते हुए तथा श्वांस चलते हुए श्वांसो ही श्वांस तेने परमात्मा का स्मरण नहीं किया। इस शरीर को अहंकार रहित करके किसी के आगे झुकाया तक नहीं। तो हे प्राणी! तुमने परमात्मा विष्णु से सम्बन्ध नहीं जोड़ा। ऐसी कौनसी विपत्ति तेरे उपर आ पड़ी थी। जिससे तुमने संसार से तो मेल कर लिया था किन्तु परमपिता परमात्मा से नहीं कर सका।
घड़ी घटन्तर पहर पटन्तर रात दिनंतर,मास पखंतर,क्षिण ओल्हखा कालूं। मीठा झूठा मोह बिटंबण, मकर समाया जालूं।
यह समय घड़ी, पहर, रात,दिन, पक्ष महिना, वर्ष, उतरायन, दक्षिणायन करते हुए व्यतीत हो जाता है। इन खंडों में बंटा हुआ समय मालूम पड़ता है। किन्तु काल का कोई बंटवारा नहीं होता है। वह जब चाहे तब आपके जीवन का अन्त कर सकता है। यह संसार उपर से देखने से तो मीठा प्रिय किन्तु झूठा है। यह अपने मोह जाल में इस प्रकार से फंसाता है जैसे झींवर मच्छली को जाल में फंसा लेता है। मछली तो मीठे आटे की गोली खाने के लोभ में आकर जाल में फंस जाती है। फिर छटपटाते हुए प्राणों को गंवा बैठती है। उसी प्रकार मानव भी संसार सुख के लिये पहले तो फंस जाता है और फिर छटपटाता है किन्तु निकल नहीं पाता है। उस मोह माया के जाल को काट नहीं सकता। वैसे ही अमूल्य जीवन को नष्ट कर देता है।
कबही को बांइदो बाजत लोई, घडि़या मस्तक तालूं। जीवां जूणी पड़ै परासा, ज्यूं झींवर मच्छी मच्छा जालूं।
कभी ऐसा भयंकर वायु का झोंका आयेगा जो इस शरीर को तोड़-मरोड़ करके इस जीव को ले जायेगा। जिस प्रकार से असावधानी के कारण सिर पर रखा हुआ घड़ा हवा के झौंके से नीचे ताल पर गिर कर फूट जाता है। इसलिये तुम्हारा शरीर भी कच्चे घड़े के समान ही है। शरीर से निकले हुए जीव के गले में यमदूत फांसी डालेगा और चैरासी लाख योनियों में भटकायेगा। जिस प्रकार झींवर मच्छली को मारने के लिये जाल डाल देता है और उन्हें पाश में जकड़ लेता है तो उसकी मृत्यु निश्चित ही है।
पहले जीवड़ो चेत्यो नांही, अब ऊंडी पड़ी पहारूं। जीव र पिंड बिछोड़ो होयसी, ता दिन थाक रहे सिर मारूं।
समय रहते हुए यह जीव सचेत नहीं हुआ और अब समय व्यतीत हो चुका है। वापिस वही समय बहुत दूर चला गया है। बीता हुआ समय वापिस लौटकर नहीं आयेगा। इस वृद्धावस्था में शरीर रक्षा के अनेकों उपाय करने पर भी इस जीव और शरीर का अलगाव तो निश्चित होगा। उन दिनों जब मृत्यु आयेगी तो सभी उपायों से थककर सिर कूट करके ही रह जायेगा। कोई भी रक्षा का उपाय नहीं जुटा पायेगा। एक मूल रूप विष्णु परमात्मा ही अन्तिम समय में रक्षक है। इसलिये वन्दनीय , पूजनीय है।
| सबद-32 ||
ओ३म् कोड़ गऊ जे तीरथ दानों, पंच लाख तुरंगम दानों। कण कंचन पाट पटंबर दानों, गज गेंवर हस्ती अति बल दानों। भावार्थ- यदि कोई तीर्थों में जाकर करोड़ों गउवों का दान कर दे तथा किसी अधिकारी अनधिकारी को पांच लाख से भी अधिक घोड़ों का दान कर दे या अन्नादि खाद्य वस्तु, स्वर्ण ,अलंकार सामान्य ऊनी वस्त्र एवं कीमती रेशमी वस्त्रों का भी दान कर दे और सामान्य हाथी तथा हौंदा आदि से सुसज्जित करके भी अत्यधिक दान कर दे तो भी (ताथै सभ सीरि सील सिनानूं) सबसे श्रेष्ठ तो शील, धर्म स्नान, हवन, जप आदि ही है। अभिमान सहित किया हुआ अत्यधिक दान भी जन्म मृत्यु से नहीं छुड़ा सकता। (हुई का फल लीयूं)।
करण दधीच सिंवर बल राजा, श्री राम ज्यूं बहुत करै आचारूं। कर्ण, दधीची , शिवि तथा बलि राजा ये सभी महान दानी थे। आप लोग तो उनकी तुलना कभी नहीं कर सकते। वे भी अपने कर्मों के सीमित फल को ही प्राप्त कर सके थे। उन्होंने भी दान के बल पर श्री राम जैसा महान बनने का प्रयत्न किया था किन्तु केवल दान के बल पर तो विश्व की सम्पूर्ण कीर्ति हासिल नहीं की जा सकती। राम तो तभी हो सकते हो यदि राम की तरह सम्पूर्ण धर्मों के अंगों सहित धर्म का आचरण करोगे।
जां जां बाद विवादी अति अहंकारी, लबद सवादी। कृष्ण चरित बिन, नाहि उतरिबा पारूं।
जब तक व्यर्थ का वाद विवाद करने की चेष्टा है। अत्यधिक अहंकारी होकर लोभी तथा हठी हो गया है। तब तक चाहे कितना ही दान दिया जाय वह लक्ष्य तक तो नहीं पहुंच सकता। परम गति की प्राप्ति के लिये तो अपने जीवन में कृष्ण परमात्मा के दिव्य चरित्र को अपनाना होगा, बिना कृष्ण चरित्र के कभी भी पार नहीं उतर सकता, यानि जन्म मरण के चक्र से नहीं छूट सकता।
√ सबद-33 √√
ओ३म् कवण न हुवा कवण न होयसी, किण न सह्या दुख भारूं।
भावार्थ- कौन इस संसार में नहीं हुआ तथा कौन फिर आगे नहीं होंगे अर्थात् बड़े बड़े धुरन्धर राजा, तपस्वी, योगी, कर्मठ इस संसार में हो चुके हैं और भी भविष्य में भी होने वाले है। इनमें से किसने भारी दुख सहन नहीं किया अर्थात् ये सभी लोग दुख में ही पल कर बड़े हुए है तथा जीवन को तपाकर कंचनमय बनाया है। दुखों को सहन करके भी कीर्ति की ध्वजाएं फहराई है।
कवण न गइयां कवण न जासी, कवण रह्या संसारूं। अनेक अनेक चलंता दीठा, कलि का माणस कौन विचारूं।
इस संसार में स्थिर कौन रहा है और कौन आगे भविष्य में रहने का विचार कर रहा है? यह पंच भौतिक शरीर प्राप्त करके कौन अजर-अमर रहा है? अनेकानेक इस संसार से जाते हुए मैने देखा है। यह मैने तुझे सृष्टि के आदि से लेकर अब तक की कथा सुनाई है। जब उन युगों की भी यही दशा थी तो इस कलयुग के मानव का तो विचार ही क्या हो सकता है। यह तो वैसे ही अल्पायु, शक्तिहीन तथा ना समझ है।
जो चित होता सो चित नाही, भल खोटा संसारूं। किसकी माई किसका भाई, किसका पख परवारूं।
यह संसार परिवर्तनशील है क्योंकि जो विचार बुद्धि पहले थे वे अब नहीं रहे। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि यही सिद्धान्त है। स्थिरता तो कैसे हो सकती है क्योंकि यह संसार तो अच्छी प्रकार से खोटा-मिथ्या है। इस संसार में लोग सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करते हैं किन्तु बीच में ही टूट जाते हैं। वास्तव में तो न किसी के माता है , न ही पिता, भाई, कुटुम्ब परिवार है। यह जीव तो अकेला ही आया था और अकेला ही जायेगा। बीच में थोड़े दिनों का सम्बन्ध सत्य कैसे हो सकता है।
भूली दुनिया मर मर जावै, न चीन्हों करतारूं। विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, बल बल बारम्बारूं।
ये भूल में भटकी हुई दुनिया मृत्यु को प्राप्त करके दिनों दिन चली जा रही है। समाप्त होते हुए लोग देखते हैं फिर भी स्वयं जीने की आशा करते हैं। कर्ता सर्वेश्वर स्वामी को नहीं पहचानते। इस जीवन रहस्य को जानने तथा जन्म मृत्यु से छूटने के लिये पूरा बल लगाकर बारम्बार अबाध गति से हे प्राणी! तूं विष्णु परमात्मा का जप स्मरण कर, वही तेरे पापों को काटेगा और तुझे संसार के चक्र से बाहर निकालेगा।
कसणी कसबा भूल न बहबा, भाग परापति सारूं। गीता नाद कविता नाऊं, रंग फटारस टारूं।
यदि तुझे जीवन में कुछ प्राप्ति करनी है तो सदा सचेत होकर परिश्रम करते हुए हर समस्या कठिनाइयों से झूझने के लिये कमर कसकर तैयार रहो। जरा सी भी भूल या असावधानी सम्पूर्ण शुभ कर्मों को डूबो देगी। तुम्हें कर्मानुसार फल अवश्य ही मिलेगा। इसलिये निष्काम भाव से शुभ कर्मों में तपस्या में लगे रहो। भगवान कृष्ण के मुख से निकली हुई गीता अनहद नाद बाणी है। यह कोई किसी कवि द्वारा कल्पित कविता नहीं है। इस गीता ने ही तो रूके हुऐ महाभारत को पुनः प्रारम्भ करवा दिया था। अर्जुन के मोह की निवृत्ति गीता ज्ञान द्वारा ही हुई थी। यह गीता ही निष्काम कर्म का उपदेश देती है। इसलिये तुम्हारे अन्दर बैठे हुए मोह, भ्रम जनित अज्ञानता की औषध्धि यह गीता ही है और यही मैं आपको सुना रहा हूं।
फोकट प्राणी भरमें भूला, भल जे यो चीन्हों करतारूं। जामण मरण बिगोवो चूकै, रतन काया ले पार पहुंचे। तो आवागवण निवारूं।
दिन रात आलस्य में पड़े रहने वाले बिना किसी परिश्रम साधना के ही परम तत्व या सांसारिक भोग पदार्थ प्राप्ति की आशा करते हो। वे लोग भ्रम में है तथा भूल में पड़कर व्यर्थ का अभिमान करते है। ऐसे लोगों को सुख शांति की आशा छोड़ देनी चाहिये। अच्छा होता यदि वो आलस्य, भ्रम को छोड़कर शुभ कर्म करते हुए परमात्मा स्वामी दृष्टा का एकाग्र मन से स्मरण करते तो जन्म मरण की धारा टूट जाती और इस रतन सदृश काया से किये हुए शुभ कर्म और पुण्य कमाई को लेकर संसार सागर से पार पहुंच जाते तो उनका बार-बार जन्मना और मरना मिट जाता। यही एक उपाय है। इस संसार में रहकर अजर अमर होने का और कोई उपाय नहीं है।
√ सबद-34 √√
ओ३म् फुंरण फुंहारे कृष्णी माया, घण बरसंता सरवर नीरे। तिरी तिरन्तै तीर, जे तिस मरै तो मरियो।
भावार्थ - भगवान श्री कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया फुंहारों के रूप में वर्षा को कहीं अधिक तो कहीं कम बरसाती है। जिससे तालाब नदी नाले भर जाते हैं। इन भरे हुए तालाबों में कुछ लोग स्नान करते हैं। उनमें तैरू तो स्नान करके पार भी निकल जाते हैं और जिसे तैरना नहीं आता है वह डूब जाता है तथा कुछ ऐसे लोग भी हैं जो डर के मारे पानी के नजदीक ही नहीं जाते, प्यासे ही रह जाते हैं।इस प्रकार से तीन तरह के लोग इस माया मय संसार में रहते हैं।उसी प्रकार से ही भगवान कृष्ण की माया ने यह जगत जाल फैलाया है, कहीं अधिक तो कहीं कम। किन्तु फुहारों की तरह ही एक एक बूंद से यह जगत पूर्ण हुआ है तथा जीवन निर्वाह के लिये भी परमात्मा ने धन धान्य भोग्य वस्तुओं से जगत पूर्ण किया है। इसी धन के मोह में कुछ लोग तो जो अज्ञानी है तैरना नहीं जानते वे तो डूब जाते हैं। धन को ही सभी कुछ समझकर ही मर मिटते है तथा कुछ लोग जो तैरना जानते हैं वे भोगों को प्राप्त करके, भोग करके फिर त्याग करके, ज्ञान से तिर जाते हैं। वे लोग तिरना जानते हैं। अन्य वे लोग जो तीसरी श्रेणी में आते हैं जिनको न तो भोग प्राप्त हो पाता है और न ही छोड़ सकते। भोग्य वस्तु की प्राप्ति की वासना सदैव बनी रहती है। वे न तो पार ही हो सकते और न ही अपने जीवन को सुखमय बना सकते। प्यासे ही रह जाते हैं। संसार में सभी कुछ होते हुए भी वंचित रह जाते हैं।
अन्नों धन्नों दूधूं दहीयूं, घीयूं मेऊ टेऊ जे लाभंता। भूख मरै तो जीवन ही बिन सरियो। खेत मुक्तले कृष्णों अर्थो, जे कंध हरे तो हरियो।
यदि आपको भरपूर अन्न,धन, दूध, दही,मेवा आदि सुलभ है तो इनका अवश्यमेव उपभोग करो। आनन्द करो। यदि ये मिलने पर भी इनको छोड़कर अखाद्य मदिरा, मांस, तम्बाकू आदि का सेवन करते हो और दूध आदि से वंचित रहकर भूखे मरते हो तो इस जीवन से क्या लाभ ले रहे हो। यह जीवन समाप्त हो रहा है, तो हो जाने दो तथा ये खाद्य पदार्थ पवित्र वस्तु की प्राप्ति के लिये शरीर को कष्ट भी उठाना पड़े तो भी कोई चिन्ता नहीं। शरीर मिला भी तो इसलिये ही है तथा परिश्रम भी स्वकीय खेती में परमात्मा के समर्पण भाव से करोगे तो तुम्हें जरा भी शारीरिक मानसिक कष्ट नहीं होगा।
विष्णु जपन्ता जीभ जु थाकै, तो जीभडियां बिन सरीयूं। हरि हरि करता हरकत आवै, तो ना पछतावो करियो।
विष्णु विष्णु का जप करते हुए यदि जीभ थक जाती है तो थकने दीजिये। फिर भी जप तो बिना जीभ के मानसिक ही प्रारम्भ रखिये। अजपा जाप तो विना जिह्वा के भी करते रहिये। यदि हरि हरि विष्णु विष्णु का नाम जप स्मरण करते हुए भी कोई कष्ट विपति आवे तो पछतावा नहीं करना क्योंकि पूर्व जन्मों के कर्म का फल इसी प्रकार से भोगने से ही निवृत्त होगा। इसी प्रकार से यदि कर्म कटते हैं तो कट जाने दीजिये फिर पछतावा किस बात का करना।
भीखी लो भिखीयारी लो, जे आदि परम तत लाधों। जांकै बाद विराम विरांसो सांसो, तानै कौण कहसी साल्हिया साधों।
साधना करते करते जब परम तत्व की प्राप्ति हो जाये तथा द्वेतभाव की निवृत्ति हो जाये। सर्वत्र एक परमात्मा की ही अखण्ड ज्योति का ही दर्शन होने लगे तब चाहे उदर पूर्ति के लिये भिक्षुक बनकर के भिक्षा भी मांग सकते हो। परम तत्व की प्राप्ति के विना तो हाथों से कमाई करके खाना ही अच्छा है। जिस साधक की व्यर्थ का वाद विवाद करने की चेष्टा है| निरंतर साधना का अभाव है। अशान्त तथा मृत्यु का संशय है उसे साल्हिया सज्जन शुद्ध सात्विक साधु कौन कहेगा?यदि कोई कहेगा तो कहने वाला भी अज्ञानी ही होगा, समझदार तो गुणों रहित जन को कभी गुणी नहीं कहेगा।
√ सबद-35 √√
ओ३म् बल बल भणत व्यासूं, नाना अगम न आसूं, नाना उदक उदासूं।
भावार्थ- वेद में जो बात कही है वह सभी कुछ व्यवहार से सत्य सिद्ध नहीं होते हुए भी उस समय जब कथन हुआ था तब तो सत्य ही थी तथा वे मेरे शब्द इस समय देश काल परिस्थिति के अनुसार कलयुगी जीवों के लिये कथन किये जा रहे हैं। इसलिये इस समय तुम्हारे लिये वेद ही है। वैसे तो व्यास लोग गद्दी पर बैठकर बार बार वेद का कथन करते हैं वे लोग अन्तिम प्रमाण वेद को ही स्वीकार करते हैं। कहते हुए भी कथनानुसार जीवन को नहीं बनाते। बात तो वेद की, त्याग, तपस्या की करते हैं। किन्तु आशा तो संसार की ही रहती है। फिर उस कथन से क्या लाभ। स्वयं व्यास ही नाना प्रकार की उदक प्रतिज्ञा को तोड़ देते हैं फिर सामान्य जनों की क्या दशा होगी। गुरुदेवजी कहते हैं कि मेरा ऐसा विचार नहीं है, कथनी और करनी एक ही है। अतः मेरा कथन वेद ही है। इसलिये मेरे यहां सदा ही आनन्द रहता है और व्यासों के यहां तो सदा उदासीनता ही छायी रहती है।
बल बल भई निरासूं, गल में पड़ी परासूं, जां जां गुरु न चीन्हों। तइया सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
कथनी और करनी में अन्तर होने से उन्हें बार बार मानव शरीर मिलने का भी निराश-विफल होगा पड़ता है। इस जीवन की बाजी को हारना पड़ता है और उनके गले में बार बार यमदूतों की फांसी पड़ती है जब तक गुरु की शरण ग्रहण करके उनके सत वाक्य ग्रहण करके कथनी-करणी में एकता स्थापित नहीं करेगा तब तक वह मूल को पानी नहीं दे रहा है। डालियों पतों को ही पानी पिला रहा है तथा कुछ कुछ लोग तो स्थूल बातें बोल कर ही अपना कार्य कर लेते है। वे तो वेद, शास्त्र सतगुरु की वाणी जानते भी नहीं है। फिर भी अपने को व्यास या पण्डित कहते हैं।
√√ सबद-36 √√
ओ३म् काजी कथै कुराणों, न चीन्हों फरमांणों, काफर थूल भयाणों।
भावार्थ- काजी लोग तो केवल कुरान का पाठ करना तथा कहना ही जानते हैं पर उपदेश कुशल ही होते हैं। जो पर उपदेश देने में रस लेगा वह उसे धारण नहीं कर सकेगा और जब तक यथार्थ कथन को स्वयं स्वीकार करके वैसा जीवन यापन नहीं करेगा तब तक वह कथा वाचक स्वयं नास्तिक-काफिर है तथा स्थूल व्यर्थ का बकवादी नास्तिक है उनका जन्म मृत्यु संसार भय निवृत्त नहीं हुआ है। अन्य लोगों की भांति ही वह पण्डित तथा काजी है।
जइया गुरु न चीन्हों, तइया सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
ऐसा मनमुखी काजी पण्डित जब तक गुरु की शरण ग्रहण करके उनके कथनानुसार जीवन यापन नहीं करेगा तब तक वह मूल को पानी नहीं पिला रहा है। व्यर्थ में ही डाल पते ही जल से सिंचित कर रहा है। स्वयं अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार रहा है। कुछ लोग तो वेद शास्त्र की वार्ता जाने बिना ही लोगों को भ्रम में डालते है। स्वयं तो स्थूल की पूजा करते हैं कहते भी है तथा अन्य साधारण जनों को भी वैसा कर देते हैं|
||37||
ओ३म् लोहा लंग लुहारूं, ठाठा घड़ै ठठारूं, उतम कर्म कुम्हारूं।
भावार्थ - धरती एक तत्व रूप से विद्यमान है इसी धरती का अंश लोहा, पीतल, चांदी तथा कंकर पत्थर है इसी धरती रूप लोहे को लेकर लुहार उसे तपाकर के घण की चोट से घड़कर लोहे के अस्त्र शस्त्र औजार बना देता है। लोहा एक था औजार आदि अनेक हो जाते हैं उसी प्रकार से ठठेरा उसे धरती का अंश रूप पीतल लेता है उसे कूट-पीट तपा करके अनेकानेक बर्तन बना देता है तथा कुम्हार भी उसी धरती का अंश मिट्टी लेता है उसे जल के संयोग से तरल करके अनेकानेक घड़े-मटके आदि बना देता है। ये सभी उतम सृष्टि की रचना कर रहे है। जिस प्रकार से लोहा पीतल और मिट्टी ये तीनों मूल रूप से एक ही धरती से प्राप्त हैं तथा लुहार, ठठेरा, कुम्हार ने इसी धरती से उत्पित वस्तुओं का अलग अलग अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, मटका आदि नामकरण कर दिया। उसी प्रकार से इस विस्तृत सृष्टि के मूल रूप में तो एक, अज, अनामय, निर्विकार, ईश , ब्रह्म एक ही है। इसी ब्रह्म की माया देश काल द्वारा इस भिन्न भिन्न नाम रूप से संसार में विस्तार हुआ है तथा जिस तरह से विस्तार हुआ है प्रलय अवस्था में उसी प्रकार से लीन हो जायेगा जैसे घट शस्त्र बर्तन का होता है। ,,
जइयां गुरु न चीन्हों, तइयां सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
जब तक गुरु को नहीं पहचानेगा तब तक इन गूढ़ रहस्य को नहीं जान पायेगा। विना गूढ़ रहस्य जाने मूल रूप परमेश्वर तक नहीं पहुंच सकेगा। केवल स्थूल रूप डाल पतों को पानी देने से कोई लाभ नहीं है अर्थात् कल्पित देवों की खोज सेवा में कुछ भी लाभ नहीं है।
सबद-38
ओ३म् रे रे पिण्ड स पिण्डूं, निरघन जीव क्यूं खंडूं, ताछै खंड बिहंडूं।
भावार्थ- अरे गोंसाई! जैसा तुम्हारा यह पंचभौतिक पिण्ड अर्थात् शरीर है वैसा ही अन्य सभी जीवों का शरीर है। कोई ठुमरा, माला तिलक से शरीर में परिवर्तन आने वाला नहीं है। हे निरघृण! तूने इस पार्थिव दुर्गन्धमय शरीर को ही संवारा इसी को ही महता दी है तथा इसमें रहने
वाले जीव को खण्डित कर दिया है। इसकी अवहेलना कर दी है। इसलिये तेरा जीवन खण्डित होकर टुकड़े टुकड़े हो चुका है। तुमने स्वयं ही अपनी हत्या कर डाली है।
घडिये से घमण्डूं, अइयां पन्थ कु पन्थूं, जइयां गुरु न चीन्हों। तइयां सींच्या न मूलूं, कोई कोई बोलत थूलूं।
तुमने परम तत्त्व की खोज तो नहीं की परन्तु कच्चे घड़े सदृश इस शरीर पर ही अभिमान किया। यह सद्पन्थ नहीं कुपन्थ है। इस मार्ग से तो तुम मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकोगे। यदि गन्तव्य धाम को पहुंचना है तो गुरु के बताये हुऐ मार्ग का अनुसरण करो। उस परम तत्त्व की खोज करो यही मूल है कुछ लोग तो स्वयं को ही सिद्ध बताकर भी स्थूल ही बोलते हैं।
सबद-39
ओ३म् उतम संग सूं संगूं, उतम रंग सूं रंगूं, उतम लंग सूं लंगूं।
भावार्थ- यदि तुम्हें भवसागर से पार होना है तो सर्वप्रथम तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि उतम संगति करना। उतम पुरूष के साथ वार्तालाप करना ही अच्छा संग है और यदि कोई रंग ही अपने उपर चढ़ाना है तो वह भी उतम ही ग्रहण करना अर्थात् यदि अपने जीवन को शुद्ध संस्कृत करना है तो अच्छे संस्कारों को ही धारण करना। संसार से पार लांघना है तो फिर वापिस मृत्यु-जन्म के चक्कर में न आना पड़े। ऐसा उत्तम लोक ही प्राप्त करना। जो भी शुभ कार्य करना हो तो पूर्णता से करना। अधूरा किया हुआ कर्तव्य बीच में ही लटका देता है।
उतम ढ़ंग सूं ढ़ंगूं, उतम जंग सूं जंगूं, तातै सहज सुलीलूं। सहज सुं पंथूं, मरतक मोक्ष दवारूं।
जीवन जीने का ढ़ंग भी यदि उत्तम शालीनता से हो तो वही जीना है। यदि तुम्हें युद्ध ही करना है अर्थात् मन इन्द्रिय बलवान शत्रु है इन्हें जीतना ही उत्तम जंग है इससे तुम्हारे जीवन में सहज ही सुलीला का अवतरण होगा, यानि तुम्हारा जीवन आनन्दमय हो जायेगा। यही सहज सुमार्ग है। इसी मार्ग पर चलने से मृत्यु काल में मोक्ष की प्राप्ति होगी।
"दोहा"
लोहा पांगल वाद कर आवही गुरु दरबार। प्रश्न ही लोहा झड़ै, बोलेसी गुरु आचार। प्रश्न एक ऐसे करी, काहां रहो हो सिद्ध। तुम तो भूखे साध हो, हमरै है नव निध।
लोहा पांगल नाथ पंथ का प्रसिद्ध साध्धु था। वह वाद-विवाद करने के लिये तथा जम्भदेवजी का आचार विचार देखने के लिये सम्भराथल पर आया और विचार किया कि यदि सच्चे गुरु परमात्मा है तो उनके वचनों से यह मेरा लोहे का कच्छ झड़ जायेगा। उसे यह वरदान था कि लोहे का कच्छ तुम्हारा तभी छूटेगा जब किसी महापुरूष से साक्षात्कार एवं वार्तालाप होगी। अपने इस लोहे से जकड़े शरीर के अंग को मुक्त करवाकर दुख से छूटने एवं वाद विवाद करने की इच्छा से प्रश्न किया कि आप सिद्ध पुरूष मालूम पड़ते हो किन्तु आपका निवास स्थान कहां पर है। जाम्भोजी ने अपना स्थान इस प्रकार से बतलाया-
√√ सबद-40 √√
ओ३म् सप्त पताले तिहूं त्रिलोके, चवदा भवने गगन गहीरे। बाहर भीतर सर्व निरंतर, जहां चीन्हों तहां सोई।
भावार्थ- मैं कहां रहता हूं, यह सुनो! अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल , महातल इन सातों पातालों में तथा भूः, भुवः, स्वः मह जन तप सत्यम् इन उपर के सात लोकों में और स्वर्ग मृत्यु ब्रह्म लोक इनमें भी नित्य निरंतर विद्यमान रहता हूं और निराकार आकाश जल परिपूर्ण समुद्र में भी मेरा निवास है। बाह्य दृष्ट अदृष्ट संसार तथा भीतर के अन्तःकरण में भी मैं सभी समय में लगातार ही रहता हूं। जहां पर भी याद करोगे, खोजोगे वहीं पर ही मैं सदा ही प्राप्त हूं।
सतगुरु मिलियों सतपंथ बतायो, भ्रान्त चुकाई, अवर न बुझबा कोई।
अब तुम्हें सतगुरु मिल चुका है और भ्रान्ति मिटा दी है। इसलिये अब किसी अन्य से पूछने की आवश्यकता नहीं है। इस शब्द को श्रवण करके लोहा पांगल विचार मग्न हो गया। थोड़ी देर के लिये शांत चित ही बैठा रहा। इसी बीच में एक अन्य प्रसंग चल पड़ा.
ओ३म् सुण राजेन्द्र, सुण जोगेन्द्र, सुण शेषिन्द्र, सुण सोफिन्द्र। सुण काफिन्द्र, सुण चाचिन्द्र, सिद्धक साध कहाणी। भावार्थ- हे राजेन्द्र, हे योगीन्द्र, हे शेखेन्द्र, हे सूफीन्द्र, हे काफिरेन्द्र, , हे चिश्ती आप लोग सभी ध्यानपूर्वक सुनों! आप लोग अपने को सिद्ध, साधु, धर्माध्धिकारी कहते हो।अपने शिष्यों को पार उतारने के लिए प्रतिज्ञा करते हो किंतु
झूठी काया उपजत विणसत, जां जां नुगरे थिती न जांणी।
यह तुम्हारी झूठी मिथ्या काया बार बार पैदा होती है और विनाश को भी प्राप्त होती है। यदि तुम लोग जन्म मरण के चक्कर से छूट नहीं सको तो फिर अपने शिष्यों को कैसे छुड़ा सकोगे। आप लोग स्वयं नुगरे गुरु रहित मनमुखी हो तो इस रहस्य को कैसे जान सकोगे।
सबद-44
ओ३म् खरतर झोली खरतर कंथा, कांध सहै दुख भारूं। जोग तणी थे खबर नहीं पाई, कांय तज्या घर बारूं। भावार्थ- भिक्षा मांगने की झोली और ओढ़ने की गूदड़ी ये खरतर ही होनी चाहिये अर्थात् यदि तुम्हें भिक्षा के लिये झोली रखना है तो ऐसी शुद्ध पवित्र रखो जिसमें सत्य रूपी भिक्षा ग्रहण की जा सके। ऐसी उतम भिक्षा ही तुम्हें आनन्द देने वाली होगी और यदि ओढ़ने के लिये गूदड़ी कन्धे पर रखनी है तो प्रकृति पर विजय करके अपने को सुरक्षित कर लीजिये यही कंथा होगी। प्रकृति यानि आकाश, वायु, तेज, जल, धरणी से समझौता कर लेने पर ये ही गुदड़ी रूप आवरण का कार्य करेंगे। यही वास्तव में झोली और कंथा है जो योगी को धारण करनी चाहिये। इनसे अतिरिक्त वस्त्र की बनी हुई झोली और कंथा से तो कंधे को भार ही मारना है। सदा पास में रखने योग्य तो यह वस्त्र निर्मित स्थूल झोली कंथा नहीं है। हे लोहा पांगल! तथा अन्य मण्डली के लोगों तुमने योग की खबर तो जानी नहीं अर्थात् योग का मार्ग तो जाना नहीं तो फिर घरबार, स्त्री को क्यो छोड़ दिया।
ले सूई धागा सीवण लागा, करड़ कसीदी मेखलियों। जड़ जटा धारी लंघै न पारी, बाद विवाद बे करणों।
सूई धागा ले करके वस्त्र की सिलाई करने लगे तथा सिलाई करते करते अनेकों प्रकार का कसीदा निकालकर एक मेखलिया जो काख में दबाकर रखा जाता है जिसमें सुलफा गांजा आदि रखा जाता है बना दिया है। सूई द्वारा धागों से उलझन पैदा कर दी है किन्तु तुम्हें तो जगत, माया , जीव, ईश्वर की उलझन को सुलझाना था। किन्तु उल्टा कार्य करते हुए समय का दुरूपयोग ही किया है। केवल जटाएं बढ़ा कर जोगी, तपस्वी कहलाने से तो पार नहीं उतर सकता , जब तक व्यर्थ का वाद विवाद तर्क-वितर्क करते हुऐ कुकर्म में ही प्रवृत्त रहेगा। ,,
थे वीर जपो बेताल धियावो, कांय न खोजो तत कणों।
आप लोग भूत, प्रेत, भेरू , बेताल आदि का जप ध्यान करते हो तथा अपने को योगी सिद्ध कहते हो, किन्तु उस परमात्मा तत्व को क्यों नहीं खोजते? तत्व प्राप्ति बिना अपने को योगी कहना यह तो पाखण्ड है, जो पाप का मूल है।
आयसां डंडत डंडूं मुंडत मूंडूं, मुंडत माया मोह किसो। भरमी वादी वादे भूला, कांय न पाली जीव दयों।
हे आयस्! आपने हाथ में डंडा ले लिया है इससे तो हाथ को दण्ड मिला है किन्तु चंचल मन को तो दण्डित नहीं किया। इस सिर को तो मुंडवा लिया किन्तु मन को तो मुण्डित नहीं किया। यदि मन को मुंडित करते तो फिर मोह-माया में नहीं फंसते। आप लोग मोह-माया में फंसे हुए होने से भ्रम से भ्रमित होकर वाद विवाद करते हो, जिससे तुम्हारी श्रद्धा समाप्त हो गयी है। इसलिये जीवों पर दया भाव भी नहीं रहा। निर्दयी होकर जीवों का संहार करना प्रारम्भ कर दिया है योगी होकर फिर ऐसा क्यों और यदि ऐसा ही करना है तो फिर योगी कैसे हो सकते हो।
√√ सबद-45 √√
ओ३म् दोय मन दोय दिल सिवी न कंथा, दोय मन दोय दिल पुली न पंथा। दोय मन दोय दिल कही न कथा, दोय मन दोय दिल सुणी न कथा।
भावार्थ- संकल्प विकल्पात्मक मनः, मन का स्वभाव, संकल्प तथा विकल्प करना है। जब तक मन एक विषय पर स्थिर नहीं होगा तब तक कोई भी कार्य ठीक से नहीं हो सकेगा तथा इसके साथ साथ दिल अर्थात् हृदय में जब तक कोई बात स्वीकार नहीं होगी तब तक वह कभी भी कुशलता से परिपूर्ण नहीं हो सकता। इस बात को लोहापांगल के प्रति बतला रहे हैं। दोय मन तथा दोय दिल से किया हुआ कार्य गुदड़ी की सिलाई का कार्य भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकता। उसी प्रकार से द्विविधा वृति से अचेतनावस्था में तो मार्ग भी पथिक भूल जाता है तथा दोय मन तथा दोय दिल से कथाकार कथा भी नहीं कह सकता और न ही श्रोता लोग श्रवण कर सकते।
दोय मन दोय दिल पंथ दुहेला, दोय मन दोय दिल गुरु न चेला। दोय मन दोय दिल बंधी न बेला, दोय मन दोय दिल रब्ब दुहेला।
दोय मन दोय दिल से तो पन्थ भी दुखदायी हो जाता है क्योंकि पन्थ पर चलना चाहता नहीं जबरदस्ती चलाया जा रहा है। गुरु तथा शिष्य की एकता बिना न तो गुरु ज्ञान दे सकता और न ही शिष्य ले ही सकता है। जब एक मन तथा एक दिल होगा तभी प्रेम श्रद्धा का उदय होगा और यही ज्ञान ग्रहण करवाने में हेतु है। एकाग्रता के विना समयानुसार उठना, बैठना, चलना, कार्य विशेष करना भी नहीं हो सकेगा अर्थात नियमित जीवन नहीं जी सकेगा। दुविधा वृति से तो परमात्मा का स्मरण भी नहीं हो सकेगा।यदि हठात् माला लेकर बैठ भी जायेंगे तो आनन्द दाता परमात्मा का स्मरण नहीं होगा किन्तु दुखदायी हो जायेगा।
दोय मन दोय दिल सूई न धागा, दोय मन दोय दिल भिड़े न भागा। दोय मन दोय दिल भेव न भेऊं, दोय मन दोय दिल टेव न टेऊं।
मन तथा दिल इन दोनों की एकता-शांति बिना तो सूई में धागा भी नहीं पिरोया जा सकता तथा योद्धा लोग भी युद्ध के मैदान में पहुंच जाते हैं परन्तु जब तक घर, स्त्री , परिवार की मोह माया में वृति लगी है तब तक न तो वे ठीक प्रकार से युद्ध कर सकते और न ही भाग सकते। बीचो बीच में पड़कर जीवन को नष्ट कर लेते हैं। एकाग्र वृति के विना तो किसी प्रकार का रहस्य भी नहीं जाना जा सकता और न ही व्यवहार में किसी के मन की बात उसका भेद विचार जाना जा सकता तथा उसी प्रकार से ही द्विधा वृति यानि द्वेष भाव से न तो आप किसी की प्रेम भाव से सेवा कर सकते और न ही किसी से करवा सकते।
दोय मन दोय दिल केल न केला, दोय मन दोय दिल सुरग न मेला।
कुछ समय के लिये मनोरंजन के लिये खेल भी द्विविधा वृति से अर्थात् निश्चित हुए बिना नहीं खेला जा सकता और न ही खेल में आनन्द आयेगा तथा यदि स्वर्ग या मुक्ति चाहते हो तो भी एकाग्रता की परम आवश्यकता है। केवल लोक प्रतिष्ठा के लिये हाथ में माला या आसन मुद्रा से तो द्विविधा वृति बनी रहती है। उससे यह जीवन दुखमय होकर रह जायेगा, न तो स्वर्ग है और और न ही परमात्मा से मिलान संभव है।
रावल जोगी तां तां फिरियो, अण चीन्हैं के चाह्यो। कांहै काजै दिसावर खेलो, मन हठ सीख न कायों।
हे जोगियों के रावल! तुम लोग कहां कहां भटके हो तथा क्यों भटके हो, क्या चाहते हो , यदि कुछ बिना साधना स्मरण जप तप के ही केवल निरंतर भ्रमण द्वारा ही सभी कुछ चाहते हो तो यह तुम्हारी बड़ी भूल होगी। किसलिये दिशावरों में जाकर पाखण्ड का खेल रचते हो? यह शरीर यात्रा तो बिना पाखण्ड के ही चलती रहेगी। तुम्हें भ्रमण काल में भी किसी गुणी सतगुरु के पास बैठकर सीख पूछनी चाहिये थी किन्तु तुमने मन के हठिले स्वभाव के कारण कभी भी किसी से भी अच्छी सीख नही पूछी तो फिर भटकना व्यर्थ ही सिद्ध हुआ।
थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या, गुरु न चीन्हों रायों। कण विन कूकस कांये पीसों, निश्चय सरी न कायों।
न तो आप लोग योग को पूर्णतया सिद्ध करके योगी बन सके और न ही पूर्णतया भोग सके तथा गुरु की शरण ग्रहण करके परमात्मा विष्णु का स्मरण एवं भक्ति भी नहीं कर सके तो तुम्हारा यह अमूल्य जीवन कण-धान से रहित कूकस को ही पीसता है। उस भूसे से ही धान निकालता रहा, ऐसा क्यों किया? निश्चित ही तुम्हारा कार्य सिद्ध नहीं होगा। अर्थात् न तो तुम भूसे के अन्दर से धान निकाल सके और न ही इस साधन रहित भ्रमण शील जीवन से कण तत्व की प्राप्ति हो सकेगी।
बिण पायचियें पग दुख पावै, अबधूं लोहै दुखी सकायों। पार ब्रह्म की सुद्ध न जांणी, तो नागे जोग न पायो।
हे अवधूं! तुमने पावों में जूते नहीं पहन रखे हैं, इनके बिना तुम्हारे पैर दुख पा रहे हैं। यही इस मिथ्या त्याग का फल है और तुम्हारा लोहे से निर्मित कच्छ भी कम दुखदायी नहीं है। फिर अपने को सिद्ध किस आधार पर कहते हो। योगी या सिद्ध भी क्या कभी दुख का अनुभव करता है ? जब तक परब्रह्म परमात्मा की सुधी निरंतर नहीं रहेगी तब तक नंगे रहने से कोई योगी नहीं बन जाता है।
सबद-46
ओ३म् जिहिं जोगी के मन ही मुद्रा, तन ही कंथा पिण्डे अगन थंभायो। जिहिं जोगी की सेवा कीजै, तूठों भव जल पार लंघावै। भावार्थ- जिस योगी के मन मुद्रा है , शरीर ही गुदड़ी है और धूणी धूकाना रूप अग्नि को शरीर में स्थिर कर लिया है अर्थात् नाथ लोग कानों में मुद्रा डालते है जो गोल होती है यदि किसी का मन भी बाह्य विषयों से निवृत्त होकर केवल ब्रह्माकार हो जाये अर्थात् ब्रह्म के बाहर भीतर लय के रूप में स्थित रहे तो उसके लिये वही मुद्रा है तथा मुद्रा का अर्थ भी यही है। आत्मा की रक्षा के लिये शरीर रूपी गुदड़ी जिसने धारण कर ली है और परमात्मा की ज्योति रूपी अग्नि को जिसने अन्दर धारण कर लिया है, सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करता है ऐसे महान गुरु योगी में अपार शक्ति होती है। वह शिष्य को पार उतारने में सक्षम है।
नाथ कहावै मर मर जावै, से क्यों नाथ कहावै। नान्ही मोटी जीवां जूणी, निरजत सिरजत फिर फिर पूठा आवै।
तुम अपने को नाथ कहलाते हो फिर भी बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हो तो फिर अपने को नाथ कभी नहीं कहना चाहिये क्योंकि नाथ का अर्थ तो स्वामी, मालिक, परमात्मा, ईश्वर होता है। आप लोग अपने को ईश्वर की बराबरी में रखकर भी छोटी मोटी जीवों की योनियों में बार बार आवागमन करते हो तो ऐसा नाम रखने से भी क्या लाभ है तथा लोगों को भ्रमित क्यों करते हो।
हम ही रावल हम ही जोगी, हम राजा के रायों। जो ज्यूं आवै सो त्यूं थरपां, सांचा सूं सत भायों।
हे लोहापांगल! मैं ही रावल हूं, मैं ही योगी हूं तथा मैं ही राजाओं का राजा भी हूं इसलिये मेरे यहां सभी वर्गों के लोग आते है। जो भी जिस विचार भावना, कार्य , शंका को लेकर आता है, मैं उसी को उसकी भाषा में, शैली, काल अनुसार वैसा ही ज्ञान , उपदेश, धन , दौलत, सुख शांति प्रदान करता हूं। मैं ही राजाओं का भी राजा हूं। योगियों का भी शिरोमणि योगी हूं। मेरे पास सभी कुछ विद्यमान है तथा मुक्त हाथों से वितरण भी करता हूं। किन्तु जो सच्चे लोग है वे मुझे अति प्रिय है। उन्हें मैं सांसारिक सुख शांति के अतिरिक्त मोक्ष भी देता हूं जो दूसरों के लिये अति दुर्लभ है।
पाप न छिपां पुण्य न हारा, करां न करतब लावां बारूं। जीव तड़े को रिजक न मेटूं, मूवां परहथ सारूं।
मानव पूर्व जन्मों के कर्मों को लेकर इस संसार में आता है तथा अपने कर्मों का फल ही यहां पर भोगता है। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि मेरे पास बहुत लोग आते हैं किन्तु मैं उनके न तो पाप को छिपाता हूं और न ही पुण्य का हरण करता हूं अर्थात् उन्हें पाप-पुण्य कर्मो के फल भोगने की पूरी स्वतंत्रता है। उनके अपने निजी जीवन में दखल देना नहीं चाहता। उन्हें अपने कर्मों के फल का भुगतान पूरा करवा देता हूं। मैं ऐसा कर्तव्य करना नहीं चाहता जिससे उनके कर्म फल शेष रह जाये और वापिस जन्म-मरण के चक्र में आना पड़े। इसलिये मेरे द्वारा ज्ञान ग्रहण दशा में भी यदि दुख आता है तो उन्हें रोकना ठीक नहीं है। आयेगा तो चला जायेगा यदि ठहरेगा तो बार-बार विपत्ति पैदा करेगा। इसीलिये जीव के लिये जैसा विधान हो चुका है उसको मैं नहीं मिटाता। जीवन काल में तो यह अवसर स्वयं जीव के हाथ में है परन्तु मृत्यु के पश्चात् तो यह जीव दूसरे के हाथ चला जायेगा। फिर कुछ भी नहीं कर सकेगा।
दौरे भिस्त बिचालै ऊभा, मिलिया काम सवारूं।
इस संसार में जीवन धारण करने वाले लोग स्वर्ग और नरक के बीच में खड़े हुए हैं चाहे तो स्वर्ग की और प्रस्थान कर सकते है और यदि चाहे तो नरक की तरफ भी जा सकते है। किन्तु मनमुखी तो नीचे की ओर ही जायेगा यह निश्चित ही है और जो मेरे से आकर मिलेगा उसका कार्य तो मैं सिद्ध कर दूंगा अर्थात् स्वर्ग या मोक्ष की ओर प्रस्थान करवा दूंगा
√ सबद-47 √√
ओ३म् काया कंथा मन जो गूंटो, सीगी सास उसासूं। मन मृग राखले कर कृषाणी, यूं म्हे भया उदासूं।
भावार्थ- वस्त्र से बनी हुई भार स्वरूप कंथा रखना योगी के लिये अत्यावश्यक नियम- कर्म नहीं है तथा गले में गूंटो हाथ में सीगी रखना तथा बजाना कोई नित्य नैमितिक कर्म नहीं है तथा क्योंकि यह तुम्हारा पंचभौतिक शरीर ही कंथा गुदड़ी है जो आत्मा के उपर आवरण रूप से स्वतः ही विद्यमान है तथा तुम्हारा यह चंचल मन जब स्थिर हो जायेगा तो हृदयस्थ गूंटा ही होगा। मन की एकाग्रता को ही गूंटो मान लेना और तुम्हारा श्वांस प्रश्वांस ही सीगी है। जो सदा ही बजती रहती है। तुमने केवल बाह्य प्रतीकों को ही सत्य मान रखा है। असलियत से दूर हट गये है इस प्रकार से इस मन रूपी चंचल मृग से स्वकीय साध्धना रूपी खेती की रक्षा करना तभी तुम्हारा योग रूपी फल पककर सामने आयेगा। इसलिये मैने तो इन आन्तरिक योग के चिह्नों को धारण कर लिया है जिससे बाह्य चिह्नों से उदासीन हो चुका हूं।
हम ही जोगी हम ही जती, हम ही सती, हम ही राखबा चीतूं। पंच पटण नव थानक साधले, आद नाथ के भक्तूं।
जो बाह्य चिह्नों से उदासीन होकर केवल आन्तरिक चिह्नों को धारण करेगा वही सच्चा योगी होगा। वही पूर्ण यती होगा और वही सती तथा समाधिस्थ होकर ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाला होगा। हे योगी! मैने तो यह सभी कुछ धारण कर लिया है। इसलिये मैं अपने को योगी, यति , सति तथा सिद्ध पुरूष कह सकता हूं। किन्तु हे अनादि नाथ के भक्त! तुम्हारे में अभी ये लक्षण नहीं आये है। यदि तुम्हें भी सच्चा योगी बनना है तो सर्वप्रथम तो पांच प्राणों की गति अवरोध कर क्योंकि ये पांच ही शरीर को जीने की शक्ति देते हैं। ये जब निकल जाते हैं तो यह शरीर मृत हो जाता है इसलिये ये पट यानि श्रेष्ठ है। जब प्राणों की गति में प्राणायाम द्वारा अवरोध्ध होगा तब इनसे जुड़े हुऐ मन, बुद्धि, चित, अहंकार स्वतः ही शांत हो जायेंगे तथा इन चतुर्विध्ध अन्तःकरण से जुड़ी हुई पांच ज्ञानेन्द्रियां भी साधित हो जायेगी। इसलिये पांच पटण एवं नव थानकों की साधना करनी होगी।
दोहा‘‘
जोगी सतगुरु यूं कहै, वाता तणा विवेक। सतगुरु हमने भेटियों, दर्षन किया अलेख।
वह जोगी दूत बनकर आया था, , कहने लगा-हे महाराज! वे हमारे लक्ष्मण नाथ तो बड़े विवेकी है। उन्होंने हमें ज्ञान बताया है। इसलिये हमने सतगुरु परमात्मा का दर्शन कर लिया है। तब गुरु जाम्भोजी ने सबद द्वारा इस प्रकार से बतलाया।
सबद-49
ओ३म् अबधू अजरा जारले, अमरा राखले, राखले बिन्द की धारणा। पताल का पानी आकाश को चढ़ायले, भेंट ले गुरु का दरशणा।
भावार्थ- हे अवध्धूं! जो तुम्हें नित्य प्रति जलाने वाला काम, क्रोध, मोह, राग-द्वेष आदि ये तुम्हारे अब तक जले नहीं है। समाप्त नहीं हुए है। अब इनको तूं जला कर भस्म कर दे। तब तुम्हारा अन्तःकरण पवित्र होगा। अमरा राखले अर्थात् दया, प्रेम , करूणा, नम्रता, शील आदि सद्गुणों को धारण कर ले। इनको सदा ही अमर रख ले। कभी भी इनसे विछोह न हो। इतना रखने के पश्चात् योगी की मुख्य अमूल्य वस्तु है ब्रह्मचर्य की रक्षा करना वह भी यत्न करके अर्थात् ऊध्र्वरत ब्रह्मचारी हो जा। ब्रह्मचर्य सदा ही नीचे की ओर बहता है, यह तो इसका स्वभाव है तथा इनका स्थान भी नीचे ही है। इसे सहस्रार ऊध्ध्र्व की ओर चढ़ाने का प्रयत्न करें। इस ऊर्जा शक्ति का अपव्यय रोककर इसे परमात्मा के दर्शन में सहायक बना अथवा ये तुम्हारी वृतियां है ये सदा ही नीचे विषयों की तरफ भटकती है इन्हें इन विषयों से ऊपर उठाकर परमात्मा की तरफ स्थिर करेगा तो सद्गुरु परमात्मा का दर्शन स्वतः ही हो जायेगा। योगी के लिये तो परमात्मा का दर्शन करना ही प्रथम कर्तव्य है।
√√ शब्द -50 √√
ओ३म् तइयां सासूं तइया मासूं, तइया देह दमोई। उतम मध्यम क्यूं जाणिजै, बिबरस देखो लोई।
भावार्थ- जब तक योगी की दृष्टि में स्त्री-पुरूष का भेदभाव विद्यमान रहेगा तब तक वह सच्चा योगी सफल योगी नहीं हो सकता। जब तक सर्वत्र एक ज्योति का ही दर्शन करेगा तो फिर भेद दृष्टि कैसी? और यदि भेददृष्टि बनी हुई है तो फिर वह योगी कैसा। इसलिये कहा है-कि जो श्वांस एक पुरूष में चलता है वही स्त्री में भी चलता है तथा जो मांस एक पुरूष के शरीर में है वही स्त्री में भी है और यह पंचभौतिक देह स्त्री पुरूष दोनों की बराबर है तथा जीवात्मा में भी कोई भेद नहीं है। परमात्मा का अंश प्रतिबिम्ब रूप जीव भी सभी का एक ही है। तो फिर अपने को योगी कहते हुऐ भी उतम और मध्यम क्यों जानता है। स्त्री को मध्यम अदर्शनीय क्यों कहता है?हे लोगों! अब आप ही विचार करके देखिये।
जाकै बाद विराम बिरासों, सरसा भेला चालै, ताकै भीतर छोत लकोई।
यह भेद दृष्टि क्यों है? क्योंकि जिस योगी को अब तक व्यर्थ के विवाद द्वारा विजय की लालसा, साधना रहित, निष्क्रिय जीवन जीते हुऐ विषयों में रमण, अपनी प्रसिद्धि और धन के लिये योग का झूठा दिखावा या नाटक करना तथा संशय की निवृत्ति न होना, प्रत्येक विषय में ही रस लेना इत्यादि भूलों में ही जीवन व्यतीत होगा तो उसके भीतर यह भेदभाव, छोटे-बड़े स्त्री-पुरूष अन्दर छुपी हुई रहेगी इस भेद दृष्टि को मिटा नहीं सकता। इसलिये समान दृष्टि के लिये इन ऊपर के एक एक दोषों को बाहर निकालना ही होगा।
जाकै बाद विराम बिरासों सांसो,सरसा भोलो भागो, ताकै मूले छोत न होई।
और जिस सच्चे योगी के बाद विराम, विरासों, संशय, सरसपना तथा यह भोलापन मिट जाता है उसके मूल में कभी छोत भेदभाव दृष्टि नहीं हो सकती। तुम्हारे लक्ष्मणनाथ की भेद दृष्टि अब तक निवृत्त नहीं हुई है इसलिये पूर्ण योगी भी नहीं है।
दिल दिल आप खुदायबन्द जाग्यो, सब दिल जाग्यो सोई। जो जिंदो हज काबै जाग्यो, थल सिर जाग्यो सोई।
इस समय प्रत्येक दिल रूपी हृदय में वह सोई हुई जीवात्मा जागृत हो गई है उनके सुषुप्त संस्कारों को जागृत कर दिया जाता है तथा उन सोई हुई जीवात्माओं के रूप में वह स्वयं परमेश्वर ही था और अब जागृत होने वाला भी वही परमात्मा ही है। अब ये लोग परमात्मा के समिपस्थ होने से सचेत हो चुके है। इन्हें आप ठग नहीं सकते तथा जो महापुरूष कभी हज काबै में जागृत हुआ था, परमात्मा से साक्षात्कार किया था, वही परमात्मा जागृत होने वाला अब यहां सम्भराथल पर जगाने आया है। इसलिये यह सम्भराथल पर स्थित पुरूष स्वयं जागृत है तथा अनेकानेक लोगों को जागृत किया है।
नाम विष्णु के मुसकल घातै, ते काफर सैतानी।
विष्णु नाम जपने वालों को जो अड़चन पैदा करता है वे या तो काफिर-नास्तिक है या फिर जोर जबरदस्ती करने वाले शैतान है, ऐसे लोगों से बचकर रहना ही श्रेष्ठ है।
हिन्दू होय कर तीरथ धोकै, पिण्ड भरावै तेपण रह्या इवाणी। जोगी होय के मूंड मुंडावै, कान चिरावै, गोरख हटड़ी धोकै। तेपण रह्या इवाणी, तुरकी होय हज काबो धोकै, भूला मुसलमानों।
हिन्दू होकर भी जो घर बैठा बैठा ही तीर्थों को धोक लगाता है अर्थात् प्रणाम कर लेता है तथा गयाजी में जाकर मृत्यु के पश्चात् गया जी में परिवार के लोग पिण्ड दान करते हैं उस मृतात्मा को स्वर्ग में भेजना चाहते हैं। ऐसे पाखण्ड में रत होकर फिर भी अपने को हिन्दू कहते हो। ऐसे हिन्दू बनने से तो कोई लाभ नहीं है। वे तो खाली ही रह गये। न तो घर में बैठे हुए तीर्थों की धोक लगाने से लाभ होगा और न ही पिण्ड भराने से ही मुक्ति मिल सकेगी। हिन्दू का कर्तव्य यहीं पर ही समाप्त नहीं हो जाता। तथा योगी होकर भी सिर मुंडा लेते हैं कान चिरवा करके मुद्रा डाल लेते हैं और कोई योगिक साध्धना तो करते नहीं किन्तु गोरख नाथ जी के धूंणें पर ही जाकर पूजा-प्रणाम कर लेते हैं। ऐसे योगी भी भूल में ही है जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। उसी तरह मुसलमान भी हज काबै की ध्धोक लगा लेते हैं। इन तीनों की न तो तीर्थ, गोरख हटड़ी और काबै की हज रक्षा करती। यदि ये ऐसे समझते है तो भारी भूल में है।
के के पुरूष अवर जागैला, थल जाग्यो निज बाणी। जिहिं के नादे वेदे शीले शब्दे, लक्षणें अन्त न पारूं। अंजन मांही निरंजन आछै, सो गुरु लक्ष्मण कंवारूं।
इस धरती पर कई तरह के और भी पुरूष जागेंगे। उनका जागृत होने का अपना एक भिन्न ही तरीका होगा वह तो भविष्य ही बतायेगा। यह जागृत होने की धारा सदा ही चली आई है। उसी प्रवाह में ही इस सम्भराथल पर अपनी सबदवाणी के सहित गुरु जाम्भोजी कहते है कि मैं आया हूं। अन्य अवतारी पुरूषों में तो कोई एक विशेषता रही होगी किन्तु इस समय सम्भराथल पुरूष के तो इस वाणी में विशेषतः अनहद
अनहद नाद विद्या का बखान, वेद के विस्तृत ज्ञान की चर्चा शीलता, नम्रता आदि गुणों का, नाद विद्या का बखान इत्यादि सुन्दर लक्षणों का अन्त पार ही नहीं है तथा जैसा भी मैं शब्दों द्वारा बखान करता हूं। वह मेरा अपना निजि अनुभव ही है। प्रथम तो मैं किसी बात को अनुभव रूपी तराजू से तोलता हूं, फिर दूसरों को कहता हूं। मुझे इन गुणों को धारण करने में कोई कठिनाई भी नहीं होती क्योंकि इस शरीर रूपी अंजन माया में ही वह निरंजन माया रहित ज्योति ही प्रकाशित है इसलिये मैं ही वही लक्ष्मण कुमार हूं जो विष्णु के अंश रूप से अवतार प्रसिद्ध है तथा हे आयस्! इन सद्गुणों से विभूषित ही लक्ष्मण कुमार हो सकता है।
शब्द-51
ओ३म्- सप्त पताले भुय अंतर अंतर राखिलो, म्हे अटला अटलूं। अलाह अलेख अडाल अजूनी शिंभू, पवन अधारी पिंडजलूं। भावार्थः- इस शरीर के अन्दर ही सप्त पाताल है जिसे यौगिक भाषा में मूलाधार चक्र, जो गुदा के पास है इनसे प्रारम्भ होकर इससे ऊपर उठने पर नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र है इससे आगे हृदय के पास मणिपूर चक्र, कण्ठ के पास अनाहत चक्र, भूमण्डल में विशुद्ध चक्र तथा भूमण्डल से ऊपर आज्ञाचक्र है। इन छः पाताल यानी नीचे के चक्रों को भेदन करता हुआ सातवें सहस्त्रार ब्रह्मरंध्र में प्राण स्थित हो जाते हैं तब योगी की समाधि लग जाती है। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणें को इन सात चक्रों के अन्दर ही रख लिया है। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना है। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र में प्राण स्थित हो जाते हैं तब योगी की समाधि लग जाती है। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणों को इन सात चक्रों के अन्दर ही रख लिया है। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र से झरते हुए अमृत का पान करते हैं फिर मुझे आवश्यकता अन्न की नहीं है। इसीलिए में स्थिर होकर यहां पर बैठा हुआ हूँ। यह पृथ्वी और जल का बना हुआ शरीर अवश्यमेव जल और अन्न की मांग करेगा किन्तु प्राणों को जीत करके समाधि में स्थित हो जाने पर तो फिर शरीर से ऊपर उड़कर यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप जो अलाह, अलेख, अडाल, अयोनी, स्वयंभू के रूप में ही स्थित हो जाती है, यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। काया भीतर माया आछै, माया भीतर दया आछै। दया भीतर छाया जिहिकै, छाया भीतर बिंब फलू। क्योंकि इस पंचभौतिक शरीर के भीतर ही माया है अर्थात् माया प्रकृति शरीर के कण-कण में समायी हुई है क्योंकि माया से ही यह शरीर निर्मित है। उसी शरीर रूपी माया के अन्दर हृदय है। वही इसी शरीर के अन्दर ही है। उसी हृदय में भी माया की छाया है क्योंकि स्वयं माया तो स्थूल शरीरस्थ है किन्तु उसकी छाया हृदयरूपी अन्तःकरण पर अवश्य ही पड़ी है। उसी माया की छाया में ढ़का हुआ वह परमपिता परमात्मा का प्रतिबिम्ब रूप आत्मा स्थित है। वही फल रूप है, उसी फल की प्राप्ति के लिए प्रथम तो ज्ञान द्वारा माया का छेदन होगा तो उसकी छाया भी निवृत हो जायेगी, फिर आत्म साक्षात्कार होगा। पूरक पूर पूर ले पोण, भूख नहीं अन जीमत कोण। यही आत्म साक्षात्कार और माया का भेदन मैनें प्राणायाम द्वारा किया है। पूरक, रेचक, कुम्भक इन्हीं विधि से प्राणों को अपने अधीन कर लिया है। अब मुझे भूख ही नहीं लगती तो फिर बताओ, बिना भूख के भी क्या अन्न खाया जाता है | अब यदि में रावण को मार दूं तो भी क्या लाभ तथा लंका को ले लूं तो भी क्या लाभ है। लक्ष्मण भ्राता बिना तो मेरा लड़ना ही व्यर्थ है। कहा हुआ जे सीता अइयो, कहा करूं गुणवंता भइयों। खल के साटै हीरा गइयो। सीता को लेकर अब में करूंगा क्या? तथा सीता हस्तगत करने पर भी मेरा भाई तो मुझे नहीं मिल सकेगा तो उस सीता से भी क्या। हे मेरे गुणवान भाई! अब में अकेला क्या करूं, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। मैनें तो यहां लंका में आकर खली प्राप्त करने के लिए अमूल्य हीरा खो दिया। मेरे लिए लक्ष्मण बिना तो रावण को मारकर लंका तथा सीता पर अधिकार तो खली के समान ही है। कहां तो अमूल्य रत्न हीरारूपी लक्ष्मण तथा कहां यह विजयरूपी तेलविहीन खली। यह तो सौदा घाटे का हो गया है।
शब्द-52
ओ३म्- मोह मण्डप थाप थापले, राख राखले अधरा धरूं। आदेश वेसूं ते नरेसूं, ते नरा अपरं पारूं। भावार्थः- इस विशाल संसार में मनुष्य अपना मोहजाल फैलाता है। यही कहता है कि यह मेरा है और यह पराया है जो मेरा है उसमें मोह हो जाता है यह मुझे प्राप्त हो या मेरे पास ही रहे। एक वस्तु प्राप्त हो जाती है तो फिर दूसरी पर दृष्टि दौड़ाता है। सभी वस्तुयें तो प्राप्त होना असम्भव है तो फिर दुःखी हो जाता है। जम्भदेवजी कहते हैं कि इस मोह के फैलाव को समेट कर मण्डप बना ले। एक जगह परमात्मा में ही एकत्रित कर ले वही तुम्हारे लिए भवन बन जायेगा जो तुम्हें सहारा भी देगा। उसी दिव्य मोह निर्मित भवन के नीचे इन पांच ज्ञानेन्द्रियों सहित मन को स्थिर करो। जब तुम्हारा मोह परमात्मा विषयक हो जायेगा तो वह प्रेम में परिवर्तित हो जायेगा उसी प्रेम में यह मन भी लीन होकर स्थिर हो जायेगा। जब मोह का विस्तार समाप्त हो जायेगा तो फिर मन बेचारा कहां जायेगा इसे भी परमात्मा की छत्रछाया में विश्राम दिखने लग जायेगा। वह चंचल मन अधर होते हुए भी धैर्यवान शांत हो जायेगा। फिर वह इन्द्रियों सहित मन आपके आदेशानुसार चलेगा, बैठेगा, शांत रहेगा। वही नरेश है वही स्वकीय इन्द्रियों का, मन का राजा है तथा वही नर श्रेष्ठ है। जिसकी महिमा का कोई पार ही नहीं है, वही व्यक्ति पूजनीय होता हुआ जीवन को सफल बना लेता है। रण मध्ये से नर रहियो, ते नरा अडरा डरूं। ज्ञान खड़गू जथा हाथे, कोण होयसी हमारा रिपूं। मोह को जीतकर उसको जो सदुपयोग में लगा दे अर्थात् परमात्मा के प्रेम रूपी मण्डप में परिवर्तित कर दे, ऐसा नर ही इस संसार रूपी युद्ध मैदान में संघर्ष करता हुआ भी इससे बाहर हो जाता है। यह संसार दुःख तो मोह में लिप्त प्राणी के लिए ही है। निर्मोही जन तो संसार में जीवयापन करता हुआ भी दुःखों से दूर है। ऐसे जन न तो कभी किसी से डरते हैं और न किसी को डराते ही हैं। इसीलिये हे लक्ष्मण! मैनें तो इस प्रकार की दिव्य अलौकिक ज्ञान रूपी खड़ग हाथ में ले ली है। यह खड़ग हाथ में रहते हुए हमारा शत्रु कौन हो सकता है। आप भी इन लोहे के अस्त्र -शस्त्र को छोड़कर यह ज्ञानरूपी तलवार ही धारण कीजिये, सभी शत्रु स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे |
शब्द-53
ओ३म्- गुरु हीरा विणजे लेहम लेहूं, गुरु ने दोष न देणा। भावार्थः- जो सद्गुरु वह तो हीरों का ही व्यापार करेगा इसीलिए मैनें भी वही किया है अर्थात् ् उतम ज्ञान ही लोगों को दिया है जिससे जीवन में युक्ति सिखलाई। जीवन की कला में प्रवीण करके अन्त में मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। यदि कोई लेना चाहता है तो ले सकता है। यहां पर किसी से कोई भेदभाव नहीं है और यदि इसी प्रकार घर में आई हुई बहती गंगा में स्नान नहीं किया तो फिर गुरु को दोष नहीं देना। पवणा पाणी जमी मेहूं, भार अठारे परबत रेहूं। सूरज जोति परे परे रे, एति गुरु के शरणे। यह दृष्ट अदृष्ट पवन, पानी, धरती, वर्षा, अठारह भार वनस्पति, पर्वत, श्रेणियां सूर्य तथा सूर्य की ज्योति जहां तक पंहुचती है वहां तक तथा उससे भी आगे तक जहां तक शून्य है वहां तक सभी कुछ गुरु ईश्वर परमात्मा के ही शरण में है। इनकी उत्पति, स्थिति और प्रलय गुरु के ही आधीन है। केती पवली अरु जल बिम्बा,नवसे नदी निवासी नाला। सायर एती जरणां। तथा जिस प्रकार से कई छोटे तथा बड़े तालाबों का जल, झरनों का जल एवं अनेकों प्रकार की नदी तथा पुरानी नदियों का जल जिनमें नालों का जल समाहित हो जाता है। यह सभी प्रकार का जल अन्त में नदी द्वार से जाकर समुद्र में ही मिल जाता है और समुद्र उसे अपने अन्दर स्थान दे देता है। उसी प्रकार से ही पर्वत, पवन, पानी आदि सभी उसी परमतत्व रूप गुरु में ही समाहित हो जाते हैं। उसी से ही उत्पति तथा स्थिति भी होती है। क्रोड़ निनाणवे राजा भोगी, गुरु के आखर कारण जोगी। माया राणी राज तजीलो, गुरु भेटीलो जोग सझीलो। पिंडा देख न झुरणा। सृष्टि प्रारम्भ से लेकर अब तक 99 करोड़ राजा जो भोग विलास में लिप्त थे, वे सभी सचेत होकर गुरु की शरण में आये। सद्गुरु ने उनको सदुपदेश दिया जिससे उन्होनें मोहमाया, रानी, राज सभी कुछ छोड़कर योग की साधना की। तपस्या काल में अनेको कष्ट उठाये। शरीर को सुखा दिया किन्तु उस थके हुए शरीर को तथा कष्ट को देखकर परवाह नहीं की। वे लोग भोग की पराकाष्ठा से योग की पराकाष्ठा तक पंहुच गये। कर कृषाणी बेफायत संठो, जो जो जीव पिडै नीसरणा। आदै पहलू घड़ी अढाई, स्वर्गे पहुंता हिरणी हिरणा। सुरां पुना तेतीसां मेलो, जे जीवन्ता मरणों। हे मानव! यदि साधनारूपी खेती करनी है तो हिम्मत धैर्य रख करके बहुत समय तक लगातार कर तभी वह फलदायक होगी। खेती तथा योग, ध्यान, जप साधना दोनों ही समय धैर्य और परिश्रम की मांग करते हैं तथा यह साधना तब तक निरंतर करते रहो जब तक शरीर से प्राण न निकल जाये अर्थात् अन्तिम समय तक। एक शिकारी ने वन में हिरणी को पकड़ लिया था। उस हिरणी ने शिकारी को वचन देकर अपने बच्चों को बहन को सौंपने के लिए पहुंची तथा वापिस अपने बच्चों तथा बहन व पति सहित आकर शिकारी के सामने उपस्थित हो गयी थी। उसने वचन देकर निभाया था। सत्य का पालन करने से अढ़ाई घड़ी में ही वो पूरा परिवार स्वर्ग का अधिकारी बन गया था और शरीर त्याग करके तेतीस करोड़ देवी देवताओं भेंट किया था, उन्होनें अपने वचनों का पालन प्राण देकर भी किया था। इसके फलस्वरूप कहावत है कि अब भी आकाश में नक्षत्रों के रूप में विचरण कर रहे हैं। के के जीव कुजीव, कुधात कलोतर बांणी। बादीलो हंकारीलो, वैभार घणा ले मरणो। इस लोक में सभी तरह के जीव हैं। कुछ सज्जन तो कुछ कुजीव। दुर्जन भी यहीं रहते हैं वे लोग शरीर के अंग-प्रत्यंग से कुघात है, उनकी बनावट ही ऐसी है जिससे वे लोग शुद्ध वाणी भी बोलना नहीं जानते। जब कभी भी बोलते हैं तो कलहकारी वाणी ही बोलते हैं। बात-बात पर व्यर्थ का विवाद उठायेंगे तथा अहंकार का ही पोषण करने वाले कार्यों को बढ़ावा देंगे। ऐसे लोग अत्यधिक भार लेकर ही इस धरती से जायेंगे, पापों के बोझ तले दबे हुए रहेंगे तथा दबे हुए ही चले जायेंगे। मिनखां रे तैं सूतैं सोयो, खूलै खोयो, जड़ पाहन संसार बिगोयो। निरफल खोड़ भिरांति भूला, आस किसी जा मरणो। रे मानव! तूं गहरी निद्रा में सोता रहा, युवावस्था में तैने खुलकर शक्ति का नाश किया। उस शक्ति को तू परमात्मा में लगाता तो अच्छा था किन्तु तुमने अधिकतर ऊर्जा का तो विषयभोगों में नष्ट किया तथा कुछ अवशिष्ट शक्ति को परमात्मा के नाम पर या तो पत्थर की मूर्तियों पर मत्था पटका या फिर पेड़ पौधों पर विश्वास करके अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया। जैसे खेती रहित उजाड़ वन में कोई धान, फल, फूल खोजता फिरे किन्तु वहां फल कहां से मिलेगा। उसी प्रकार इस संसार के विषयों में तु सुख रूपी फल खोजता रहा वहां सुख कहां था। तब यह बतलाओ फिर किस आशा से मृत्यु को प्राप्त कर रहे हो। आगे कौनसा सुख मिलने वाला है जब यहीं पर ही कुछ नहीं किया तो आगे के लिए आशा करना व्यर्थ ही है। बेसाही अंध पड़यो गल बंध, लियो गल बंध गुरु बरजंतै। हेलै श्याम सुन्दर के टोटै, पारस दुस्तर तरणो। हे अंध! तेरी गर्दन में वैसे ही बिना प्रयोजन यह मोहमाया रूपी फांसी पड़ गयी है। तूने देखा नहीं था यदि देखता तो क्यों पड़ती तथा सद्गुरु ने जब गल में फांसी पड़ रही थी तो बताया भी था, सचेत भी किया था किन्तु तुमने परवाह नहीं की अब क्या होगा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने गीता में उद्घोषणा की थी किन्तु तुमने उनकी नहीं सुनी तो अब घाटा तुम्हारा ही पड़ेगा। इस महान घाटे को लेकर तो पार उतरना अति कठिन है। निश्चे छेह पड़ेलो पालो, गोवलवास जु करणों। गोवलवास कमाय ले जिवड़ा, सो सुरगापुर लहणा।। इस मानव देह के रहते हुए यदि नहीं चेतेगा तो निश्चित ही परमात्मा से दूर हो जायेगा फिर कभी मिलन भी दुर्लभ हो जायेगा। गोवलवास अर्थात् घर से दूर अन्यत्र कुछ दिन के लिए निवास जैसी स्थिति आ जायेगी। परिस्थितिवश वापिस घर आना मुश्किल हो जायेगा। इसीलिए यही अच्छा रहेगा कि मानव जीवन में ंरहते हुए इस संसार को ही गोवलवास समझना। इसको ही अपना सच्चा घर समझकर मोह मत बढ़ाना। यहां पर तो कुछ दिन का मेहमान ही मानना तो निश्चित ही अपने घर स्वर्ग से ऊपर परमात्मा के परम धाम में पंहुच सकेगा।
शब्द-54
ओ३म्- अरण बिंबाणे रे रिव भांणै, देव दिंवाणे, विष्णु पुराणे। बिंवा बाणे सूर उगाणो, विष्णु बिवाणे, कृष्ण पुराणे। भावार्थः- यहां पर प्रथम तो सूर्योदय का सुन्दर वर्णन किया है। जैसे आपने देखा ही होगा कि सूर्योदय से पूर्व ही आकाश में पूर्व की और लालिमा छा जाती है तथा ज्योंहि सूर्य प्रगट होता है तो सूर्य की किरणें प्रथम जमीन ऊपर नहीं पड़ती किन्तु वनस्पति पेड़ पौधों पर ही टिकती है। वही अरणी कही सूर्यदेव का विमान है जिनके ऊपर चढ़कर सर्वप्रथम प्रकाशित होता है। सूर्य स्वयं देवता है क्योंकि वह देता है हमसे लेता कुछ भी नही। सभी देवता परमात्मा विष्णु के कार्यकर्ता सेवक है तथा सभी को अलग-अलग पद तथा कार्य सौंपा हुआ है। यह सूर्यदेव परमात्मा विष्णु का दीवान है। दीवान यानी संदेशवाहक का यही कार्य होता है कि वह देश देशान्तर में जाकर खबर पंहुचा दे। इसीलिए सूर्यदेव रोज हमें खबर देने के लिए प्रकाशमय होकर आता है और जगा देता है। स्वयं सूर्य अपनी ज्योति से प्रकाशित नहीं है। उसमें ज्योति तो अनादि पुराण सर्वेश्वर विष्णु की ही है उसी विष्णु का यह प्रतिबिम्ब रूप सूर्य नित्यप्रति उदित होता है। अपने कार्य हेतु परमात्मा विष्णु ने सूर्य को ज्योति प्रदान की है। वह जब चाहे तब वापिस भी ले सकते हैं तथा स्वयं विष्णु ही बिवाण रूप में सूर्य का परम आधार है। प्राचीनकाल में जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी तब सूर्य भी प्रकाशमय नहीं था तब तो इस संसार में अंधकार ही छाया हुआ था। प्रथम सूर्य को प्रकाशित किया फिर जगत की रचना की थी। कांय झंख्यो तैं आल पिराणी, सुर नर तणी सबेरूं। इंडो फूटो बेला बरती, ताछै हुई बेर अबेरूं। हे प्राणी! इस प्रकार से परमात्मा द्वारा भेजा गया यह दीवान रूपी सूर्य जब उदित होता है तो उस समय ब्रह्ममुहूर्त में उठकर तेरे को उस दयालु परमात्मा को धन्यवाद देते हुए, कृतज्ञता प्रकट करते हुए और उनके प्रतिनिधि रूप सूर्य को नवण प्रणाम करना चाहिये था किन्तु तूं सोता ही रहा और यदि जग भी गया तो आल बाल झूठ निंदा भरे वचन बोलने लगा। दिन से रात्रि और रात्रि से दिन रूप में समय व्यतीत हो गया। इस ब्रह्माण्ड में कभी दिन का आवरण छाया रहता है और कभी रात्रि का। यह अण्डे की तरह ऊपर का आवरण सदा ही बना रहता है किन्तु बीच-बीच में सूर्यदेव रात्रि का आवरण भंग करके दिन का चढ़ा देता है और दिन का समाप्त होता है तब रात्रि का आवरण छा जाता है इसी प्रकार बेला व्यतीत होती है। मेरे परै सो जोयण बिंबा लोयण, पुरुष भलो निज बांणी। बांकी म्हारी एका जोती, मनसा सास बिंवाणी। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि हम जैसे अवतारी पुरुषों से परे भी निराकार पुरुष परमात्मा जो ज्योतिस्वरूप से सदा सर्वदा रहता है जिसके सूर्य चन्द्र आदि ही नेत्र है। इनसे वो सदा सर्वदा ब्रह्माण्ड को देखता है तथा उनकी वाणी भी दिव्य अनहद नाद ओंकार ही है। उन ज्योतिस्वरूप ब्रह्म व हमारी एक ही ज्योति है तथा सम्बन्ध भी सदा ही जुड़ा रहता है उस सम्बन्ध को हम मन और श्वांसरूपी बिवाण के साधन से जोड़ते हैं। प्राणवायु तथा मन की गति अति शीघ्र होती है उनसे हम सदा सर्वदा निरन्तर सम्बन्ध स्थापित करा सकते हैं। को अचारी अचारे लेणा, संजमे शीले सहज पतीना। तिहिं अचारी नै चीन्हत कोण, जाकी सहजै चूके आवागवण। कुछ लोग तो उपरोक्त निराकार पारब्रह्म से ज्ञान योग द्वारा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं तथा कुछ लोग सगुण साकार शरीरधारी आचार विचारवान को ही चाहते हैं तथा सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उनके लिए गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि में यहां पर शुद्ध आचार विचारवान, संयमी, शील व्रतधारी सहज विश्वासी यहां पर स्थित हूँ। यदि कोई मेरे से सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं तो इन्ही नियमों को जीवन में अपनाकर मेरे पास आओ, मुझ आचारवान को पहचानो तो तुम्हारा आवागवण सहज ही में मिट जायेगा। इस प्रकार से साकार निराकार ये दोनों ही रूपों के द्वारा मानव गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर सकता है किन्तु सगुण साकार रूप सरल सहज पड़ता है।
शब्द-56
ओ३म्- कुपात्र कूं दान जु दीयो, जाणै रैंण अंधेरी चोर जु लीयो। चोर जु लेकर भाखर चढ़ियो, कह जिवड़ा तैं कैनें दीयो। भावार्थः- कुपात्र को दिया हुआ दान निष्फल ही होता है। जैसे अंधेरी रात्रि में चोर ने ही मानों चुरा लिया है और धन लेकर पर्वत ऊपर चढ़ गया हो। वह धन न तो आप वापिस ही प्राप्त कर सकते हैं और न ही आपने अपनी खुशी से सुपात्र को ही दिया है। इस संसार को छोड़कर जीव जब आगे पंहुचेगा तो उससे पूछा जरूर जायेगा। तब यह कहेगा कि मैनें अपने जीवन में बहुत दान दिया किन्तु उससे फिर यह भी पूछा जायेगा कि तुमने दिया तो अवश्यमेव था किन्तु किसको दिया। यदि सुपात्र को दिया हुआ है तो देना है किन्तु कुपात्र तो जबरदस्ती छीनकर ले जाता है तथा आपका अन्न धन खाकर के अशुभ कर्म करेगा तो उसमें भी आपको भाग जरूर मिलेगा। दान सुपाते बीज सुखेते, अमृत फूल फलीजैं। काया कसौटी मन जो गूंटो, जरणा ढाकण दीजै। इसीलिए दान तो सुपात्र को ही देना चाहिये, वही दान फूलता-फलता है और अमृतमय बन जाता है। जिस प्रकार से अच्छी साफ-सुथरी जोताई-गुड़ाई की हुई उपजाऊ भूमि में समय पर बोया हुआ बीज अनन्त गुण फल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से सुपात्र को दिया हुआ दान भी। जिस सज्जन पुरुष ने अपनी काया को तपस्या रूपी कसौटी पर लगा दी हो, उस कसौटी पारख में काया खरी उतरी हो तथा मन को एकाग्र करके जो ईश्वर ध्यान में मग्न होता है अर्थात् चंचल मन को स्थिर कर लिया हो, अजर जो सदा ही जलाने वाले काम, क्रोध,लोभ,मोह,राग,द्वेष,ईष्र्या आदि को जला दिया हो तथा उनकी राख पर भी संतोष,शांति, दया, कारूण्य रूपी ढ़क्कन लगा दिया हो ताकि फिर कभी प्रगट नहीं हो सके ऐसा ही सुपात्र हो सकता है। यही सुपात्र की परीक्षा है। ऐसे लोगों को दिया हुआ दान अमृतमय फल वाला होता है। थोड़े मांहि थोड़ैरो दीजै, होते नाह न कीजै। जोय जोय नाम विष्णु के बीजै, अनंत गुणा लिख लीजै। सुपात्र अधिकारी को तो आपके पास यदि कम है ज्यादा नहीं है तो भी उसी में से ही थोड़ा ही दे दीजिए, पर्याप्त है किन्तु पास में अन्न, धन, वस्त्र आदि होते हुए ना नहीं कीजिये। यदि सुपात्र कभी अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आपके पास आता है तो आप अपना सौभाग्य ही समझिये। इसी प्रकार से सुपात्र कुपात्र का निर्णय करके आपके द्वारा सुपात्र अधिकारी को दिया हुआ दान विष्णु परमात्मा के अर्पण हो जाता है। वहीं विष्णु समर्पण दान ही अनन्त गुण विस्तार वाला हो जाता है तो उसे स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है, वह सुफल अमिट हो जाता है
शब्द-57
३म्- अति बल दानों, सब स्नानो, गऊ कोट जे तीरथ दानो बहुत करे आचारूं। भावार्थः-‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ अत्यधिक दिया हुआ दान भी सफलीभूत नहीं होता क्योंकि उसमें सुपात्र कुपात्र का विचार किए बिना ही दिया जाता है तथा वह दान केवल इहलोक में यश बढ़ाने के लिए ही होता है तथा सभी तीर्थों में स्नान कर लिया जाय और वहां करोड़ों गऊवें भी दान में दे दी जाय अन्य भी सभी तीर्थों के आचार-विचार विधि-विधान पूर्ण कर लिया जाय तो भी दान का अन्तः पार तो पाया नहीं जा सकता। ते पण जोय जोय पार न पायो, भाग परापति सारूं। घट ऊंधै बरसत बहु मेहा, नींर थयो पण ठालूं। केवल अतिदान के बल पर तो पार नहीं पा सकता अर्थात् सर्वोच्च पद को प्राप्त नहीं कर सकता। मिलेगा तो उतना ही जितना तुमने दिया है। पूर्वजन्म का कर्म ही दूसरे जन्म में भाग्य बनकर आता है। उस सर्वोच्च पद के लिए तो दान के साथ-साथ अन्य उपासना ध्यान आदि क्रियाओं की भी आवश्यकता है। किन्तु तुमने दान रूपी घड़ा तो धारण कर लिया है शरीर रूपी घट तो तुझे दान के प्रभाव से प्राप्त हो चुका है किन्तु उसको तुमने उल्टा कर रखा है। अब चाहे इस पर कितनी ही ज्ञानरूपी वर्षा हो। इसमें एक बूंद भी नहीं गिरेगी तथा जब तक इसमें अमृतमय जल नहीं भरेगा तब तक सुख की आशा तो कदापि नहीं करनी चाहिये। को होयसी राजा दुर्योधन सो, विष्णु सभा महलाणो। तिणही तो जोय जोय पार न पायो, अध विच रहीयो ठालूं। राजा दुर्योधन अति अभिमानी था क्योंकि मद के साधन सभी उसको सुलभ थे। उस दुर्योधन ने भगवान विष्णुरूपी कृष्ण को अपनी सभा में बुलाया था। श्रीकृष्ण को अति निकट से दुर्योधन ने देखा तथा सुना था किन्तु वह पार नहीं पा सका। कृष्ण को अच्छी तरह से जान नहीं सका क्योंकि राज्य मद में मस्त जो था, कैसे जान पाता। इसीलिए दुर्योधन अधविच में ही खाली रह गया अर्थात् न तो कृष्ण परमात्मा को जान ही पाया, न राज्य ही भोग पाया, बीच में मृत्यु का ग्रास बन गया। जपिया तपिया पोह बिन खपिया, खप खप गया इंवाणी। तेऊं पार पंहुता नाहीं, ताकी धोती रही अस्माणी।। तथा अन्य भी जप करने वाले, तप करने वाले तपस्वी इन्होनें भी बिना मार्ग जाने वैसे ही जीवन बर्बाद कर दिया। उन्हें जप का अभिमान, तप का अभिमान था, तो कैसे सद्मार्ग को ग्रहण करते, बिना सद्मार्ग पार भी कैसे पंहुचते। पार तो वे भी नहीं पंहुचे जिनकी धोती आकाश में सूखा करती अर्थात् वे लोग अपने को सिद्ध मानते थे किन्तु सिद्धि भी तो मुक्ति के लिए बाधा ही है। इसीलिए अभिमान वृद्धिकारक सभी कार्य सफलता को प्राप्त नहीं करवा सकते।
शब्द-58
ओ३म्- तउवा माण दुर्योधन माण्या, अवर भी माणत मांणो। तउवा दान जू कृष्णी माया, अवर भी फूलत दानो। भावार्थः- अहंकारी व्यक्ति कभी भी इहलोक तथा परलोक में उन्नति नहीं कर सकता। किन्तु जीवों का यह दुर्भाग्य ही है जो सृष्टि के आदि से लेकर अब तक छोटे से बड़ा मानव अपनी योग्यतानुसार अहंकार करता ही ज्यादा है। जितना अभिमान दुर्योधन ने किया उतना तो और किसी ने नहीं किया। दुर्योधन के अहंकार ने महाभारत करवा दिया था किन्तु अन्य दूसरे छोटे-छोटे लोग भी नित्यप्रति महाभारत करवाते ही रहते हैं। भगवान विष्णुरूपी कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया ने भी इस संसार रूप में फैलाव किया है। उसके बराबर तो अन्य कोई और फैलाव नहीं कर सका। यदि और भी छोटे-मोटे फैलाव उत्पति होती है तो भी कृष्ण की माया के बराबर कहां है? तउवा जाण जू सहस्त्र झूझ्या, अवर भी झूझत जाणों। तउवा बाण जू सीता कारण लक्ष्मण खैंच्या, अवर भी खेंचत बाणों। परशुरामजी के साथ युद्ध करते हुए जितना संघर्ष सहस्त्रार्जुन ने किया था उतना दूसरे नहीं कर सके। वैसे तो संसार के लोग विपतियों से जूझ ही रहे हैं। रावण को मारकर सीता की वापसी के लिए लक्ष्मण ने जितने खींच-खींच करके बाण चलाये थे उतने और कोई नहीं चला सके। कभी -कभी संसार के कमजोर लोक वाक्युद्ध कर लेते हैं किन्तु यह तो सामान्य ही होता है। इनमें अहंकार की ही झलक दिखाई दे रही है तो ये लोग स्थिर कहां रह सके तथा शांति भी प्राप्त नहीं कर सके। जती तपी तकपीर ऋषेश्वर, तोल रह्या शैतानों। तिण किण खेंच न सके, शिंभु तणी कमाणूं। जनकपुर में राजा जनक के यहां सीता स्वयंवर में बड़े-बड़े राजा, जती, तपी, ऋषि तथा उनमें भी श्रेष्ठ महर्षि आये थे। वे सभी अपना-अपना बल तोल कर चले गये थे किन्तु इनमें से कोई भी धनुष उठा नहीं सका था। वे अपना अभिमान, शैतानी लेकर आये थे तो शिव धनुष उनसे कैसे उठता। तेऊ पार पहूंता नांही, ते कीयो आपो भांणों। तेऊ पार पहूंता नांही, ताकी धोती रही अस्माणों। वे लोग इस संसार सागर से पार नहीं पंहुच सके जिन्होनें अपनी ही मनमानी की। न तो वे लोग सद्गुरु की शरण में आये और न ही कभी शुभकर्म ही किया तथा वे सिद्ध लोग जिनकी धोती सिद्धि बल से आकाश में ही सूखा करती थी, वे भी पार नहीं पंहुच सके क्योंकि उनको भी सिद्धि का अभिमान ले डूबा। बारां काजै हरकत आइ्र, अध बिच मांड्यो थांणो। नारसिंह नर नराज नरवो, सुराज सुरवो नरां नरपति सुरां सुरपति। जब नृसिंह अवतार हुआ था, वह तो नरों में श्रेष्ठतम, देवताओं में शूरवीर, मनुष्यों का राजा, देवताओं के भी देवता थे। उन्होनें हिरण्यकश्यपू को मार डाला था, उसी समय प्रहलाद को तेतीस करोड़ देव मानवों के उद्धार का वचन दिया था। उनके वचनानुसार इक्कीस करोड़ तो तीन युगों में प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर के साथ पार पंहुच गये किन्तु 12 करोड़ नहीं पंहुच सके। इस कमी की पूर्ति के लिए गुरु जम्भदेव जी कहते हैं कि मैनें इस पाताल एवं स्वर्ग के बीचों बीच मृत्युलोक में आसन जमाया है। ज्ञान न रिंदो बहुगुण चिन्दो, पहलू प्रहलादा आप पतलीयो। दूजा काजै काम बिटलीयो, खेत मुक्त ले पंच करोड़ी। परमात्मा विष्णु ने प्रथम तो प्रहलाद को अतिकष्ट सहन करवाया तथा हिरण्यकश्यपू से अत्याचार द्वारा प्रहलाद की परीक्षा करवाई। जब परीक्षा में प्रहलाद सर्वगुण सम्पन्न, ज्ञानवान, परोपकारी सिद्ध हो गया तभी विष्णु परमात्मा ने नृसिंह रूप में दर्शन दिया तथा तेतीस करोड़ उद्धार का वचन भी दिया जिनमें पांच करोड़ उसी समय प्रहलाद के साथ ही पार हो गये। प्रहलाद भक्त ने स्वयं का तथा साथ में अन्यों का भी उद्धार किया। सो प्रहलादा गुरु की वाचा बहियो, ताका शिखर अपारूं। ताको तो बैकुंठे बासो, रतन काया दे सोप्यां छलत भंडारू। जो वे लोग प्रहलाद के वचनों के अनुसार चले। प्रहलाद को सद्गुरु स्वीकार किया। उन पांच करोड़ों को तो उसी समय अपार सर्वोच्च शिखर मुक्तिधाम की प्राप्ति हो गयी।, उनको तो अपार आनन्द प्राप्त हुआ। वहां पर पंहुचने पर उन्हें दिव्य रत्न सदृश अलौकिक दूसरी काया प्राप्त हुई तथा उन्हें अमृत से भरे हुए भण्डार सौंप दिये। यहां संसार के लोक एक बूंद अमृतपान के लिए तरसते हैं वह नहीं मिल पाता किन्तु वहां तो भण्डार भरे हुए सौंप दिये गये, जिससे सदैव तृप्ति बनी रहे। तेऊ तो उरवारे थाणो, अई अमाणो,तत समाणो। बहु परमाणो पार पंहुचन हारा। जो प्रहलाद के साथ पार पंहुच गये उनका निवास स्थान यहीं पर मृत्युलोक में ही था वे अपने बीच के ही लोग थे। यहीं रहकर वे लोग तत्व में समा गये, ज्योति से ज्योति मिला ली। इसमें अनेकानेक शास्त्र सुविज्ञजन, पुराण आदि प्रमाण हैं। वे पार तो इसीलिए पंहुचे क्योंकि पार पंहुचने के योग्य थे। लंका के नर शूर संग्रामे घणा बिरामे, काले काने भला तिकंट। पहले जूझ्या बाबर झंट, पड़े ताल समंदा पारी, तेऊ रहीया लंक दवारी। त्रेतायुग में राम रावण युद्ध के समय लंका के राक्षस युद्ध करने में अति शूरवीर राम से विरूद्ध द्वेष भाव युक्त, काले रंग के बेहूदे, एक आंख वाले काने, बड़े ही चतुर चालाक योद्धा थें प्रथम तो उन्होनें राम,लक्ष्मण,बानरी सेना के साथ भयंकर युद्ध किया। युद्ध समय में जब ताल ठोक करके मैदान में उतरते थे तो समुद्र पार तक भयंकर ताल की ध्वनि सुनाई देती थी। वे लोग भी लंका के दरवाजे तक ही समिति रह गए,लंका से बाहर नहीं जा सके। वहीं पर युद्ध के मैदान में ढ़ेर हो गये। खेत मुक्तले सात करोड़ी,परशुराम के हुकम जे मूवा। सेतो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो। त्रेतायुग में परशुरामजी ने अनेकों दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया था तथा राम-लक्ष्मण ने भी राक्षसों का विनाश किया था किन्तु उनमें से जो परशुराम तथा राम की आज्ञा का पालन करने वाले थे। वे सात करोड़ ही बैकुण्ठ को प्राप्त हो सके। क्योंकि वे परमात्मा के प्यारे थे। हरिश्चन्द्र से लेकर राम रावण युद्ध तक इसी बीच में जो प्रहलाद पंथी बिछुड़े हुए जीव थे, वे ही सात करोड़ पार हो सके थे। अन्य तो वापिस जन्म मरण के चक्कर में आ गये। रतन काया दे सौंप्या छलत भण्डारूं, तेऊ तो उरवारे थाणो। अई अमाणो पार पंहुचन हारा। इस लोक से जीवात्मा की विदाई के बाद जब वे पार पंहुच गये तो वहां पर उन्हें रत्न सदृश काया की प्राप्ति हुई और आगे अनेकानेक अमृत से भरे हुए भंडार उनको सौंप दिये गये, क्योंकि वे लोग इस संसार से पार पंहुचने के योग्य ही थे इसीलिए पंहुच गयें उनका भी निवास स्थान यहीं पर ही था। काफर खानो बुद्धि भराड़ो, खेत मुक्त ले नव करोड़ी। राव युधिष्ठिर से तो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो। द्वापर युग में युधिष्ठिर और कृष्ण के समय में कौरव पाण्डवों के बीच में महाभयंकर महाभारत हुआ था, उसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेना समाप्त हो गयी थी। उस समय दुर्योधन की अध्यक्षता में अनेकानेक लोग नास्तिक, बुद्धिहीन कपटी हो गये थे। युद्ध में तो सज्जन दुर्जन सभी मारे जा चुके थे किन्तु युधिष्ठिर और कृष्ण के प्यारे उनकी आज्ञा से चलने वाले नव करोड़ ही पार पंहुचकर मुक्ति प्राप्त कर सके थे। रतन काया दे सौंप्या छलत भण्डारूं, तेऊ तो उरवारे थाणे। अई अमाणो बहु परमाणो, पार पंहुचन हारा। जो इस संसार के जन्म-मरण चक्र से छूट गये उन्हें आगे रतन सदृश दिव्य शरीर की प्राप्ति होती है अमृत से भरे हुए भण्डार सौंप दिये गये। उनका भी यहीं पर मृत्युलोक में ही निवास था, वे हमारे बीच से ही गये हैं। इसमें शास्त्र महाभारत आदि बहुत ही प्रमाण हैं। जो पार होने योग्य थे वे मुक्तिधाम को प्राप्त कर गये। बारा काजै हरकत आई, तातै बहुत भई कसवारूं। पांच,सात,नव मिलाकर इक्कीस करोड़ तो अब तक पार पंहुच चुके हैं किन्तु बारह करोड़ अभी शेष है, जब तक वे नहीं पंहुचते हैं तब तक कमी रह जायेगी। इसी कमी की पूर्ति के लिए मुझे भी आना पड़ा है क्योंकि में पहले वचन दे चुका हूं। अब उस वचन को पूरा करना मेरा कर्तव्य है.
शब्द-60
ओ३म्- एक दुख लक्ष्मण बंधु हइयों, एक दुख बुढ़े घर तरणी अइयो। एक दुख बालक की मां मुइयो, एक दुख औछें को जमवारूं। भावार्थः- भगवान राम उस समय मर्यादा पुरूषोत्तम थे। संसार की सभी मर्यादायें निभाना अपना कर्तव्य समझते थे। इसीलिए एक छोटा भाई अपने बड़े भाई के लिए प्राण न्यौछावर कर दे, वह भी लंका युद्ध जैसी परिस्थिति में तो राम का विलाप करना अति उत्तम ही था। राम पुरुषोत्तम होने से विलाप करना भी अच्छी प्रकार से जानते थे इसीलिए बड़ी खूबी से विलाप किया था। वही यहां पर बतला रहे हैं। राम विलाप करते हुए लक्ष्मण से कह रहे हैं- हे लक्ष्मण! दुनियां में दुःख कई तरह के होते हैं, इनमें से एक तो भयंकर दुःख तब होता है जब भाई की मृत्यु हो जाती है। दूसरा दुःख बूढ़े पुरूष के घर युवती पत्नी आ जाये, ऐसी स्थिति में दोनों ही दुःखी रहते हैं तथा एक तीसरा दुःख छोटे दूध पीते बच्चे की माता का मरण हो जाये तो वह दुःखी होता है, पूरा परिवार दुःखी हो जाता है और एक चैथा दुःख धनवानों, बड़े लोगों के बीच में गरीब आदमी का जीवन। ये सभ्भ दुःख असहनीय है। एक दुख तूटे से व्यवहारूं,तेरे लक्षणे अन्त न पारूं,सहै न शक्ति भारूं। एक पांचवा दुःख यह भी है कि केाई आदमी टूट चुका है, जिसका धार्मिक,नैतिक पतन हो चुका है, उससे व्यवहार मेल-मिलाप रखेगा तो वह सदा ही दुःखदायी है। हे लक्ष्मण! इन महाभयंकर दुःखों से भी यह तुम्हारा दुःख अत्यधिक है। मेरे लिए असहनीय है। तूं यह मेघनाद की भारी शक्ति सहन नहीं कर सका, मूच्र्छित क्यों हो गया, तुमने कौनसा दोष किया था। कैं ते परशुराम का धनुष जे पइयो, कै तैं दाव कुदाव न जाण्यो भइयूं। हे लक्ष्मण! तुमने युद्ध मैदान में कौनसी भूल कर दी। क्या तुमने परशुरामजी द्वारा दिया हुआ धनुष नहीं उठाया। क्या वह महान धनुष इस भयंकर युद्धकाल में पड़ा रहा था तुमने उस मेघनाद के दावों, कुदावों को नहीं समझ सका। क्योंकि राक्षस मायावी होते हैं, अनेकों प्रकार के पैंतरे खेलते हैं। लक्ष्मण बाण जे दहशिर हइयो, ऐतो झूझ हमें नहीं जाण्यो। मैनें तो यही सोचा था कि लक्ष्मण के बाणों से रावण बड़ी आसानी से मारा जायेगा। इतना भयंकर युद्ध होगा, राक्षस काबू में नहीं आयेंगे और लक्ष्मण को शक्तिबाण लग जायेगा, यह मैनें नहीं जाना था। जे कोई जाणे हमारा नाऊं, तो लक्ष्मण ले बैकुण्ठे जाऊं। यदि कोई इस संसार में रहते हुए हमारी तरह ही जानेगा अर्थात् जैसा मेरा और लक्ष्मण का परस्पर व्यवहार है। हमने अपने पिता,माता,भाई,पत्नी के साथ जैसा व्यवहार मर्यादा का पालन किया है ऐसा यदि कोई भी करेगा तो हे लक्ष्मण! में उसको अपने ही समान मानकर साथ में सीधा बैकुण्ठ परमधाम ले जाऊंगा। इस मर्यादा की स्थापना करके जीवों को परमधाम पंहुचाना ही मेरा कर्तव्य है इसीलिए मेरा यहां आना हुआ है। तो बिन ऊभा पह प्रधानो, तो बिन सूना त्रिभुवन थानो। हे लक्ष्मण! तूझे मूच्र्छावस्था आ जाने के बाद तो ये सेनानायक किकर्तव्यविमूढ़ हो गये, कुछ भी करने में असमर्थ हो रहे हैं, और तुम्हारे बिना मेरे लिए तो तीनों भवन ही शून्य हो गये। मेरी समझ में न तो कोई और ऐसा आज्ञापालक अनुज ही इस संसार में है और न ही ऐसा शूरवीर ही है। कहा हुआ जे लंका लइयो, कहा हुओ जे रावण हइयो।
ओ३म्- कै तैं कारण किरिया चूक्यौ, कै तैं सूरज सामो थूक्यो। कै तैं उभै कांसा मांज्या, कै तैं छान तिणूका खैंच्या। भावार्थः- हे लक्ष्मण! तुमने कौनसी क्रिया शुद्ध आचार विचार में चूक कर दी या तुमने सूर्यदेवता को प्रातःकालीन सूर्य नमस्कार न करके सामने थूक दिया अर्थात् अपमानित किया है। क्या तुमने खड़े-खड़े ही भोजन किया तथा खड़े ही कांसा के बर्तन् साफ किये और क्या तुमने किसी गरीब की झोंपड़ी बिखेर डाली। इनमें से कौनसा दोष किया है जिसके कारण तेरे को यह कष्ट आया है। कै तैं ब्राह्मण निवत बहोड्या, कै तैं आवा कोरंभ चोर्या। कै तैं बाड़ी का बन फल तोड़्या, कै तैं जोगी का खप्पर फोड़या। क्या तुमने ब्राह्मण को निमंत्रण देकर फिर भोजन नहीं करवाया। क्या तुमने कच्चे घड़े कुम्हार के चुरा लिये। क्या तुमने बाग-बगीचे से फल बिना पूछे ही तोड़ लिये। क्या तुमने योगी का खप्पर फोड़ दिया। इनमें से कौनसा दोष किया है। कै तैं ब्राह्मण का तागा तोड़्या, कै तैं बेर बिरोध धन लोड़्या। कै तैं सूवा गाय का बच्छ बिछोड़्या, कै तैं चरती पिबती गऊ बिडारी। ब्रह्म के ज्ञाता ब्राह्मण को वस्त्र दान न देकर क्या तुमने उसके वस्त्र ही फाड़ डाले। क्या तुमने अन्य किसी से बैर बिरोध करके धन इकट्ठा किया। क्या तुमने नई ब्याही हुई गाय का बछड़ा अलग कर दिया। अपनी मां के दूध से वंचित करके गौ और बछड़े के प्रति अपराध किया है। क्या तुमने कभी वन में चरती हुई घास खाती या जल पीती हुई गऊ को किसी भयंकर आवाज से डराकर भगा दिया। इनमें से कौनसे दोष तुमने किए हैं। कै तैं हरी पराई नारी, कै तैं सगा सहोदर मार्या। कै तैं तिरिया सिर खड़ग उभार्या, कै तैं फिरतैं दातण कीयो। क्या तुमने कभी किसी परायी स्त्री का हरण किया है। क्या तुमने कभी अपने सगे-सम्बन्धी और सहोदर भाई को मारा है। क्या तुमने अबला स्त्री के सिर ऊपर उसे मारने के लिए तलवार उठायी है। उसे मारने-पीटने-धमकाने की कोशिश की है। क्या तुमने चलते-फिरते हुए दातुन किया है, क्योंकि इस प्रकार दातुन करने से जूठे छींटे शरीर पर पड़ सकते हैं तथा अन्य भी कई हानियां होने की सम्भावना रहती है। कै तैं रण में जाय दों दीयों, कै तैं बाट कूट धन लींयो। किसे सरापे लक्ष्मण हइयूं। क्या तुमने युद्धभूमि में जाकर युद्ध नहीं किया,पीछे भाग आया तथा अपने स्वामी को धोखा दिया है। क्या तुमने कभी जबरदस्ती अपने बाहुबल से किसी को लूटकर धन प्राप्त किया है। हे लक्ष्मण! तो बता तुझे इनमें से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या और कोई शाप लगा है जिस वजह से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गयी। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्द्धमूच्र्छा अवस्था मे सुना था। संजीवनी बूंटी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपने भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रहे हैं।
शब्द-62
ओ३म्- ना मैं कारण किरिया चूक्यौ, ना मैं सूरज सामो थूक्यो। ना मैं उभै कांसा मांज्या, ना मैं छान तिणूका खैंच्या। भावार्थः- लक्ष्मण ने उपर्युक्त अट्ठारह दोषों के प्रश्न का उतर देते हुए कहा- हे राम! ना तो कभी भी भूल करके किसी कारण क्रिया में ही चूक की है, ना ही कभी सूर्यदेव के सामने थूककर अपमान ही किया है, न ही खड़े होकर भोजन करके बर्तन ही साफ किये हैं और न किसी गरीब की झोंपड़ी ही तोड़ी है। ना मैं ब्राह्मण निवत बहोड्या, ना मैं आवा कोरंभ चोर्या। ना मैं बाड़ी का बन फल तोड़्या, ना मैं जोगी का खप्पर फोड़या। न तो मैनें ब्राह्मण को निमंत्रण देकर भूखा रखा है, न ही मैनें कभी कोई कुम्हार का कच्चा घड़ा ही चुराया है, न ही मैनें कभी किसी बाड़ी का फल बिना पूछे तोड़ा है औरे न ही योगी का खप्पर ही फोड़ा है। ना मैं ब्राह्मण का तागा तोड़्या, ना मैं बेर बिरोध धन लोड़्या। ना मैं सूवा गाय का बच्छ बिछोड़्या, ना मैं चरती पिबती गऊ बिडारी। न ही मैनें ब्राह्मण को वस्त्र दान देने से मुख मोड़ा है, सदा देना ही मेरा धर्म रहा है, न ही बैर विरोध द्वारा धन प्राप्त किया अर्थात् अनीति द्वारा धन प्राप्त कभी नहीं किया। न ही मैनें ब्याही हुई गऊ से उसके बछड़े का बिछोह ही किया। ना ही मैनें वन में निद्र्वन्द्व घास चरती पानी पीती गऊ को ही डराकर भगाई हैं ना मैं हरी पराई नारी, ना मैं सगा सहोदर मार्या। ना मैं तिरिया शिर खड़ग उभार्या,ना मैं फिरतैं दातण कीयो। ना मैं रण में जाय दों दीयों, ना मैं बाट कूट धन लींयो। ना तो मैनें परायी स्त्री का हरण किया। ना ही मैनें कभी किसी सगे सम्बन्धी को ही मारा। न ही मैनें किसी स्त्री को मारने के लिए उसके सिर पर घातक तलवार उठाई। न ही मैनें चलते-घूमते बातें करते दातुन ही किया। न ही मैनें युद्ध भूमि में जाकर अपने स्वामी को धोखा देकर वापिस ही भागा और न ही मैनें कभी किसी से अपने बाहुबल से धन ही लूटा। हे राम! इन अट्ठारह दोषों में से तो एक भी दोष कभी भूल करके भी नहीं किया। एक जू ओंगुण रामै कीयों, अणहुंतो मिरघो मारण गइयों। दूजो औगुण रामै कीयों, एको दोष अदोषा दीयों। लक्ष्मण को यदि शक्ति बाण लगने से मूर्छा आ जाती है तो उस स्थिति में भी लक्ष्मण से अधिक दुःख राम को होता है। इसीलिए लक्ष्मण तो किंचित भी विलाप नहीं करते किन्तु राम बहुत ही विलाप करते दिखाई दिये। पाप या दोष का फल दुःख होता है। यहां पर लक्ष्मण से भी ज्यादा दुःख राम को हुआ है। इसीलिए ऐसा मालूम पड़ता है कि दोष लक्ष्मण ने नहीं किये। यदि कोई दोष गलती हुई है तो राम से ही। लक्ष्मण को शक्ति लगना तो राम को उन्हें अपने कर्मों को फल भोगाने के लिए ही थी। असम्भवं हेम मृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय। प्रायः समापन्न विपत्ति काले धीयोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति।। स्वर्ण मृग नहीं हो सकता फिर भी राम के लोभ ने उसकी प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। प्रायः यह देखा गया है कि विपतिकाल में बुद्धिमान मनुष्यों की बुद्धि भी मलीन हो जाती है । इसी बात को गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि उस समय लक्ष्मण ने कहा कि हे राम! मैनें कोई अवगुण नहीं किया है। हां आपने तो पहला दोष नासमझी तो यह की, कि सोने का मृग नहीं हो सकता परंतु आप इतनी सी बात नहीं समझ सके और उसे मारने के लिए दौड़ पड़े तथा दूसरी भूल यह हो गयी कि उस राक्षस की करुणामय पुकार को न तो आप समझ सके और न सीता ही। मुझे सीता माता ने कटु वचन कहे, मैं निर्दोष था। मुझ दोष रहित जन को आपने तथा सीता दोनों ने ही दोष दिया। मैं क्या करता आपकी आज्ञा स्वीकार करता या सीता माता की। सीता ने मुझे विशेष रूप से वचनबाणों द्वारा घायल किया, जिससे मैं आपके पास आ गया, सीता अकेली रह गयी। इसी के कारण सीता हरण हुआ और हमें यहां इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। वन खंड में जद साथर सोइयों, जद को दोष तदों को होईयों। तथा सबसे बड़ा दोष तो हम लोगों का यह था कि वहां वन में हम निवास करते हुए, साथ में रहते हुए भी सचेत नहीं रह सके। हमें मालूम भी था कि यहां पर राक्षसों का भी साथ में ही निवास है तथा उनसे बैरभाव भी मोल ले चुके हैं। हमें निर्भय होकर नहीं सोना था। सदा सचेत रहकर अपनी रक्षा करनी थी, वह हम नहीं कर सके, इसीलिए हमें आज यह दिन देखने को मिला। हम दोनों भाई, जानकी तथा यह वानर सेना सभी विपति में पड़ चुके हैं। थोड़ी सी असावधानी बहुत बड़ी विपति का कारण बनी है। हे राम! उस वनवास समय की भूल ही हमारे दुःख का कारण है। आप चाहे मुझे दोष दें या निर्दोष सिद्ध करें, मुझे स्वीकार है। इन शब्दों द्वारा जम्भेश्वरजी ने रामायण के इस महत्वपूर्ण पहलू का समाधान दिया है। जो एक नयी उद्भावना है तथा युक्तियुक्त मालूम पड़ती है।
शब्द-63
ओ३म्- आतर पातर राही रूक्मण, मेल्हा मंदिर भोयो। गढ़ सोवनां तेपण मेल्हा, रहा छड़ा सी जोयो। भावार्थः- हे सेवकगणों! तुम्हारा यह कहना सत्य ही है कि द्वापर में कृष्णावतार के समय तो ऐसा था। उस समय तो अनेकानेक दास-दासियों से घिरी हुई पवित्रा सौम्या रानी रूक्मणी थी, जो सदा सेवा में संलग्न रहा करती थी और द्वारिका में बड़े-बड़े महल मंदिर मनभावन थे। वह स्वर्णमय दिव्य द्वारिका, रानी रूक्मणी सभी कुछ वहीं छूट गये यानि छोड़ दिये गये। अब में अकेले जैसा ही हूँ। हालांकि यदा कदा कुछ लोग समीपस्थ रहते भी हैं किन्तु फिर भी में अकेला ही हूँ। तथा च- रात पड़ंता पाला भी जाग्या,दिवस तपंता सूरूं। उन्हा ठाढा पवना भी जाग्या, घन बरसंता नीरूं। यह भी कटु सत्य है कि यहां इस देश में रात्रि पड़ते सर्दी प्रारम्भ हो जाती है और सूर्योदय के साथ ही गर्मी प्रारम्भ हो जाती है। यह मरुभूमि की विशेषता है तथा कभी गर्मियों में तो भंयकर लू चलती है तथा सर्दियों में ठण्डी बर्फीली हवायें चलती है और वर्षा ऋतु में कभी भयंकर वर्षा तो कभी सूखा पड़ जाता है। जो भी ऋतु बदलती है वही पूर्णरूेपण अपना प्रभाव जमाती है। इस बदले हुए वातावरण को इस ‘हरि कंकेहड़ी’ के नीचे व्यतीत करना पड़ता है। दुनीतणा औचाट भी जाग्या, के के नुगरा देता गाल गहीरूं। तथा इतने कष्टमय वातावरण में में निवास करता हूं फिर भी यहां के लोग मेरे पास में अपना दुःख दर्द लेकर आते हैं। अनेकों प्रकार की कष्टमय व्यथा कथा मुझे सुनाते रहते हैं। उनके कष्टों का निवारण भी मुझे करना पड़ता है तथा कुछ नुगरे लोग मुझे बहुत ही भद्दी गहरी गाली भी देते हैं। उनकी यह गाली भी मुझे सुननी पड़ती है। जिहि तन ऊंना ओढ़ण ओढ़ां, तिहिं ओढ़ंता चीरूं। जां हाथे जप माली जपां, तहां जपंता हीरूं। मैनें इस शरीर पर जो यह ऊन का भगवा वस्त्र ओढ़ रखा है। कभी इस शरीर पर मलमल के दिव्य वस्त्र ओढ़ा करते थे तथा इस समय मैनें जो यह हाथ में जप करने के लिए काठ की माला ले रखी है कभी राम, कृष्ण समय में हीरों की माला हाथ में रहा करती थी। बारां काजै पड़यो बिछोंहो, संभल संभल झूरूं। राद्यो सीता हनुवंत पाखो, कौन बंधावत धीरूं। मुझे यहां मरुप्रदेश में इस सम्भराथल भूमि पर अनेकों कष्टों का सामना इसीलिए करना पड़ा क्योंकि प्रहलाद के वचनों का पालन करते हुए इक्कीस करोड़ तो पार पंहुच गये तथा बारह करोड़ों का उद्धार करना अब शेष था, वे लोग भाग्यवश इसी क्षेत्र में यत्र तत्र बिखरे हुए हैं इनको खोज करके वापिस परमात्मा के लोक में पंहुचाना है। जब जब भी मुझे यह प्रहलाद वचन याद आता है तो मुझे भी दुःख होता है कि अब तक मैं वचनों को निभा नहीं सका हूं। इसीलिये यहां पर डटा हुआ हूँ। राम को वनवास काल में भी अतिकष्टों का सामना करना पड़ा था। उस समय भी रावणादि राक्षसोें को मारना प्रयोजन था। उस समय तो राम के साथ मंे लक्ष्मण, सीता के अलावा हनुमान जैसा स्वामीसेवक महावीर था। जब कभी अयोध्या की याद आती, कष्टों का अनुभव होता तो ये लोग धैर्य बंधाया करते थे किन्तु यहां पर तो मुझे धैर्य बंधाने वाला कोई नहीं है क्योंकि धैर्य ही दुःख को निवृत्त करता है। मागर मणियां काच कथीरूं, हीरस हीरा हीरूं। विखा पटंतर पड़ता आया, पूरस पूरा पूरूं। ऊपर से देखने पर मगरे की कंकरीली भूमि में मिलने वाले पत्थर के मनके, कांच के मनके (मणिया) कथीर आदि के गहने हीरे के जैसे ही लगते है किन्तु जब विवेकी पुरुष द्वारा परीक्षा की जाती है तो भेद खुल जाता है। हीरा तो हीरा ही रहता है और कांच पत्थर के नकली हीरे अलग हो जाते हैं। उसी प्रकार से जब तक आदमी को कष्ट की परीक्षा नहीं आती तब तक पूर्ण पुरुष या अधूरे पुरुष का पता नहीं चचलता। इसीलिए वियोग तो सृष्टि के आदिकाल से ही होता आया है लेकिन बिछोह दुःख से जो दुःखित न हो, वही पूरा पुरुष है। जे रिण राहे सूर गहीजै, तो सूरस सूरा सूरूं। दुखिया है जे सुखिया होयसैं, करसैं राज गहीरूं। यदि अपनी शूरवीरता दिखानी है तो घर में बैठकर नहीं दिखाई जा सकती। उसे शूरता दिखाने के लिए रणभूमि में ही जाना पड़ेगा तथा वहीं जाकर यदि अन्य शूरवीरों द्वारा सराहनीय होगा तभी वह सच्चा शूरवीर है। उसी प्रकार से धर्मवीर, कर्मवीर, धैर्यवान व्यक्ति की परीक्षा भी तो संकट की घड़ी में ही हो सकती है। जो वर्तमान काल में धर्म सत्य का पालन करते हुए दुःखी दिखाई दे रहे हैं, वे कभी सुःखी होंगे, उन्हें धर्म का फल मिलेगा। आज जो कंगाल है, वे कभी सम्राट बनेंगे, बहुत काल तक अकंटक राज्य करेंगे। प्रकृति का ऐसा ही नियम है। महा अंगीठी बिरखा ओल्हो, जेठ न ठंडा नीरूं। पलंग न पोढण सेज न सोवण, कंठ रूलंता हीरूं। कभी कभी गर्मी ऋतु आती है तो महान अंगीठी की तरह यह जगत संतप्त हो जाता है। वर्षा ऋतु में वर्षा तथा ओले पड़ते हैं और जेठ के महीने ठण्डा पानी नहीं मिलता जबकि वर्षा सर्दी में ओले गिर जाते है।। यही यहां मरुभूमि में होता है इसे हम सभी सहन करते हैं। न तो यहंा पर बैठने के लिए पलंग है और न ही सोने के लिए कोमल शय्या ही है और न ही गले में सुन्दर मोतियों की माला ही है। पहले ये सभी कुछ सुलभ थे। इतना मोह न मानै शिंभु, तहीं तहीं सूसीरूं। इतना वियोग या संयोग होने पर भी हमें इसमें कुछ भी मोह या द्वेष नहीं है क्योंकि जैसा जहां पर सुसीर भाग्य होता वहां हमें भी सभी सुखों को छोड़कर विशेष कार्य के लिए निवास करना पड़ता है। रामावतार के समय में भी यही सभी कुछ सहन करते हुए राक्षसों का विनाश किया था तथा अभी भी ऐसा ही करने के लिए यहां आया हूँ। घोड़ा चोली बाल गुदाई, श्री राम का भाई गुरु की वाचा बहियो। राधो सीतो हनवंत पाखो, दुःख सुख कासूं कहियों। समय परिवर्तनशील है। कभी बाल्यावस्था में राम का भाई लक्ष्मण घोड़ों को दौड़ाया करता था तथा अन्य भी बाल्य विशेष खेल, कूदना, दौड़ना आदि साथ में ही किया करते थे किन्तु समयानुसार परिवर्तन आया और राम को बनवास हुआ। तब लक्ष्मण ने भी अपने भाई का साथ, वे सभी बालसुलभ क्रीड़ाओं को छोड़कर दिया तथा राम को ही परम गुरु स्वीकार करके उनके वचनों पर चला। लक्ष्मण सीता तथा हनुमान ने सदा सुख दुःख में साथ दिया, धैर्य बंधाया। उनके बिना राम को अकेला बनवास काटना दूभर हो जाता। गुरु जम्भदेवजी कहते है। कि यहां मेरे पास में तो ऐसा कोई नहीं है जो धैर्य बंधा सके, सुख दुःख की बात में उनसे कह सकूं। इस प्रकार से झाली रानी के विश्वसनीय सेवकों को यह शब्द सुनाया। इसी शब्द रूपी भेंट तथा झारी, माला, सुलझावणी देकर उन्हें विदा किया। झाली रानी ने ये वस्तुयें सहर्ष स्वीकार की तथा जम्भेश्वरजी के दर्शन की लालसा से जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ समय पश्चात जम्भेश्वरजी ने चितौड़ जाकर झाली को दर्शन दिया। संग्रामसिंह व झाली रानी को शिष्य बनाया और उन विश्नोईयों को सांगा राणा की प्रार्थना पर वहीं उनके राज्य में बसाया। जो अब भी पुर, दरीबा, संभेलिया आदि गांवों में विश्नोई बसते हैं। (पूर्ण विस्तृत कथा के लिए जम्भसार ग्रन्थ पढ़िये)
शब्द-64
ओ३म्- में कर भूला मांड पिराणी, काचै कन्ध अगाजूं। काचा कंध गले गल जायसैं, बीखर जैला राजों। भावार्थः- हे जेतसी! तुम्हारे पिता लूणकरण आदि सैनिक किसी कमजोर को दबा करके राज्य हस्तगत करना चाहते है। यह कोई मानवता नहीं है। ये लोग अपने झूठे अहंकार के कारण वास्तव में अपने को, देश को तथा मानवता को भूल चूके हैं। इसीलिए जबरदस्ती किसी दूसरे के ऊपर बल प्रयोग करते हैं। इनको यह पता नहीं है कि यह कच्चा शरीर प्राप्त हुआ है, इससे अकाज नहीं करना चाहिये क्योंकि मिट्टी के घड़े की तरह ये जल से गल जायेगा अर्थात् समय आने से पूर्व ही यह नष्ट भ्रष्ट हो जायेगा। यदि यह शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर यह राज्य ही कौन करेगा तथा राज्य की भी तो सता स्थायी नहीं है तो फिर ऐसा व्यर्थ का प्रयत्न किसलिये। गड़बड़ गाजा कांय विबाजा, कण विण कूकस कांय लेणा। कांय बोलो मुख ताजो। जब यह सभी कुछ स्थाई रहने वाला ही नहीं है तो फिर यह युद्ध में जाते समय ढ़ोल, तुरही, शंख आदि बाजे किसलिये बजाये जा रहे हैं। ऐसी कौनसी विजय हासिल करने जा रहे हैं क्योंकि जिस विजय प्राप्ति का प्रयत्न किया जा रहा है वह तो सभी कुछ कण के बिना थोथा भूसा घास ही लेना है तो फिर इस निरर्थक घास चांचड़ा के लिए क्यों मुख से कटु अप्रिय झूठे वचन बोलते हो। क्या मुख से बोलने मात्र से ही सफलता मिल जायेगी। भरमी वादी अति अहंकारी, लावत यारी, पशुवां पड़े भिरांति। जीव विणासै लाहै कारणै, लोभ सवारथ खायबा खाज अखाजूं। जो लोग नित्यप्रति युद्ध में ही रत रहते हैं वे लोग सदसद् विवेक रहित, झूठे वाद-विवाद में रत तथा अत्यधिक अहंकारी हो जाते हैं तथा अपने जैसे लोगों से ही मित्रता रखते है। कभी किसी सज्जन पुरुष के पास में भी नहीं बैठते। जिससे पशुओं में भी इनका अपनत्व प्रेम दया भाव नहीं रहतां जिस कारण से आप लाभ के कारण जीवों को मारते है। जिह्ना का रस लोभ, स्वकीय उदरपूर्ति तथा स्वार्थ के लिए अखाद्य पशु जीवों को भी मार कर खा जाते हैं। जब ये लोग पहले पशुओं को मार डालते हैं तो पीछे मनुष्यों को भी मारने में जरा भी दया नहीं करते। जो अति काले लेजम काले तेपण खीणा, जिहि का लंका गढ़ था राजों। बिन हस्ती पाखर बिन गज गुड़ीयों, बिन ढोला डूमां लाकड़ियो। जिसने भी देश, काल, मर्यादा, धर्म का अतिक्रमण किया वह अतिशीघ्र, समय से पूर्व ही यमदूतों के हाथ चढ़कर मृत्यु को प्राप्त हो गया। ऐसे लोग इस संसार में बहुत हो चुके हैं किन्तु उदाहरण के लिए रावण लंका जैसे राज्य से सम्पन्न था। ‘ लंका सो कोट समंद सी खाई’ लंका जैसा कोट समुद्र जैसी खाई थी किन्तु वह भी नहीं बच सका। इतने साधन सम्पन्न व्यक्ति के भी मृत्यु समय में न तो रथ में जुते हुए घोड़े, पाखर कसे हुए हाथी, ढ़ोल बजाने वाले डूम तथा न ही अर्थी के कंधा देने वाले पीछे शेेष बच पाये थे। जाकै परसण बाजा बाजै, सो अपरंपर काय न जंपो। हिन्दू मुसलमानों, डर डर जीव के काजै। हे हिन्दू मुसलमानों! जिस अपरंपर परमपिता परमात्मा के दर्शन, स्पर्श से अनेकों प्रकार के अनहद बाजे बजने लग जाते हैं। उन बाजों को सुनते हुए साधक समाधिस्थ हो जाते हैं, ऐसे बाजों को ही क्यों नहीं सुनते। मृत्यु दुःख से डरते हुए अपने जीव की भलाई के लिए अमृतमय प्रभु परमात्मा की शरण ग्रहण करो। रावां रंका राजा रावां, रावत राजा, खाना खोजां, मीरां मुलकां घंघ फकीरां। घंघा गुरवां सुरनर देवा, तिमर जू लंगा, आयसा जोयसा, साह पुरोहितां। मिश्र ही व्यासां रूंखा बिरखां आव घटंती अतरा माहे कूण विशेषो। मरणत एको माघो। सामान्य राजा, रंक, राजाओं के राजा, सर्वोपरि सम्राट, खान, खोजी, मीर, जमिंदार, गंगा के निवासी फकीर, गंगा गुरु, सुर नर, नरश्रेष्ठ, कौपीनधारी या नंगे सन्यासी, योगी, ज्योतिषी, साहू सेठ, पुरोहित, मिश्रा, व्यास, रूंख, वर्षा इत्यादि सभी की आयु घटती जा रही है। इनमें से काल के सामने किसकी विशेषता है, सभी को काल बराबर क्षीण कर रहा है। बिना भगवद्भक्ति सभी को एक ही मार्ग या तरीके से मरना पड़ेगा। पशु मुकेरू लहै न फेरूं कहे ज मेरूं सब जग केरूं। साचै से हर करै घणेरूं। बंधन से मुक्त हुआ पशु भी फिर बंधन में नहीं आना चाहता तो फिर मनुष्यों को बंधन में कैसे रख सकता है। किन्तु हे मानव! तू कहता है कि यह सम्पूर्ण संसार ही मेरा है, मेरे अधीन ही रहे, मै सदा ही सभी का स्वामी बना रहूं, यह कैसे हो सकता है। इसके लिए तेरे को अत्यधिक संघर्ष करना पड़ेगा फिर भी तू विफल रहेगा। जिस वस्तु को तुम उतम सच्ची मानता है उसकी प्राप्ति की इच्छा अधिक करता है, वह वस्तु प्राप्त होना या न होना तुम्हारे आधीन नहीं है। रिण छाणै ज्यूं बीखर जैला, तातें मेरूं न तेरूं। बिसर गया ते माघू, रक्तूं नातूं सेतूं धातूं कुमलावै ज्यूं शागूं। जो तुम्हें वस्तु प्यारी लगती है वह तो वन में पड़े हुए उपले (छांणे) की तरह ही है जो थोड़े दिन पश्चात ही बिखर जाता है। इसीलिए वह धन दौलत न तो तेरा है और न ही मेरा है। यह तेरा-मेरा कुछ भी नहीं है। ऐसे धन यश लोभी लोग अपने गन्तव्य स्थान जाने के मार्ग को भूल जाते हैं। जिस शरीर को तुम नित्य समझते हो यह तो रक्त, हड्डी, वीर्य आदि सप्तधातुओं से बना हुआ है। जब तक इसको ये वस्तुएं उपलब्ध रहेगी तथा इनके ग्रहण करने की शरीर में योग्यता रहेगी, तभी तक यह जिंदा है नहीं तो वनस्पति की भांति कुम्हलाकर समाप्त हो जायेगा। जीव र पिंड विछोबा होयसी, ता दिन दाम दुगांणी। आड न पैको रती बिसोवो सीझै नाही, ओपिंड काम न काजूं। जिस दिन शरीर और जीव का विछोह होगा, उस दिन यह तेरा धन दौलत रूपये कुछ भी काम नहीं आयेंगे, ये सभी पराये हो जायेंगे। न तो मृत्यु समय में रति, पैसा रूपया सहायता करेगा, न ही ये कोई परिवार का सम्बन्धी ही सहायक होगा तथा यह तेरा पंचभौतिक शरीर भी किसी काम का नहीं रहेगा। एक क्षण भी उस घर में रखने लायक नहीं होगा। आवत काया ले आयो थो, जातैं सूको जागो। आवत खिण एक लाई थी, पर जातैं खिणी न लागो। जब इस संसार में पंच भौतिक शरीर लेकर आया था तो एक क्षण भर का समय लगा था। किन्तु वापिस जाते समय यह काया भी छोड़कर जायेगा और एक क्षण का भी समय नहीं लगेगा। इस संसार में आते समय तो लाभ में था किन्तु छोड़कर जाते समय हानि में है। भाग परापति कर्मा रेखां, दरगैं जबला जबला माघों। बिरखे पान झड़े झड़ जायला, तेपण तई न लागूं। पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही यह जीवन मिलता है तथा इस जीवन में किए हुए कर्मों की रेखायें खींचती है अर्थात् कर्मों के संस्कार स्थिर होते हैं। उन्हीं कर्मों के अनुसार आगे स्वर्ग, नरक या मुक्ति का मार्ग न्यारा-न्यारा हो जाता है किन्तु यह सत्य है कि वृक्ष के पते एक बार जो झड़ जाते हैं वे पुनः वापिस नहीं लगते। उसी प्रकार से यह जीवन एक बार व्यतीत हो गया तो फिर यही जीवन दुबारा लौटकर नहीं आ सकता है। आने वाला जीवन इससे सर्वथा नवीन ही होगा। सेतूं दगधूं कवलज कलीयों, कुमलावै ज्यूं शागूं। ऋतु बसंती आई, और भलेरा शागूं। जिस प्रकार से भयंकर सर्दी में कमल की कलियां जल जाती है तथा वनस्पति भी कुम्हला जाती है किन्तु वही बसन्त ऋतु आने पर फिर से पते फूल फल सम्पन्न हो जाती है। उसी प्रकार से कमल तथा वनस्पति की भांति निर्लेप तथा परोपकारी व्यक्ति यदि एक बार कष्ट में पड़ भी जाये तो समय आने पर फिर प्रफुल्लित हो जाता है। भूला तेण गया रे प्राणी, तिहिं का खोज न माघूं। विष्णु विष्णु भण लई न साई, सुर नर ब्रह्मा को न गाई। हे भूल में भटके हुए प्राणी! तुमने उस परमात्मा तथा मुक्ति का मार्ग नहीं खोजा व्यर्थ में ही समय व्यतीत कर दिया। तुझे उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु बारम्बार विष्णु का स्मरण, जप एकाग्र मन से करना चाहिये था। उस विष्णु का गुणगान किस देवता मानव तथा ब्रह्मा ने नहीं किया अर्थात् विपतिकाल में सभी ने विष्णु को ही याद किया है तथा विष्णु ने ही विपति से छुटकारा दिलाया है। तातैं जंवर बिन डसीरे भाई, बास बसंते कीवी न कमाई। जंवर तणा जमदूत दहैला, तातैं तेरी कहा न बसाई। हे प्राणी! तैनें इस संसार में रहते हुए यदि शुद्ध कमाई नहीं की तो तुझे इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकर्मों का पुण्य नहीं होगा जिससे तू छूट सकता था। वहां पर तुझे बड़े भयंकर विकराल यमदूत जलायेंगे, काटेंगे, तब तू रोएगा तो तुझे छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलेगा और न ही तेरा वश चलेगा।
शब्द-65
ओ३म्- तउवा जाग जु गोरख जाग्या, निरह निरंजन निरह निरालंब। जुग छतीसों एकै आसन बैठा बरत्या, अवर भी अबधू जागत जागूं। भावार्थः- अवधू को सदा जागृत सचेत रहना चाहिये तथा कुछ अवधूत रहते भी हैं, वे कभी समाधि अवस्था को प्राप्त होते हैं किन्तु जितने जागृत गोरख रहे उतना कोई नहीं रहा। वे केवल्य अवस्था में माया रहित बिना किसी सहारे केवल एक, स्वयं समर्थ होकर समाधिस्थ हुए। उनकी इतनी लम्बी समाधि लगी जो छतीस युग एक ही आसन पर बैठे हुए व्यतीत कर दिये। वास्तव में जागना तो यही होता है। ऐसे जागृत तो कोई बिरले ही होते हैं। तउवा त्यागज ब्रह्मा त्यागा,अवर भी त्यागत त्यागूं। तउवा भाग जो ईश्वर मस्तक, अवर भी मस्तक भागूं। संसार में अनेकानेक त्यागी हुए हैं। किसी ने कुछ ज्यादा तो किसी से कुछ कम त्याग किया है किन्तु जितना त्याग प्रजापति ब्रह्माजी ने किया है उतना किसी ने नहीं किया अर्थात् ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की। इसीलिए सभी के पिता है तो भी उन्हें अपने पुत्रों से मोह नहीं है और न ही उनसे कुछ प्राप्ति की ही आशा रखते हैं, सदा निर्लिप्त भाव से रहते हैं। जितना भाग्य ईश्वर के मस्तिष्क में लिखा है उतना अन्य दूसरों के कहां है। ईश्वरत्व की प्राप्ति भी तो ज्ञान तपस्या शुभ कर्मों से ही होती है। वह सम्पति जिसके पास अधिक है वही ईश्वर है। तउवा सीर जो ईश्वर गौरी, अवर भी कहियत सीरूं। तउवा बीर जो राम लक्ष्मण, अवर भी कहियत बीरूं। पति-पत्नी का सम्बध प्रेमसंसार में कहीं-कहीं देखा जाता है किन्तु जितना सम्बन्ध प्रेमभाव अटल शिव पार्वती का है, उतना अन्य दूसरों में कहां है। तथा भाई-भाई में आपस में प्रेमभाव मधुर सम्बन्ध कहीं-कहीं देखने को मिलता है किन्तु जितना राम लक्ष्मण में प्रेमभाव था उतना अन्यत्र कहां है। तउवा पाग जो दश शिर बांधी, अवर भी बांधत पागूं। तउवा लाज जो सीता लाजी, अवर भी लाजत लाजूं। सिर पर पगड़ी बांधना, महता तथा अहंकारी होना द्योतित करता है। संसार में पगड़ी बांधने वाले तो अनेक है जो अपनी सामथ्र्यानुसार बांधते ही है किन्तु जितनी अहंकारता से पगड़ी रावण ने बांधी, ऐसी किसी ने नहीं बांधी। क्येांकि जिसके एक सिर होता है वह भी अपना कुछ अस्तित्व रखना चाहता है तथा जिसके दश सिर हो उसकी तो दशा ही क्या होगी। जीवन को बर्बाद करने के लिए तो एक सिर (अहंकार) ही पर्याप्त है जिसके दस हो तो उसकी तो रावण जैसी ही हालत होती है। इस दुनियां में सती, लज्जावती अनेकों स्त्रियां है किन्तु जितनी सती लज्जावती सीता थी, उतनी और नहीं हो सकी। स्त्रीत्व जाति का लज्जा सतीत्व ही भूषण है। इन्हीं भूषणों से सीता ही पूर्णरूपेण विभूषिता हो सकी थी। तउवा बाजा राम बजाया, अवर बजावत बाजूं। तउवा पाज जो सीता कारण लक्ष्मण बांधी, अवर भी बांधत पाजूं। मानव जीवन धारण करके कुछ लोग इस जीवन में शुभ कार्य करने की घोषणा करते हैं। दुनियां को यह बात बाजा बजाकर बता देते है। किन्तु उनमें से सफल कितने होते हैं? किन्तु जिस प्रकार से श्रीराम ने बाजा बजाया जीवन सफल करने, करवाने की समाज में प्रतिज्ञा पूर्ण की, ऐसा कौन कर सकता है। इस संसार में अनेक लोग नदी-नाले पार करने के लिए छोटे-मोटे पुल बांधते है अर्थात् संसार सागर से पार उतरने के लिए छोटे-मोटे धर्म कर्म तथा मर्यादा का पुल बांधते हैं। किन्तु जैसा पुल सीता की प्राप्ति के लिए लक्ष्मण ने बांधा, वैसा कौन बांध सकता है अर्थात् मर्यादा, धर्म की स्थापना के लिए जैसा तप लक्ष्मण ने किया, ऐसा अन्य से असम्भव है अथवा जैसी पंचवटी में सीता के रक्षार्थ रेखा लक्ष्मण ने खींची, वैसी कौन खींच सकता है। तउवा काज जो हनुमत सारा, अवर भी सारत काजूं। तउवा खागज जो कुम्भकरण महारावण खाज्या, अवर भी खावत खागूं। संसार में स्वामी सेवक बहुत देखे गये हैं किन्तु जितनी सेवा निःस्वार्थ भाव से हनुमान ने श्रीराम की, की थी उतनी और कौन कर सकता है। निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य से ही आज हनुमान पूजनीय हो गये हैं भोजन भट्ठ तो बहुत देखे गये है किन्तु जितना भोजन कुम्भकरण, महिरावण किया करते थे उतना कौन कर सकता है। किन्तु वे भी अधिक भोजन के बल पर जीवन को स्थिर नहीं कर सके, काल के गाल में समा गये। तउवा राज दुर्योधन माण्या, अवर भी माणत राजूं। तउवा रागज कन्हड़ बांणी, अवर भी कहिये रागूं। राजा तो अनेक हुए हैं तथा राजकाज में मदमस्त भी हुए हैं किन्तु जितना अभिमान दुर्योधन ने किया, वैसा किसी ने नही ंकिया। दुर्योधन के अभिमान ने ही महाभारत युद्ध करवाया जिससे सर्वनाश हुआ। बाल्यावस्था में गऊवें चराते हुए बंशी तो अनेक बालक बजाते है किन्तु जितनी मधुर ध्वनि में बंशी कृष्ण ने बजायी, ऐसी और कौन बजा सकता है। अन्य लोगों की बंशी में वह खिंचाव कहाँ है जैसा कृष्ण की बंशी में था। तउवा माघ तुरंगम तेजी, टटू तणा भी माघूं। तउवा बागज हंसा टोली, बुगला टोली भी बागूं। कुछ लोग सवारी के लिए टट्टू का उपयोग करके मार्ग तय तो कर ही लेते हैं, किन्तु उन टट्टुओं में घोड़े जैसी तेजी कहां है जो अतिशीघ्रता से मार्ग तय कर सके। वैसे तो बगुले भी टोली बनाकर किसी तालाब किनारे बाग में बैठते हैं किन्तु जो मानसरोवर झील एवं हिमालय के देवदारू का बाग हंसों की टोली को उपलब्ध है, वह मानसरोवर बगुलों को कहां मिल पाता है अर्थात् जो धर्म साधना कार्य में मन्दगामी है, उन्हें तो इस संसार रूपी बाग में अल्प सुख तालाब ही मिल पाता है तथा जो शीघ्रगामी है, साधना तत्परता से करता है उन्हें हंसों की भांति दिव्य स्वर्गीय सुख मानसरोवर की प्राप्ति होती है। तउवा नाग उद्याबल कहिये, गरुड़ सीया भी नागूं। तउवा शागज नागर बेली, कूकर बगरा भी शागूं। सर्पों में अनेक ऐसे छोटे-मोटे सर्प है जो गरुड़ से भयभीत रहते हैं तथा उसका भोजन बन जाते हैं किन्तु शषनाग, वासुकि जैसे उतम जाति के नाग बहुत ही कम दिखाई देते हैं। वासुकि जैसी करामात इनमें कहां है। तथा मरूस्थल प्रदेश में होने वाली कूकर, भगरा अत्यंत कंटीली विषमय वनस्पति उस नागर बेली तथा अमृत फलमय वनस्पति की बराबरी कैसे कर सकती है अर्थात् जो सज्जन गुणवान मधुर बन सकता है उसकी बराबरी दुर्जन गुणरहित, झूठ कुवचन वक्ता पुरूष कैसे कर सकता है। जां जां शैतानी करे उफारूं, तां तां महंत ज फलियों। जुरा जम राक्षस जुरा जुरिन्द्र, कंश केशी चंडरूं। मधु कीचक हिरणाक्ष हिरणाकुश। हे जैतसी! जहां जहां पर भी शैतान लोग उफार करते हैं। अपनी दुष्टवृति से कार्य करके उसका फैलाव करते हैं त्यूं त्यूं ही दुष्टता अधिक बढ़ती है। उसी वृति के कारण ही जबरदस्त यम के समान राक्षस पैदा हो गये हैं। इन राक्षस वृत्तिधारी राजाओं ने सभी को जबरदस्ती से अपने वश में करने की कोशिश की थी। उसी प्रकार से अब भी तुम्हारे पिता करने जा रहे हैं। जब राक्षस वृत्तिधारी कंस, केशी,चंडरू, मधु, कीचक, हिरणाक्ष, हिरण्यकश्यपू भी नहीं बच सके तो तुम्हारे इन सैनिकों सहित अन्यायकारी पिता की क्या दशा होगी। चक्रधर बलदेऊ,पावत वासुदेवों। मंडलीक कांय न जोयबा, इंहिं धर उपर रती न रहीबा राजूं। अन्त समय में इन राक्षस सदृश कंस आदि मानवों ने भी चक्रधारी श्रीकृष्ण एवं हलधर श्रीबलराम को ही सामने देखा था अर्थात् इनकी मृत्यु परमात्मा के हाथों से ही हुई थी। उन सम्राट राजाओं को क्यों नहीं देखते जिनका इस धरती पर सार्वभौम राज्य था किन्तु जब अन्याय किया तो क्षण में ही राज्य चला गया। तो फिर इस समय के इन छोटे-मोटे राजाओं की क्या औकात है, किस बलबूते पर यह झूठा अभिमान करते हुए अन्याय से किसी का हक छीनने जा रहे हैं। यह अन्याय न तो कृष्ण के रहते हुए चल सका और न ही मेरे यहां रहते हुए चल सकेगा।
शब्द-66
ओ३म्-ऊमाज गुमाज पंज गंज यारी, रहिया कुपहीया शैतान की यारी।। भावार्थः- हे महलूखान! तू नित्यप्रति नमाज पढ़कर ईश्वर को याद करने वाला व्यक्ति होकर भी इस प्रकार से नेतसिंह को पकड़ करके कैद कर दिया और अब युद्ध के लिए तैयार होकर आ गया, यह तेरा कैसा उन्माद और अहंकार है। तूने सदा मन इन्द्रियों की बात स्वीकार की है, बुद्धि से भलाई नहीं सोची। इसीलिए तुझे इस स्थिति में पंहुचा दिया है। अब तू इनकी मित्रता छोड़कर विवेकशील बनकर जनता की भलाई कर। तुमने शैतान लोगों से मित्रता करके यह कुमार्ग अपना लिया है। शैतान लो भल शैतान लो, शैतान बहो जुग छायो। शैतान की कुबध्या न खेती, ज्यूं काल मध्ये कुचीलूं। हे राजन्! तुम्हारा यह तो कर्तव्य बनता है कि जो वास्त्विक में ही शैतानी करने वाला है तथा जो बदमाशों के भी बदमाश, चोर, डाकू, अपराधी है उन्हें तो आप अपने अधिकार में ले करके उन्हें दण्डित कर सकते हैं किन्तु जो निरपराधी लोग है उन्हें बिना प्रयोजन के युद्ध के लिए ललकारना तुम्हारी बुद्धिमानी नहीं है। जो स्वभाव से ही अपराधी लोग है, उनकी तो कुबध्या यानि समाज में किसी प्रकार का उपद्रव करना और करवाना ही खेती धन्धा है। जिस प्रकार से शांत वातावरण में कभी कोई दैविक उपद्रव जैसे तूफान, ओले, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि आते हैं और सभी कुछ तहस नहस कर देते हैं, उसी प्रकार से ये शैतान लोग होते हैं। बे राही बे किरियावन्त कुमती दौरै जायसै, शैतानी लोड़त रलियों। जां जां शैतान करै उफारूं, तां तां महंत न फलियों। वे शैतान लोग शुद्ध सच्चे मार्गहीन, धर्म क्रियाकर्म रहित, कुमति वाले होते हैं। इसीलिए यह जीवन भी उनका दुःखमय होता है और परलोक भी नरकमय हो जता है। शैतान लोगों का स्वभाव ही होता, जब उन्हें आवश्यकता पड़ती है तो वे झट अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आप से मेल मिलाप भी कर लेंगे और उनका स्वार्थ सिद्ध होते ही आपसे मुंह मोड़ लेंगे। जहां-जहां पर भी शैतान लोगों ने अपनी करतूत दिखलाई है वहां वहां पर समाज, देश, व्यक्ति तथा अहंकारकर्ता शैतान भी पूर्णतया फलीभूत नहीं हो सके हैं। वे लोग न तो स्वयं उन्नति कर सकते हैं और न ही औरों को करने ही देते हैं। नील मध्ये कुचील करबा, साध संगिणी थूलूं। पोहप मध्ये परमला जोति, यूं सुरग मध्ये लीलूं। शैतान लोग नीले वस्त्र पहनकर अपनी हृदय की कालुष्यता को कुकर्म करके प्रगट कर देते हैं। वे लोग अन्दर तथा बाह्य परिवेश नील अभद्रता को ही पसन्द करते हैं। उसी वेश में रहकर दुष्ट कार्य अच्छी प्रकार कर सकते हैं तथा साधु सज्जन पुरुषों के साथ स्थूल वार्ता तथा दुष्टता का व्यवहार ही करेंगे, तो वे लोग ज्ञान कहां से प्राप्त करेंगे। जिस प्रकार से पुष्प में सुगन्धी सर्वत्र समायी हुई है, उसी प्रकार से परमात्मा की ज्योति भी सर्वत्र व्यापक है तथा वही ज्योति उन दुष्टजनों में भी है किन्तु उस ज्योति का प्राकट्य वे लोग नहीं कर सके हैं। उसी प्रकार से स्वर्ग में भी परमात्मा की लीला सर्वत्र समायी हुयी है अर्थात् स्वर्ग तो वहीं हो सकता है जहां पर परमात्मा की दिव्य लीला का सर्वत्र अनुभव किया जाय। ऐसा होने पर ही मनुष्य के अन्दर से दुष्टता निकल सकती है। संसार में उपकार ऐसा, ज्यूं घण बरषंता नीरूं। संसार में उपकार ऐसा, ज्यूं रूही मध्ये खीरूं। हे राजन्! इस संसार में तो उपकार ऐसा करना चाहिये, जिस प्रकार से बादल जल बरसाते हैं तथा संसार में परोपकार तो उस प्रकार से ही करना चाहिये, जिस प्रकार से गाय, भैंस आदि के शरीर मध्ये से दूध उत्पन्न होता है उससे जीवन का विकास होता है। बादल निष्प्रयोजन ही आकर वर्षा करता है तथा गऊ आदि घास खाती है, उससे दूध पैदा करती है वह भी परमार्थ के लिए ही होता है। उसी प्रकार से माानव को भी निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए। किसी का धन अपहरण करके उसे दुःखित नहीं करना चाहिये।
शब्द-67 (शुक्ल हंस)
ओ३म्- श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण भुय नागौरी, म्हे ऊंडे नीरे अवतार लीयो। भावार्थः- संसार के सम्पूर्ण गढ़ों में भगवान विष्णु का धाम बैकुण्ठ लोक सर्वश्रेष्ठ गढ़ है। उसी श्रीगढ़ से आल (हाल) चल करके इस मृत्युलोक में आया हूँ तथा इस मृत्युलोक में भी नागौर की भूमि में स्थित पीपासर में, जो भूमि ग्रामपति लोहट के अधिकार में है तथा उतम भूमि है जहां पर अत्यधिक गहराई में पानी मिलता है, उस उतम जल वाले देश में मैनें अवतार लिया है अर्थात् उस परम धाम को अकस्मात छोड़कर इस भूमि में मुझे आना पड़ा है। आगे यहां पर आने का मुख्य प्रयोजन बतला रहे हैं। अठगी ठंगण, अदगी दागण, अगजा गंजण, ऊनथ नाथन अनूं नवावन। जो पुरुष पाखण्ड करके दूसरों को ठगते है किन्तु स्वयं किसी अन्य से नही ंठगे जा सकते, ऐसे-2 चतुर लोगों को ठगने के लिए अर्थात् उनकी ठग पाखण्ड विद्या का हरण करने के लिए, जिसने अब तक धर्म का दाग, चिन्ह विशेष धारण नहीं किया है उन्हें धर्म के चिन्ह से चिन्हित करके सद्मार्ग में लाने के लिए, जो दूसरों के तो सच्चे धर्म का भी अपनी बुद्धि चातुर्य से खण्डन कर देते हैं तथा अपने झूठे पाखण्डमय धर्म मार्ग को भी अपने स्वार्थवश सत्य बतलाते हैं। ऐसे लोगों के विश्वास का नाश करने के लिए,उदण्डता से अपनी इच्छा अनुसार विचरण करने वाले लोगों के मर्यादा रूपी नाथ डालने के लिए और अभिमान में जकड़े हुए लोग जो किसी के सामने सिर नहीं झुकाना जानते, नम्रता शीलता नहीं जानते उन्हें झुकाने के लिए, नम्रशील बनाने के लिए में यहां पर मरुभूमि में आया हूँ। कांहि को में खैंकाल कीयों, कांही सुरग मुरादे देसां, कांही दौरे दीयूं। यहां आ करके मैनें किसी को तो समय-समय पर ही नष्ट कर दिया अर्थात् राम, कृष्ण, नृसिंह आदि रूप में तो दुष्टों को नष्ट ही किया तथा किसी सज्जन ज्ञानी ध्यानी भक्त पुरुष को उसकी इच्छा कर्मानुसार स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति करवाई। यह इस समय भी तथा इससे पूर्व अवतारों में भी और अन्य किसी-किसी को भयंकर नरक भी दिया क्योंकि उन लोगों के कर्म ऐसे ही थे। इसीलिए कर्म करना मानव के आधीन है किन्तु फल देना ईश्वर के अधीन है। होम करीलो दिन ठावीलो, संहस रचीलो छापर नींबी दूणपूरू। गांव सुंदरीयो छीलै बलदीयो, छन्दे मन्दे बाल दीयो। हे बीदा! तू अपने आदमियों को दिन निश्चित करके जहां-जहां पर भेजेगा। में वहीं पर ही हजारों रूप धारण करके यज्ञ करता हुआ दिखाई दंूगा। बीदा हजारों जगह तो नहीं भेज सका किन्तु जहां-जहां पर भेजा गया था, वहां-वहां का बतलाते हैं जैसे- छापर, नींबी, द्रोणपुर, सुन्दरियो, चीलो,बलदीयो, छन्दे, मन्दे, बालदियो तथा- अजम्है होता नागो वाड़े, रैण थम्भै गढ़ गागरणो। कुं कुं कंचन सोरठ मरहठ, तिलंग दीप गढ़ गागरणो। अजमेर, होता, नागौर, बाड़े, रैण, थम्भोर, गढ़, गागरणो, कुं कुं कश्मीर, कंचन(कच्छ) सौराष्ट्र महाराष्ट्र या मेरठ, तिलंग (तेलंगाना) तेलगु देश, द्वीप रामेश्वरम, गढ़ गागरोन तथा और भी- गढ़ दिल्ली कंचन अर दूणायर, फिर फिर दुनियां परखै लीयों। थटे भवणिया अरू गुजरात, आछो जाई सवा लाख मालबै। पर्वत मांडू मांही ज्ञान कथूं। दिल्ली, गढ़, कंचन नगरी और देहरादून आदि स्थानों में यज्ञ किया है। मैनें वहां पर व्यापक भ्रमण किया और लोगों को जांचा, परखा है तथा थट्ठ, थंभणिया गुजरात, आछो जाई, श्यालक, मालवा, पर्वत (मांडू) जैसलमेर इत्यादि स्थानों में जाकर ज्ञान का कथन किया है उन लोगों को चेताया है। खुरासाण गढ़ लंका भीतर, गूगल खेऊ पैर ठयो। ईडर कोट उजैंणी नगरी, काहिदा सिंधपुरी विश्राम लीयो। खुरासाण तथा गढ़ लंका मंे भी जाकर वहां पर हवन किया और हवन समाप्ति पर अंगारों पर गूगल चढ़ाया था, जिससे वहां का वातावरण पवित्र हुआ था। ईडर गढ़ उज्जयिनी नगरी तथा कुछ समय तक समुद्र किनारे बसी हुई जगन्नाथपुरी में भी विश्राम किया है। कांय रे सायरा गाजै बाजै, घुरे घुर हरे करे इंवाणी आप बलूं। किंहि गुण सायरा मीठा होता, किंहि अवगुण होतो खार खरूं। जब जम्भेश्वर जी जगन्नाथपुरी में समुद्र किनारे पर विराजमान थे। उसी समय ही वहां पर लोेगों में एक महामारी फैल गयी, जिसको वहां की स्थानीय भाषा में गूँडिचा कहते है। इधर शीतला चेचक कहते हैं, वह फैल चुकी थी। लोग आ करके जम्भदेवजी से प्रार्थना करने लगे। तब उन लोगों को अभिमंत्रित जल पाहल पिलाया, जिससे उनकी बीमारी मिट गयी। उसी महान घटना की यादगार में मन्दिर बनाने की प्रार्थना उन लोगों ने गुरुदेव से कही, तब उन्हें मंदिर बनाने की आज्ञा तो दी परंतु उसके अन्दर कोई मूर्ति रखने की मनाही कर दी। अब भी जगन्नाथपुरी में वह मंदिर ज्यों का त्यों विद्यमान है। जब जगन्नाथजी की सवारी निकलती है तो सात दिन तक वहीं पर विश्राम करती है तथा वहीं पर ही प्रसिद्ध जगन्नाथजी के मंदिर से उतर पश्चिम दिशा में एक किलोमीटर दूर जम्भेश्वर महादेव का मंदिर भी बना हुआ है और वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव पूजनीय है तथा उत्सव समय आषाढ़ महीने में सवारी भी निकलती है। यह मैनें अपनी आंखों से देखा है किन्तु पूर्ण जानकारी नहीं कर सका। यहां पर मैनें प्रसंगवश पाठकों की जानकारी के लिए लिख दिया है। अब बीदे से कह रहे हैं कि हे बीदा! मैनें उस जगन्नाथपुरी के समुद्र को देखा है तथा उसकी महान ऊंची-ऊंची लहरों को भी देखा है। वे लहरें दूर से अत्यधिक भयावनी लगती है स्नानार्थी को डरा देती है। किन्तु जब हिम्मत करके अन्दर पंहुच जाता है तो वे लहरें कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि उस समय मैनें समुद्र से पूछा था कि हे सायर! तू क्यूं गर्जना करके यह व्यर्थ की ध्वनि कर रहा है। इस घुरघुराने से तो तेरा अभिमान ही बढ़ेगा किन्तु बल घटेगा। जब तू बलहीन हो जायेगा तो फिर क्या कर सकेगा तथा यह भी बता कि पहले तो तेरे में कौनसा गुण था जिस कारण तू मीठा था और फिर कौनसा अवगुण हो गया जिससे तू खारा नमकीन हो गया। जब तेरे में अभिमान नहीं था तब तो तू मधुर अमृतमय था और जब अभिमान आ गया तो कड़वा हो गया। मानव के लिए भी यही नियम लागू होता है। जद वासग नेतो मेर मथाणी, समंद बिरोल्यो ढोय उरूं। रेणायर डोहण पांणी पोहण, असुरां बेधी करण छलूं। देव-दानवों ने जब मिलकर समुद्र मंथन द्वारा अमृत प्राप्ति का प्रयत्न किया था उस समय वासुकी नाग की तो रस्सी बनाई थी। सुमेरु पर्वत की मथाणी (झेरणी) बनायी थी तथा देव-दानवों ने मिलकर मंथन प्रारम्भ किया तो वह मथाणी वजनदार होने से देव दानव नहीं संभाल सके तो नीचे धरती पर आकर टिक गयी थी तो दोनों पक्षों ने ही जाकर भगवान विष्णु से पुकार की थी। उस समय विष्णु ने कछुए का रूप धारण करके सुमेरु मथाणी को ऊपर उठाया था। फिर मंथन कार्य चलने लगा तब समुद्र से अनेकानेक दिव्य रत्न निकलने लगे किन्तु उन असुरों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण से अनेक रत्न तो देवताओं को प्राप्त हो चुके थे। चैदहवां रत्न अमृत निकला जिसके लिए देव दानव आपस में बंटवारा नहीं कर सके। उसके लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत देवताओं को पिलाकर अमर करना चाहते थे किन्तु राहु दैत्य भी पी चुका था वह भी अमर हो चुका था। भेद खुलने पर देवताओं ने सिर काट डाला, एक के दो हो गये। राहु और केतु ये भी अमर हैं, सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर ग्रसित करते हैं। जब समुद्र से अमृत निकाल लिया गया तो पीछे कड़वा ही शेष रह गया है। इसीलिए हे बीदा! वह इतना महान अमृतमय समुद्र भी अभिमान करने से अमृत खो बैठा और दयनीय दशा को प्राप्त हो गया, उसके सामने तेरी क्या औकात है। तेरा भी यह अभिमान करना व्यर्थ है और भी ध्यानपूर्वक श्रवण कर। दहशिर ने जद वाचा दीन्ही, तद म्हे मेल्ही अनंत छलूं। दह शिर का दश मस्तक छेद्या, ताणु बाणु लडू कलूं। लंकापति रावण ने प्रथम कठोर तपस्या की थी और शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिया। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि उस समय वरदान देने वाला मैं ही था तथा रावण राज्य विशालता ऐश्वर्य को प्राप्त हो चुका था। तब मैं ही राम रूप में सीता सहित वन में आ गया था। मैनें ही रावण को छलने के लिए सीता को भेजा था। रावण जबरदस्ती नहीं ले गया था। रावण को मारने के लिए सीता को निमित बनाया था, वैसे रावण को कैसे मार पाते और फिर मैनें सीता को छुड़ाने के बहाने से अपने द्वारा वरदान स्वरूप दिये हुए दस सिरों को उन तीखे बाणों द्वारा काट डाला तथा रावण सहित पूरे परिवार को तहस नहस कर डाला था। सोखा बाणू एक बखाणू, जाका बहु परमाणूं निश्चय राखी तास बलूं। जब रावण को मारने के लिए लंका पर चढ़ाई की थी, उस समय भी बीच में समुद्र आ गया था। तीन दिन तक प्रतीक्षा करने पर भी वह दुष्ट नहीं माना तो फिर धनुष पर बाण संधान कर लिया था और उसे शुष्क करने का विचार पक्का हो चुका था। उस समय भी समुद्र अपनी हठता भूलकर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित हुआ था। इसका बहुत प्रमाण है। यदि तुझे विश्वास नहीं है तो शास्त्र उठाकर देख ले। उस समय समुद्र तथा रावण ने अपना बल निश्चित ही तोल करके देखा था तथा उस अभिमान के बल पर ही गर्व किया करते थे किन्तु उन दोनों का ही गर्व चूर-चूर कर डाला था। हे बीदा! जब रावण और समुद्र का अभिमान भी स्थिर नहीं रह सका। अहंकार के कारण दोनों को ही लज्जित होना पड़ा तो तेरी कितनी सी ताकत है, किसके बल पर तूं अभिमान करता है। राय विष्णु से बाद न कीजै, कांय बधारो दैत्य कुलूं। म्हे पण म्हेई थेपण थेई, सा पुरुषा की लच्छ कुलूं। हे बीदा! तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष देवाधिदेव विष्णु विराजमान है, व्यर्थ का वाद-विवाद नहीं करो। ऐसा करके देत्य कुल को क्यों बढ़ाता है। तुम्हारे देखा-देखी और कितने मानव से दानव हो जायेंगे। फिर तू जानता है कि दानवों की क्या गति हुई है और क्या हो रही है। हम तो अपनी जगह पर हम ही है, तू हमारी बराबरी नहीं कर सकता और तू अपनी जगह पर तो तू ही है, हम लोगों को तू अपने जैसा नहीं बना सकता। उन महापुरुषों के लक्षण तो बहुत ही ऊंचे थे, जिसका तू नाम लेता है वे तेेरे सदृश अधम नहीं थे। गाजै गुड़के से क्यूं वीहै, जेझल जाकी संहस फणूं। मेरे माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैंण न लोक जणों। तुम्हारे इस प्रकार के झूठे गर्जन तर्जन से कौन डरता है तथा डरने का कोई कारण भी तो नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास कुछ शक्ति तो है नहीं, केवल बोलना ही जानता है जिसके पास शेषनाग के हजारों फणों की फुत्कार के सदृश शक्ति की ज्वाला है वह तेरे इस मामूली क्रोध की ज्वाला से भयभीत कभी नहीं होता। कोई सामान्य गृहस्थजन हो सकता है, तेरे से कुछ भयभीत हो जाये क्योंकि उसका अपना परिवार घर है, उनको तू कदाचित उजाड़ भी सकता है किन्तु जिसके माता, पिता, बहन, भाई, सखा सम्बन्धी कोई नहीं है उसका तू क्या बिगाड़ लेगा। बैकुण्ठे बिश्वास बिलम्बण, पार गिरांये मात खिणूं। विष्णु विष्णु तू भण रे प्राणी, विष्णु भणंता अनंत गुणूं। हम तो बैकुण्ठलोक के निवासी हैं ऐसा तू विश्वास कर तथा उस अमरलोक प्राप्ति का प्रयत्न कर। जिससे तेरा सदा के लिए जन्म-मरण छूट जायेगा। इस अवसर को प्राप्त करके भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाना कुछ शुभ कमाई कर लेना। हे प्राणी! विष्णु के पास परमधाम में पंहुचने के लिए तू उसी परमात्मा विष्णु का स्मरण कर, उसका स्मरण भजन करने में अनंत फलों की प्राप्ति होगी। विष्णु के भजन से परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति ही अनन्त फल है। सहंसे नावें, सहंसे ठावें, सहंसे गावें, गाजे बाजे, हीरे नीरे। गगन गहीरे, चवदा भवणे, तिहूं तृलोके, जम्बू द्वीपे, सप्त पताले। विषलृ व्यांपके धातु से विष्णु शब्द की व्युत्पति होती है अर्थात् विवेष्टि व्याप्नोति इति विष्णु जो सर्वत्र कण-कण में सता रूप से व्यापक हो वही विष्णु है। ऐसे विष्णु का स्मरण करने का अर्थ हुआ कि सर्वत्र सता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेना है। उसी सत्ता को गुरुदेव जी सर्वत्र बताते हुए कहते हैं कि उस विष्णु रूप सता के हजारों अनगिनत नाम है। हजारों अनन्त स्थान है तथा उसी प्रकार से उतने ही गांव है और भी सता व्यापक होती हुई गर्जना, बाद्यों, हीरे, जल, गगन गम्भीर समुद्र तथा चैदह भुवनों में, तीनों लोकों में तथा इस जम्बूद्वीप में और सातों पातालों में ही उसकी ही सता विद्यमान है। अई अमाणो, तत समाणो, गुरु फुर्माणो, बहु परमाणो। अइयां उइयां निरजत सिरजत। इस पंचभौतिक जड़मय संसार में वह ज्योतिरूप तत्व समाया हुआ है। उस परम तत्व की ज्योति से ही यह सचेतन होता है यह गुरु परमात्मा का ही कथन है। इसीलिए सत्य है इसमें बहुत ही शास्त्र,वेद, आप्त पुरुष प्रमाण है। यह जड़ चेतनमय संसार उसी परमतत्व रूप परमात्मा की ही सृजनकला का कमाल है और उसकी ही जब वापिस समेटने की इच्छा होगी तो यह वापिस लय को भी प्राप्त हो जायेगा, यह भी उसी की ही करामात है। नान्ही मोटी जीया जूंणी, एति सास फुरंतै सारूं। कृष्णी माया घन बरषंता, म्हे अगिणि गिणूं फूहारूं। इस विश्व में कुछ छोटी तथा कुछ बड़ी जीवों की जातियां है। छोटी जाति की उत्पति स्थिति तथा मृत्यु काल अत्यल्प होता है और बड़ी जाति जैसे मानवादिक का समय अधिक होता है। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि में अपनी माया द्वारा इनका सृजन करता हूँ। किन्तु उत्पति में समय तो एक श्वंास को बाहर निकलना और अन्दर जाने का ही लगता है अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच का फैसला तो एक श्ंवास का ही होता है यदि श्वांस आ गया तो जीवन है, नहीं आया तो मृत्यु। जिस प्रकार से कृष्ण परमात्मा की माया बादलों द्वारा जल बरसाती है किन्तु अनगिनत बूंदे भी गिन गिन करके डाली जाती है अर्थात् जहां जितना बरसाना है वहां उतना ही बरसेगा न तो कम ही और न ही ज्यादा। उसी प्रकार से सृष्टि की छोटी-मोटी जीया जूंणी भी पानी की बूंदों की तरह अनगिनत होते हुए भी परमात्मा के द्वारा गिनी जा सकती है। परमात्मा की दृष्टि से बाह्य कुछ भी नहीं है। कुण जाणै म्हे देव कुदेवों, कुण जाणै म्हे अलख अभेवों। कुण जाणै म्हे सुरनर देवों, कुण जाणै म्हारा पहला भेवों। बीदे द्वारा जब वस्त्रविहीन करके यह देखने का प्रयत्न किया गया कि ये स्त्री है या पुरुष। तब इस प्रसंग का इस प्रकार निर्णय करते हुए कहा कि कौन जानता है कि मैं देव हूं या कुदेव हूं। कौन जानता है कि मैं अलख हूं या लखने योग्य हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं देवाधिदेव विष्णु हूं या सामान्य देवता हूं तुम्हारे पास मेरा आदि व अन्त को जानने का भी क्या उपाय है। कुण जाणै म्हे ग्यानी के ध्यानी, कुण जाणै म्हे केवल ज्ञानी। कुण जाणै म्हे ब्रह्मज्ञानी, कुण जाणै म्हे ब्रह्माचारी। बुद्धि द्वारा अगम्य को बुद्धि द्वारा कैसे जाना सकता है। इसीलिए मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी हूँ इस बात को तुम नहीं जान सकते। मैं केवल ज्ञानी हूं या अज्ञानी हूं, यह तुम किस प्रकार से जान पाओगे। मैं ब्रह्मज्ञानी हूं या ब्रह्मचारी हूं यह भी तुम्हारी समझ से बाहर की बात है। ध्यान रखना इन विषयों को केवल जाना नहीं जाता तदनुसार जीवन बनाया जाता है। न ही केवल बुद्धि द्वारा जान लेने से रस ही आ पायेगा। कुण जाणै म्हे अल्प अहारी, कुण जाणै म्हे पुरुष क नारी। कुण जाणै म्हें वाद विवादी, कुण जाणै म्हे लुब्ध सुवादी। कौन जानने का दावा करता है और बता सकता है कि मैं कम भोजन करने वाला हूं या निराहारी हूं या अधिक भोजन करने वाला हूं।मैं पुरुष हूं या नारी, यह भी तुम कैसे जान सकते हो। कौन जानता है कि मैं वाद विवादी हूं या लोभी हूं या सत्य मितभाषी हूं या बकवादी हूं। कुण जाणै म्हे जोगी के भोगी, कुण जाणै म्हे आप संयोगी। कुण जाणै म्हे भावत भोगी, कुण जाणै म्हे लील पती। कौन जानता है मैं योगी हूं या भोगी हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं दुनियां से सम्बन्ध रखने वाला हूं या निर्लेप हूं। कौन जान सकता है कि मैं जितना चाहता हूं उतना ही मुझे भोग्य वस्तु प्राप्त है या नहीं। यह भी सांसारिक सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकते कि मैं इस संसार का स्वामी हूँ। कुण जाणै म्हे सूम क दाता, कुण जाणै म्हे सती कुसती। आपही सूम र आप ही दाता, आप कुसती आपै सती। कौन जानता है कि मैं सूम कंजूस हूं या महान दानी हूं तथा यह भी कौन जान सकता है कि मैं सती हूं या कुसती हूं। मैं क्या हूं इस विचार को छोड़ो और मैं जो कहता हूं इस पर विचार करोगे तो सभी समस्यायें स्वतः ही सुलझ जायेंगी और यदि बिना कुछ धारण किये केवल बौद्धिक अभ्यास ही करते रहोगे तो कुछ भी नहीं समझ पाओगे। इसीलिए गुरुदेव कहते हैं कि मैं ही सभी कुछ हूं और सभी कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं हूं। मैं ही सूम और मैं ही दाता हूं और मैं ही सती रूप में तथा कुसती भी मैं ही हूं। जैसा जो देखता है में उसके लिए तो वैसा ही हूं। चाहे वो मुझे जिस रूप में देखे, वह तो उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है। नव दाणूं निरवंश गुमाया, कैरव किया फती फती। मैनें समय समय पर अनेकों अवतार धारण करके धर्म की स्थापना की है तथा राक्षसों का विनाश किया है, उनमें नौ राक्षस अति बलशाली थे। वे कुम्भकरण, रावण, कंस, केशी, चण्डरू, मधु, कीचक हिरणाक्ष तथा हिरण्यकश्यपू। इनके लिए विशेष अवतार धारण करने पड़े तथा कौरव समूह जो साथ में जुड़कर उपद्रव किया करते थे। उनको भी बिखेर दिया। मृत्यु के मुख में पंहुचा दिया। यह तो कृष्ण का राजनैतिक योद्धा का रूप था। राम रूप कर राक्षस हड़िया, बाण कै आगै बनचर जुड़िया। तद म्हें राखी कमल पती, दया रूप महें आप बखाणां। संहार रूप म्हें आप हती। राम रूप धारण करके मैनें अनेकानेक राक्षसों का विनाश किया और लंका में जाकर रावण को मारने के लिए बाण खींचा था। तब भी हनुमान सुग्रीव सहित वानर सेना मेरे आगे आकर सेना रूप में जुड़ गयी थी तथा उस भयंकर संग्राम में भी कमल फूल सदृश कोमल स्वभाव वाले विभीषण एवं कमला सीता की उन राक्षसों से रक्षा की थी। वे मदमस्त हाथी सदृश उन कोमल कमल कलियों को कुचलना चाहते थे। मेरे दोनों ही रूप प्रसिद्ध है, जब में दया करता हूं तो परम दयालु हो जाता हूं और राक्षसों से जब युद्ध करता हूं तो महाभयंकर हत्यारा हो जाता हूं। सोलै संहस नवरंग गोपी, भोलम भालम टोलम टालम। छोलम छालम, सहजै राखीलो,म्हे कन्हड़ बालो आप जती। भोमासुर ने सोलह हजार कन्याओं को जेल में डाल दिया था और यह प्रण कर रखा था कि जब बीस हजार हो जायेगी तब इनसे विवाह करूंगा। वे कन्याऐं ही थी, गोप-बालाएं भोली भाली थी तथा सभी साथ में रहकर मेलमिलाप वाली थी। अब तो उनके खेलने-कूदने, शारीरिक, मानसिक विकास का समय था। किन्तु दुष्ट भोमासुर ने उन्हें कैदी जीवन जीने के लिए मजबूर किया था। मैनें भोमासुर को मार करके उन्हें सहज में ही मुक्त करवा दी थी तथा उन्हें शरण भी दी। वे गोपियां मुझे पति परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। फिर भी में कृष्ण रूप में यति बाल ब्रह्मचारी ही था। इतनी पत्नियां होते हुए भी बाल ब्रह्मचारी होना यह ईश्वरीय करामात ही है। छोलबीया म्हें तपी तपेश्वर, छोलब किया फती फती। राखण मतां तो पड़दे राखां, ज्यूं दाहै पांन वणासपती। इन गोपियों के साथ रमण करने वाला मैं स्वयं तपस्वियों का भी तपस्वी हूं। वहीं गोपी ग्वालबालों का प्रिय मैं जब उनके साथ खेल खेला करता था तब तो मण्डली जुड़ी थी किन्तु मैं जब वृन्दावन छोड़कर चला गया तो पुनः उस मण्डली को छिन्न-भिन्न कर दिया। यही जोड़तोड़ करने वाला मैं यदि रक्षा करना चाहूं तो भंयकर अग्नि में से एक सूखे पते की भी रक्षा कर सकता हूं और यदि मैं न चाहूं तो रक्षा के सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं।
शब्द-68
ओ३म्- वै कंवराई अनंत बधाई,वै कंवराई सुरग बधाई। यह कंवराई खेह रलाई, दुनियां रोलै कंवर किसो। भावार्थः- वास्तविक में कंवर तो प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठर आदि थे, जिनके पैदा होने से स्वर्ग तथा इहलोक में बधाई बांटी गयी थी। कंवर तो वही हो सकता है जो सत्य धर्म से प्रजा का पालन करे तथा ये जो आजकल के राजपुत्र जिन्हें तुम कंवर कहते हो, ये तो इसी धरती की ही मिट्टी में मिल जायेंगे। इनके कर्तव्य की महिमा स्वर्ग तक नहीं पंहुुच सकेगी। सम्पूर्ण दुनियां उसी एक ही मार्ग से जा रही है तो फिर इस कंवर की भी तो यही दशा होगी तो फिर कंवर कैसा। कण बिन कूकस रस बिन बाकस, बिन किरिया परिवार किसो। अरथूं गरथूं साहण थाटूं, धूंवें का लहलोर जिसो। जिस प्रकार से कण अन्न के बिना थोथा घास और रस के बिना थोथी खली का गन्ना रसहीन होता है। उसी प्रकार से शुद्ध सात्विक क्रियाकर्म के बिना परिवार भी रसहीन धर्महीन थोथा ही है। यह जो संसार में दिखाई देने वाली धन दौलत, घोड़ा-हाथी, पशुओं का ठाठ समूह है यह भी धूवें के बादल के समान ही है। कब पवन का झोंका आये और कब बिखर जाये तथा उसी प्रकार से धन दौलत भी कब काल का झोंका आये और कब इन्हें उड़ा दे, कुछ भी मालूम नहीं है। सो शारंगधर जप रे प्राणी, जिहिं जपिये हुवै धरम इसो। चलण चलंतै बास बसंतै, जीव जिवंतै काया नवंती। सास फुरंतै किवी न कमाई, तातैं जंवर बिन डसी रे भाई। इसीलिए हे प्राणी! बस धनुषधारी दिव्य परमात्मा विष्णु का स्मरण भजन हर समय चलते, बैठते, उठते, कार्य करते, जीवनयापन करते हुए तथा जब तक तेरी श्ंवास चल रही है, तब तक तू इस कार्य को कर सकता है। परमात्मा को शीश झुका सकता है। नमन कर सकता है। इस स्वस्थ शरीर में श्ंवासों का आवागमन चलते हुए यदि तुमने विष्णु को याद नहीं किया, जीवन का सुधार नही किया तो कालरूपी यमदूत तुझे बिना किसी अस्त्र शस्त्र के ही काट डालेंगे, इस शरीर को तोड़कर जीवात्मा को ले जायेंगे। तब तेरा कुछ भी जोर नहीं चलेगा। विष्णु के स्मरण करने से ही धर्म की उत्पति होगी, वही धर्म तेरा साथ देगा और यमदूतों से छुटकारा दिलायेगा। सुर नर ब्रह्मा कोउ न गाई, माय न बाप न बहण न भाई। इंत न मिंत न लोक जणो, जंवर तणा जमदूत दहेला। लेखो लेसी एक जणों। बिना कोई शुभ कर्म किये ही यह पंचभौतिक शरीर तो यहीं छूट जायेगा किन्तु इस शरीरस्थ जीवात्मा को यमदूत सांकलों में जकड़कर ले जायेंगे। वहां पर भयंकर घोर दुःखमय नरक में जब इस जीव को यातना दी जायेगी तो उस समय वहां पर तुझे कोई नहीं छुड़ा सकेगा। न तो वहां पर देव, मानव, ब्रह्मा ही तेरी गवाही देकर छुड़ा पायेंगे और न ही तुम्हारे प्रियजन माता, पिता, बहन, भाई, सगा-सम्बन्धी मित्र या अन्य कोई अपना पराया ही छुड़ा सकेगा। उस समय तो केवल एक धर्म कर्म ही गवाही के रूप में साथ जाता है, वही छुड़ा सकता है या शारंगधर भगवान विष्णु ही छुड़ा सकते हैं। वहां पर तेरे से हिसाब किताब पूछा जायेगा। तब उस एक पुरुष यमराज के सामने ये तूं सम्पूर्ण चालाकियां भूल जायेगा। यहां मृत्युलोक की तरह वहां रिश्वत नहीं चलती और न ही बड़पण, जाति, धन या अन्य किसी का चारा चलता है।
शब्द-69 शब्द-69 ओ३म्- जबरारे तैं जग डांडीलो, देह न जीती जांणो। माया जालै ले जम काले, लेणा कोण समाणो। भावार्थः- एक परमपिता परमात्मा को छोड़कर उनसे भिन्न सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में कालरूपी मृत्यु ही सर्वोपरि है। इस महाकाल के गाल में यह जगत एक दिन अवश्य ही समाहित हो जायेगा। इस महाबलशाली काल ने यही जगत को दण्ड दिया है कि न तो कभी इसे स्थिर रहने देता और न ही कभी अमर होने देता। इस काल के रहते हुए देह को जीता नहीं जा सकता। यह सांसारिक मायाजाल सभी कुछ काल यम के फंदे में अवश्य ही पड़ैगी, तो फिर ऐसी स्थिति रहते हुए कौन परमात्मा से आत्मा का मिलन कर सकेगा। परमात्मा का साक्षात्कार किये बिना तो अजर अमर कैसे हो सकते हों अर्थात् जब तक माया, देह दृष्टि रहेगी, निश्चित ही काल से नहीं बच सकते। काचै पिंडे किसी बड़ाई, भोलै भूल अयांणो। म्हा देखंता देव दाणु सुरनर खीणा, बीच गया बेराणो। इस कच्चे शरीर की कौनसी बड़ाई है। इसे स्थिर अजर अमर करने की चेष्टा तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। यदि भूला हुआ कोई अज्ञानी करता है तो वह उसकी नादानी ही होगा क्योंकि कालरूपी मृत्यु ने अब तक बड़ों-बड़ों को भी नहीं छोड़ा है। मेरे देखते हुए देव, दानव तथा देवराज इन्द्र, मानवेन्द्र समाप्त हो गये, वे लोग राज्य भोग की अभिलाषा को बीच में ही छोड़कर चले गये। वे राज्य करना चाहते थे परंतु काल ने उन्हें नहीं छोड़ा। कुम्भकरण महारावण होता, अबली जोध अयाणो। कोट लंका गढ़ विषमा होता, कांयदा बस गया रावण राणो। इसी संसार में कभी कुम्भकरण एवं महिरावण जैसे प्रथम दर्जे के योद्धा हुआ करते थे उसी समय ही रावण जैसा राजा था, जिनके लंका जैसा चारों और से समुद्र से घिरा हुआ विचित्र अद्वितीय कोट (किला) था। उसी महान स्वर्ण महल में कुछ दिन तक रावण रहा था और भी रावण कुछ विशेषतायें थी जैसेः- नौ ग्रह रावण पाए बन्ध्या, तिस बीह सुर नर शंक भयाणो। ले जम काले अति बुधवंतो, सीता काज लुभाणो। रावण ने नवग्रहों को महल के एक कोने में बांध रखा था क्योंकि उसे इन रवि, सोम,मंगल,बुद्ध,बृहस्पति,शुक्र,शनि,राहु,केतु इनसे ही भय रहता था कि कभीभी तेरे ऊपर हावी हो सकते हैं। इसलिए इनको तो बांधकर अपने वश में कर लिया था। रावण मृत्यु से निडर हो चुका था। रावण तो किसी से भयभीत नहीं किन्तु रावण से देवता, मनुष्य, राक्षस सभी सदा ही भयभीत रहा करते थे। वह रावण चारों वेदों का ज्ञाता महान पण्डित था। वेदों का जानकार होते हुए भी विद्या का सदुपयोग जीवन में नहीं किया करता था। बुद्धि का अतिक्रमण करते हुए, अनेक रानियां महल में होते हुए भी सीता की प्राप्ति के लिए लोभ हुआ। जिस कारण से वह भी कुम्भकरण, महिरावण, मेघनाद तथा राक्षस सेना सहित यमकाल के हाथों चढ़ गया। अपनी रक्षा नहीं कर सका और नही सेना, लंका, ऐश्वर्य की रक्षा कर सका। भरमी बादी अति अहंकारी, करता गरब गुमानो तेऊ तो जम काले खीणा, थीर न लाधो थाणो। और भी अनेक भ्रम में पड़े हुए, व्यर्थ के कुतर्क करने वाले, अत्यधिक अहंकारी ये लोग कभी विद्या, धन, शरीर, कुल का गर्व किया करते थे, वे भी यम काल के सामने नहीं टिक सके, काल से ग्रसित हो गये। आज उनका वह शरीर, घर, परिवार, देश वहां पर स्थिर नहीं रहा अर्थात् जड़मूल से ही नष्ट हो गये। काचै पिंड अकाज अफारूं, किसो पिराणी माणो। साबण लाख मजीठ बिगूता, थोथा बाजर घाणो। इस नाशवान कच्चे शरीर को लेकर पाप कर्म करना तो यह बहुत बड़ा जोखिम मोल लेना है तथा इतना नुकसान उठा करके भी अपनी बड़ाई का बखान भी कैसा? हे प्राणी! तू गर्व भी इसी क्षणिक काया को प्राप्त करके करता है, यह भी तेरी नासमझ ही है। जिस प्रकार से साबुन, लाख, मजीठ का कोई विश्वास एवं स्थिरता धैर्यपना नहीं है उसी प्रकार से ही यह तेरा शरीर है। जैसे साबुन पानी के साथ घिसने से घुल जाती है और मैल को काटती है। उसी प्रकार से शरीर भी काल के साथ व्यतीत हो रहा है तथा दूसरों की निन्दा करके उनके मैल तो काटता है, किन्तु अपने ऊपर स्वयं चढ़ाता है। जिस प्रकार लाख अग्नि के सामने पिघल जाती है, ठण्डी होने पर फिर कठोर हो जाती है उसी प्रकार यह शरीर भी कभी तो किसी दूसरे के दुःख को देखकर द्रवित हो जाता है और फिर वही थोड़ी देर में कठोरता धारण कर लेता है तथा समय आने पर अग्नि मंे लाख व शरीर दोनों समान रूप से जल जाते हैं। लाख के ऊपर मजीठ रंग चढ़ाया जाता है वह भी समय पाकर उतर जाता है उसी प्रकार इस शरीर का सौन्दर्य भी टिकाऊ नहीं है। ये सभी ‘बिगूता’ है अर्थात् विश्वासहीन तथा अस्थिर है एवं इसी प्रकार से ही बाजरी आदि धान निकाल लेने पर पीछे भूसी (डूरा) ही थोथा अवशेष रह जाता है उसी प्रकार से इस शरीर से जीवात्मा निकल जाने पर भूसी की तरह ही यह शरीर हो जायेगा। दुनियां राचै गाजै बाजै, तामें कणू न दाणू। दुनियां के रंग सब कोई राचै, दीन रचै सो जाणो। इस दुनियां के लोग तो गाने-बजाने नृत्य से अधिक खुश होत हैं। उसी में ही अपने मन को लगाकर देखते-सुनते हैं किन्तु वह सार वस्तु नहीं है। वह तो अन्नविहीन भूसी की तरह ही है जिसके अन्दर से कण तत्व मिलने वाला नहीं है तथा दुनियां के रंग में तो सभी कोई रचते हें। दुनियादारी के चक्कर में तो सभी फंस जाते है किन्तु उस दीनदयालु में कोई विरला ही रचता है। वास्तविक रचना तो वही है। मैं तो उसी का ही जीवन सफल मानता हूं। लोही मास बिकारो होयसी, मूर्ख फिरै अयाणो। मागर मणियां काच कथीरन राचो, कूड़ा दुनी डफाणो। जब लोहू और मांस में विकार उत्पन्न हो जायेगा अर्थात् रोग लग जायेगा तब मूर्ख इधर-उधर भटकेगा। इससे तो अच्छा है कि पहले ही उपाय कर लिया जाय ताकि रोग आये ही नही। इसके लिए खान-पान, व्यवहार पर नियंत्रण रखना परमावश्यक है। स्वयं तो मगरे में प्राप्त होने वाले मनिके तथा कांच कथीर में ही रच रहा है। इन्हें सत्य हीरे मोती मानता रहा तथा दुनियां को भी भुलावे में डालकर पागल बनाता रहा अर्थात् स्वयं तो कल्पित देवी देवताओं के चक्कर में पड़कर उन्हें ही असली परमात्मा मानता रहा तथा अन्य लोगों को भी झूठे सब्जबाग दिखाकर भ्रमित करता रहा। यह तेरा झूठा व्यवहार था। चलन चलन्तै, जीव जीवन्तै, काया निवन्ती, सास फुरंतै। कांयरे प्राणी विष्णु न जंप्यो, कीयो कंधै को तांणौ। इस झूठ-कपट की बासना का परित्याग करके शरीर चलते हुए,जीवन जीते हुए, काया स्वस्थ रहते हुए तथा श्वांस चलते हुए हे प्राणी! तैनें विष्णु का जप क्यों नहीं किया और संसार में रहकर तूने नम्रता का व्यवहार न करते हुए शरीर का ही जोर बताया। इस शरीर की ताकत तुझे अच्छे कार्यों में लगानी थी किन्तु तुमने इससे कमजोर लोगों को कष्ट दिया है। इसलिए तेरे से भी ऊपर कोई शक्ति ताकतवर है, वह एक दिन आयेगी। तिहिं ऊपर आवैला जंवर तणा दल, तास किसो सहनाणो। ताकै शीष न ओढ़ण, पाय न पहरण, नैवा झूल झयाणो। ऐसे लोगों के ऊपर एक दिन जबरदस्त यम के दूतों का दल आयेगा। वह दल कैसा भयंकर होगा यह बतलाते हैं। न तो उनके सिर पर ओढ़ने के लिए पगड़ी तथा कुर्ता ही होगा और नही पांवों में पहनने के लिए जूते ही होंगे और न ही अन्य केाई शरीर ढ़कने लिए भी वस्त्र ही होगा। धणक न बाण न टोप न अंगा, टाटर चुगल चयाणो। साल सुचंगी घृत सुबासो, पीवण न ठंडा पाणी। तथा न तो उसके पास धनुष ही होगा और न ही बाण होगा और न ही शस्त्र से शरीर रक्षा के लिए टोप ही होगा। वे अति भयंकर काले कलूटे, चुगलखोर, जीवों को शरीर से निकालकर इकट्ठे करने वाले होंगे। ऐसे लोगों के हाथ में यह जीव पड़ जायेगा तथा इस जीव को जंजीर में बांधकर बेरहमी से ले जायेंगे, वहां पर नरक में डाल देंगे। वहां आगे नरक में भी भयंकर दुःख झेलना पड़ेगा। जैसे-वहां पर न तो सुन्दर शाल कम्बल आदि ही मिलेंगे। इसीलिए सर्दी का दुःख झेलना पड़ेगा और न ही खाने के लिए घी मिष्ठान्न भोजन ही प्राप्त होगा तथा न ही पीने के लिए ठण्डा जल ही प्राप्त होगा। सेज न सोवण, पलंग न पोढ़ण, छात न मैड़ माणो। न वां दइया न वां मइया, नागड़ दूत भयाणो। और न तो वहां पर सुखपूर्वक सोने के लिए फूलों की सुुन्दर सेज ही है और न ही सामान्य पलंग ही है जिस पर सोंया जा सके और न ही कोई छतवाला भवन ही है जिसके नीचे रक्षा की जा सके और न ही महल, मठ,मन्दिर ही है जहां पर आनन्द मनाया जा सके। न तो वहां दादी है और न ही वहां माता है जो दुःख में पुकारने पर आकर रक्षा कर सके। वहां तो केवल नंगधड़ंग भयावने यम के दूत ही है जो पुकारने पर उपस्थित हो जायेंगे तथा अधिक कष्ट में ही डालेंगे। काचा तोड़ नीकुचा भाषै, अघट घटे मल माणो। धरती अरु असमान अगोचर,जातैं जीव न देही जाणो। जब दुःिखत अवस्था में प्राणी पुकार करेगा तो और भी कष्ट देने के लिए कच्चे शरीर का मांस निचोड़ेंगे तथा कुवचन बोलकर कष्ट को द्विगुणित कर देंगे। वहां पर नरक में ऐसी अनहोनी घटनायें होगी, जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी तथा चारों और मलमूत्र का साम्राज्य होगा जिससे वातावरण दुर्गन्धमय हो जायेगा। जब यह शरीर देह से बाहर निकलकर गमन करेगा, तब इस धरती से ऊपर आकाश की और उठेगा तो वह इन आंखो से दिखाई नहीं देगा। न तो ऊपर ले जाते हुए जीव को कोई सम्बन्धी रोक ही सकेगा और न ही उसे देख ही सकेगा क्योंकि इस पंचभौतिक देह में यह सामथ्र्य नहीं है। आवत जावत दीसे नाहीं, साचर जाय अयाणो। जंवर तणा जमदूत दहैला, मल बैसेंला माणो। यह जीव न तो शरीर में आता दिखाई देता है और न निकलता ही दिखाई देता है। यदि सत्य धर्म को लेकर जाता है तब तो उसका आना-जाना सफल है नहीं तो व्यर्थ का ही कष्ट उठाता है। खाली हाथ जाने पर तो यमदूत उन्हें अवश्यमेव कष्ट देंगे ही तथा मलमय नरक में डाल देंगे क्योंकि उसने अपनी प्रतिज्ञा करके उसको निभाया नहीं है। तातैं कलीयर कागा रोलो, सूना रह्या अयाणो। आयसां जोयसां भणता गुणंता, वार महूर्ता पोथा थोथा। पुस्तक पढ़िया वेद पुराणों। जब यह जीव शरीर को छोड़कर चला जाता है या यमदूत जबरदस्ती ले जाते हैं तो पीछे कौवों की भांति रोना चिल्लाना पुकारना ही रह जाता है किन्तु यह शरीर तो जीव बिना शून्य हो जाता है। घर बार भी थोड़ी देर के लिए शून्य सा मालूम पड़ता है किन्तु वह शून्यता कुछ दिनों पश्चात समाप्त हो जाती है। इस मृत्यु तथा यमदूतों से तो क्रिया तथा शुभकर्म विहीन योगी, संन्यासी, नाथ, ज्योतिषी, भजनीक, गुणी भी नहीं बच सकते तथा न ही वार, मुहूर्त पुस्तक ही रक्षा कर सकेगी तथा आचारहीन पुस्तक वेद पढ़े हुए पंडित भी नहीं बच सकते। एक दिन सभी को काल से कवलित होना ही पड़ेगा। भूत परेती कांय जपीजै, यह पाखण्ड परमाणो। कान्ह दिशावर जेकर चालो, रतन काया ले पार पहूंचो। रहसी आवा जाणो। भूत-प्रेतों को क्यों जपते हो? वास्तविक में तो यह सत्य मार्ग नहीं है किन्तु पाखण्ड ही है। भूत-प्रेतों की सेवा पूजा पाखण्डी लोग ही स्वार्थ सिद्धि के लिए करवाते हैं तथा स्वयं भी करते हैं। यदि आप लोग कृष्ण गीता के बताये हुए मार्ग पर चलोगे तो इस तुम्हारी रत्न सदृश अमूल्य सूक्ष्म काया को ले करके मुक्तिधाम को पंहुच जाओगे तथा तुम्हारा बार-बार जन्मना मरना रूप चक्र मिट जायेगा। तांह परैरे पार गिरांये, तत के निश्चल थाणो। सो अपरंपर कांय न जंपो, तत खिण लहो इमाणो। इस मृत्युलोक, नरक तथा स्वर्ग से भी आगे परमात्मका का सत्य सनातन अपरिवर्तनशील बैकुण्ठलोक है, वहीं पंहुच करके स्थिरता आ जाती है। इससे पूर्व तो आवागमन का चक्र चलता ही रहता है। इसीलिए वहां तक पंहुचने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये। उसी बैकुण्ठधाम के स्वामी विष्णु जिनकी महिमा अपरंपर है यानि पार नहीं पाया जा सकता, उनका ही स्मरण भजन क्यों नहीं करते। क्यों भूत-प्रेतों के चक्कर में फंसे हुए हो तथा उन परम दयालु विष्णु की प्राप्ति तो तत्क्षण ही हो जाती है। भूत-प्रेतों की भांति किसी प्रकार की भोग्य वस्तुओं तथा अन्य किसी दिखावे की जरूरत नहीं है। बिना कुछ त्याग किये ही आप केवल स्मरण मात्र से ही प्राप्त कर सकते हैं। भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेलत डालूं। जइया मूल न सींच्यो, तो जामण मरण बिगोवो। इसीलिए हे प्राणी! भूत-प्रेत रूपी डाल पतों मे ंपानी न देकर अच्छा जो मूलरूप भगवान विष्णु है उसमें ही जल डालो। ऐसा करने से वह मूल ही डाल पते, फूल फल रूप में विकसित होगा तथा अनन्तकाल तक मधुर फलदायी होगा और जो लोग इस प्रकार के मूल रूप विष्णु को स्मरण समर्पण भाव नहीं करते है वे लोग बार बार जनम-मरण के चक्र में पड़ते हैं, नाना प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। कभी भी दुःखों का अन्त नहीं आता। अहनिश करणी थीर न रहिबा, न बंच्या जम कालूं। कोई कोई भल मूल सींचीलो, भल तंत बूझीलो। जा जीवन की विध जाणी। दिन-रात भाग दौड़ करके कमाया हुआ धन स्थिर नहीं रहेगा और न ही कोई भी वस्तु यमदूत काल से बच ही सकेगी। किन्तु संसार के अधिकतर लोग तो धन कमाना, इकट्ठा करना इसी मार्ग पर ही चलते हैं तथा इसी संसार में कुछ-कुछ ऐसे विरले होते हैं जो अच्छे मूल स्वरूप भगवान विष्णु को अपने जीवन में अपनाते हैं और वे लोग किसी सज्जन संत पुरुष से भले तत्व प्राप्ति की बात पूछते भी हैं। जो ऐसा करते हैं वे लोग ही जीवन की विधि, जीने की कला व तरीका जानते हैं वे लोग जीवन को सफल कर लेते हैं। यह जीवन सुखमय व्यतीत करते हैं तथा परलोक भी सुखमय बना लेते हैं। जीव तड़ा कछु लाहो होसी, मूवा न आवत हाणी। जब तक जीवन रहेगा, तब तक उसे जीवन प्राप्ति का आनन्दरूपी लाभ मिलेगा तथा यदि जब कभी भी मृत्यु होगी तो भी कोई हानि नहीं होगा क्योंकि उसने जो तत्व प्राप्ति करने लिए कमाई करनी थी वह तो कर चुका। जीवन धारण करता रहे तब भी आनन्द और जीवन न रहे तब भी आनन्द हो जाता है, ऐसा जीवन जीना ही मानव का कर्तव्य है। इसीलिए हे जमाती लोगों! ज्ञानी के लिए मृत्यु का भय ही समाप्त हो जाता है तो फिर वह इस पंचभौतिक शरीर रक्षा का उपाय ही नहीं सोचेगा। उसके लिए जीवन मृत्यु दोनों बराबर है।
शब्द-70
शब्द-70 ओ३म्- हक हलालूं, हक साच कृष्णों, सुकृत अहल्यो न जाई। भावार्थः-राजा के लिए तो विशेष रूप से हक की कमाई पर ही संतोष कर लेना सत्य के नजदीक पंहुचना है। राजा प्रजा से कर रूप में जो धन लेता है उसमें राजा का हक नहीं होता, वह तो प्रजा के खून पसीने की कमाई हैै। उसे तो प्रजा के हितार्थ में ही लगाना राजा का कर्तव्य है। अनधिकार रूप से प्रजा का धन तथा अन्य किसी दूसरे राजा पर अधिकार करने की चेष्टा बेहक है। इसीलिए अपनी मर्यादा सीमा में रहते हुए परिश्रम द्वारा जो धन प्राप्त होता है वही सच्चा धन है जो सत्य मार्ग से प्राप्त किया है। इस प्रकार से परिश्रम द्वारा किया हुआ सुकार्य व्यर्थ में नहीं जाता, उसका फल अवश्यमेव प्राप्त होगा। देर हो सकती है किन्तु अंधेर नहीं है। भल बाहीलो भल बीजीलो, पवणा बाड़ बलाई। जीव कै काजै खड़ो ज खेती, तामें ले रखवालो रे भाई। सुफल की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम खेती की जुताई, गुड़ाई, सफाई की जाती है। तत्पश्चात् उसमें समय आने पर अच्छे बीज बोये जाते हैं तथा खेती की रक्षार्थ मजबूत कांटों की बाड़ चारों तरफ लगाई जाती है। उसी प्रकार से इस मानव जीवन रूपी खेती में भी यदि अच्छा फल चाहता है तो इस शरीर रूपी क्षेत्र में सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्ति की योग्यता धारण करनी होगी तथा योग्यता के लिए स्नान, शौच, सद्व्यवहारादि सद्गुणों को धारण करना होगा। जब शरीर शुद्ध हो जायेगा तब उसमें सद्ज्ञान रूपी बीज बोया जायेगा और बीज अंकुरित हो जाने के बाद उस ज्ञान के फल आनन्द की रक्षार्थ पवित्रता रूपी बाड़ चारों तरफ लगानी होगी जो सांसारिक मोह मायादि तूफानों से उड़ न सके। हे प्राणी! इस प्रकार से इस जीव की भलाई के लिए यह साधना रूपी खेती कर तथा खेती के रक्षार्थ एक रखवाला भी रखना होगा। वह तो तेरा स्वयं का मन ही हो सकता है क्योंकि वही खेती का कर्ता भी है। उसे ही रखवाला रखना होगा क्योंकि आगे कई विपतियां आने वाली है। दैतानी शैतानी फिरैला, तेरी मत मोरा चर जाई। उनमन मनवा जीवन जतन कर, मन राखीलो ठांई। तुम्हारी खेती जब पकने की तैयारी में होती है तो उसी समय ही कभी दिन या रात्रि में मौका पाकर स्वतंत्र विचरण करने वाले दैत्यस्वरूप भैंसा (झोटा) और शैतान स्वरूप सांड आकर तुम्हारी खेती को तहस नहस कर सकते हैं। उसी प्रकार से ही इस साधनारूपी खेती को भी समाज में स्वच्छन्द विचरण करने वाले ये मदमस्त राक्षस एवं शैतान दुष्ट स्वभाव वाले मानव कभी भी तुम्हारे सत्य ज्ञान मार्ग को नष्ट भ्रष्ट कर सकते हैं तथा सावधान न रहने से तो तुम्हारी बुद्धि को मयूर रूपी अहंकार नष्ट कर देगा। इसीलिऐ मनरूपी रखवाले को स्थिर सावधान रहना होगा। क्योंकि यह रखवाला स्वयं ही बहुत चंचल है, इसे उनमन स्थिर यानि एकाग्र होकर खेती की रक्षा करनी होगी। यह साधना जीव की भलाई के लिए ही करनी चाहिये तथा सच्ची खेती भी उसे ही कहना चाहिये जिससे जीव की भलाई हो। जीव के काजै खड़ो ज खेती, वाय दवाय न जाई। न तहां हिरणी न तहां हिरणा, न चीन्हों हरि आई। अपने जीव की भलाई के लिए ही साधना रूपी खेती करों जिससे यह सदा के लिए ही जन्म मरण के चक्कर से छूट सके किन्तु साधना तथा खेती करते समय कुछ बातों का ध्यान भी रखना परमावश्यक है जैसे सर्वप्रथम तो खेती को उड़ाने या दबाने वाले हवा के भयंकर तूफान जो खेती को मूल से या तो मिट्टी के नीचे दबा देते हैं या उड़ाकर ले जाते हैं। उसी प्रकार से साधना में भी आने वाले अनेक प्रकार के लोभ,मोह,काम,क्रोध आदि तूफान या तो उसे साधना से निवृत कर देते हैं या उसकी साधना को दबा देते हैं। इनसे सावधान रहना परमावश्यक है। तथा अन्य और कई प्रमुख बाधायें खेती करने वाले किसान को आती है, वहां कभी हरिण हरिणियां एवं हरियावड़ी गायें भैंसंे आदि जो जबरदस्ती से खेत में घुस जाती है और फसल को खा जाती है। किसान की तरह ही साधक होता है वह भी यदि अपनी साधना की रक्षा नहीं कर सकेगा तो हरिण रूपी मन एवं हरिणियां रूपी मन की वासनायें जो अति चंचल है वे साधना को नष्ट कर सकती है। वैसे तो मन स्वयं रखवाला है किन्तु बाड़ स्वयं खेत को खाने लग जाय तब तो और भी समस्या पैदा हो जाती है। उसी प्रकार से साधक को भी सूक्ष्म वासनाओं से समस्या अधिक पैदा हो जाती है तथा बुद्धि का नियंत्रण मन ऊपर होना चाहिये था किन्तु बुद्धि सात्विक, शुद्ध, कुशाग्र नहीं होने से वह भी जबरदस्ती करने वाली गाय की तरह हो जाती है। उसे सद्-असद् का विवेक नहीं रहता तो वह भी विचारशून्य होकर साधना में बाधा ही उत्पन्न करेंगी। न तहां मोरा न तहां मोरी, न ऊंदर चर जाई। और भी अनेकों बाधायें आती है। वहां खेती को खाने वाले मयूर-मयूरी तथा चूहे भी रहते हैं, ये भी खेती को उजाड़ देते हैं, किसान को इनसे भी सावधान रहना पड़ता है तभी खेती तैयार होती है। ठीक उसी प्रकार से साधक को भी मयूर रूपी अहंकार एवं अहंकार वृति गर्व, मोरापन रूपी मयूरनियों से सावधान रहना होगा। ये साधक द्वारा की गयी सम्पूर्ण साधना पर कभी भी पानी फेर सकते हैं और दूसरे सबसे अधिक शत्रु तो चूहे होते हैं। उनसे तो बचना अति कठिन होता है किन्तु उनसे बचना भी परमावश्यक है। उसी प्रकार से साधक को भी अचेत रूपी चूहे कभी भी मन्दमति कर सकते हैं। इसीलिए सदा सचेत रहना चाहिये कि कहीं चूहे खेत में बिल तो नहीं बना रहे हैं अर्थात् में कहीं अचेत अवस्था में पड़ा हुआ समय को व्यर्थ में नहीं गवां रहा हूं। इस प्रकार से सदा जाग्रत रहकर खेती व साधना की रक्षा की जा सकती है। कोई गुरु कर ज्ञानी तोड़त मोहा, तेरो मन रखवालो रे भाई। जो आराध्यो राव युधिष्ठिर, सो आराधो रे भाई। हे मल्हूखान एवं सांतलराव! यदि इन विघ्न बाधाओं से बचना चाहते हो तो किसी ज्ञानी गुरु की शरण में जाओ, वह तुम्हारे मोह बन्धन को तोड़ देगा। जब तक आप लोग मोह के बन्धन में फंसे रहोगे तब तक तुम्हारी साधना कभी सफल नहीं हो सकेगी। जब गुरु के आशीर्वाद से मोह का बन्धन टूट जायेगा, तब तुम्हारी खेती को चरने वाला यह चंचल मन भी उसी खेती का रक्षक हो जायेगा। जिस प्रकार से धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य करते हुए भी धर्म तथा सत्य का पालन रूपी साधना की, वैसी ही आप लोग करो। आप भी तो राज्य करते हुए भी धर्मराज की पदवी को प्राप्त कर सकते हो तथा तुम्हें इसके लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिये।
शब्द-71
ओ३म्- धवणा धूजे, पाहण पूजे, बेफरमाई खुदाई। गुरु चेले के पांये लागे, देखो लोग अन्यायी। भावार्थः- इस समाज में कुछ तो संन्यासी नाथ आदियों ने वस्त्र तथा मकान को त्याग दिया और सर्दी निवारण के लिए धूंणी धूकाते हैं। वहां पर पूर्णतया सर्दी से नहीं बच सकते, इसीलिए कांपते हैं ठंडी से परेशान हो जाते हैं। फिर भी अपना व्यर्थ का हठ नहीं छोड़ते। अग्नि जलाकर बैठने को ही धर्म मान बैठे हैं। उन लोगों को इतना भारी कष्ट उठा करके तो निराकार सर्वशक्तिमान तत्वरूप परमात्मा का स्मरण करना चाहिये था किन्तु ये लोग पत्थर की पूजा करते हैं। यह उनका मनमुखी मार्ग है। ईश्वरीय मार्ग से विमुख होकर पतन की और ही जा रहे हैं। ईश्वर ने धूणी धूकाना एवं पत्थरों की पूजा करना कब बताया था? हे संसार के लोगों! इस घटित घटना को देखो और विचार करो। पत्थर की मूर्ति बनाने वाला उस मूर्ति का गुरु होता है क्योंकि निर्माणकर्ता सदा ही बड़ा होता है, निर्मित वस्तु छोटी होती है। उस निर्मित वस्तु का उत्पादक वही कर्ता होता है तथा उस पत्थर को मूर्ति का आकार देकर वही गुरु रूपी कारीगर शिष्यरूपी मूर्ति के चरणों में गिरता है, हाथ जोड़ता है गिड़गिड़ाता है यह कैसा न्याय तथा बुद्धिमानी है। इन अन्यायी लोगों ने सच्चे परमात्मा की खोज तत्वान्वेषण मार्ग में बाधा पंहुचाई है। जनसाधारण को भ्रमित करके अधोगति में पहंुचाया है। काठी कण जो रूपा रेहण, कापड़ माह छिपाई। नीचा पड़ पड़ तानें धोकै, धीरा रे हरि आई। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए लोग अनेकों प्रकार से मूर्तियों का निर्माण करते हैं। उनमें मुख्य रूप से लकड़ी, स्वर्ण, चांदी तथा मिट्टी ही है तथा इनसे मूर्ति निर्माण करके कपड़े पहनाकर अनेक प्रकार से श्रृंगार भी कर देते हैं। पूर्णतया मानव का आकार देकर फिर नीचे गिरकर बार-बार धोक लगाते हैं, प्रणाम करते हैं, उससे धन दौलत की याचना भी करते हैं। वहां पर कुछ भी प्राप्त नहीं होता है तब अपने आप को तथा अन्य जनों को धैर्य धारण करने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि हरि आयेंगे, अपनी कामना पूर्ण करेंगे। यही क्रम निरंतर चलता रहता है। ब्राह्मण नाऊं लादण रूड़ा, बूता नाऊं कूता। बै आपां ने पोह बतावै, बैर जगावै सूता। जो मानव ब्रह्म को जानता है तथा तदुनसार ही संसार में क्रियाकलाप करता है अर्थात् वेद शास्त्र की विद्या में प्रवीण होकर तद्नुसार जीवनयापन करता है। वह व्यक्ति परमादरणीय है वही ब्राह्मण है। किन्तु जो महामूर्ख या आचार, विचार, क्रिया, ब्राह्मण कर्म से गिरा हुआ है, वह चाहे ब्राह्मण के घर जन्म भी क्यों न ले लेवें, वह समाज को हमेशा धोखा देता है। ऐसे ब्राह्मण से तो गधा ही अच्छा है जो समाज की सेवा करता है, कभी पाखण्ड नहीं करता, कभी धोखा नहीं देता, अपनी पीठ पर भार उठाकर दूसरों को राहत पंहुचाता है। भूले-भटके को भी अपनी आवाज से सचेत करके मार्ग का निर्देश भी देता है। तथा पत्थर की बुत से तो कुता ही अच्छा है जो चोरों से स्वयं की रक्षा करता हुआ घर के मालिक को भी जगा देता है तथा शत्रु से भी सावधान कर देता है दिशा भ्रमितजन को भोंक करके गांव होने का आभास करा देता है। किन्तु मूर्ति न तो चोरों से स्वयं की ही रक्षा कर सकती है और न ही मालिक पुजारी को ही सचेत कर सकती है तथा न ही दिग्भ्रमितजनों को मार्ग ही निर्देश कर सकती। कुता सजीव प्राणी होने से ईश्वरीय सता उसमें प्रतिफलित होती है किन्तु मूर्ति में तो सजीवता न होने से सता का दर्शन असम्भव है। इसीलिए बुत से तो कुता अच्छा है। भूत परेती जाखा खांणी, यह पाखंड परवाणो। बल बल कूकस कांय दलीजै, जामें कणूं न दाणूं। भूत, प्रेत, यक्ष, पिशाच आदि योनियां वायु तत्व प्रधान होती है। ये कभी कहीं किसी स्थान में अपना प्रभाव दिखाती है किन्तु वह क्रियाकलाप केवल पाखण्ड मात्र ही होता है। वहां पर सच्चाई नहीं होती क्योंकि मानव तथा उन योनियों का कोई संबंध नहीं है। न तो वे मानव का कुछ भला ही कर सकती और न हीं कुछ बिगाड़ सकती है जो मानव शुद्ध मानवता के धर्म से गिर जायेगा, आसुरी भाव को प्राप्त हो जायेगा तो उन्हीं पर अपना पाखण्ड दिखाती है तो वह मानव डरकर उनकी पूजा सेवा प्रारम्भ कर देता है। भूत-प्रेतों की सेवा पूजा तो बार-बार अन्न निकले हुए कूकस को फिर दलना है। उसके अन्दर से अन्न प्राप्ति की कोशिश करना ही है किन्तु वहां पर दाना व कंण कहां प्राप्त होता है। उसी प्रकार से भूत-प्रेतों में भी वह कणतत्व रूप आनन्द कहां मिलता है। परिश्रम व्यर्थ ही करना है। तेल लीयो खल चैपे जोगी, खलपण सूंघी बिकाणो। ये भूत-प्रेत पहले कभी मानव ही थे, उनकी अकाल मृत्यु हो गयी, अनेक प्रकार की वासनायें रह गयी, जीवन खाली रह गया था। मृत्यु के बाद में जीव अधोगति में गिर गया। इनकी तो ऐसी ही दशा हो गयी, जिस प्रकार से तिलहन से तेल निकाल लिया जाता है तो पीछे खली पशुओं के काम की रह जाती है सूंघी बिकती है। उसी प्रकार से जीवात्मा शरीर से निकल गयी, मानव शरीर तो चला गया अब तो उनका भूत-प्रेत का शरीर खली के समान ही व्यर्थ का है। उनकी पूजा से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। वह स्वयं शक्तिहीन योनी तुम्हारा भला कैसे कर सकती है। कालर बीज न बीज पिराणी, थलसिर न कर निवाणो। नीर गए छीलर कांय सोधो, रीता रह्या इवाणो। हे प्राणी! इस प्रकार से तू भूत, प्रेत, मूर्ति आदि की पूजा तथा पाखण्डियों के जाल मंे पड़कर अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ में ही समाप्त मत कर। तेरी भी वही दशा होगी, जैसी दशा कालर ऊसर भूमि में बीज बोने वाले व्यक्ति तथा बालू के टिबे ऊपर तालाब खोदने वाले की होती है। न तो ऊसर खेती में बीज ही जमकर फल देता है और न ही बालू के धोरे ऊपर पानी ही ठहरता है। मेहनत तो भूत प्रेत भी करता है और मेहनत वह बीज बोने तथा तालाब खोदने वाला भी करता है। दोनों का परिश्रम व्यर्थ ही सिद्ध होता है। पानी बरषता है तब बालाब में भी पानी नहीं ठहरता, वहां पर छोटे बालू का मय छीलरिये में क्या देखते हो तथा कालर में फल की भी आशा क्यों करते हो? दोनों ही खाली रह जायेंगे। इसीलिए भूत-प्रेतादि सेवा में धन,बल,समय लगाना व्यर्थ ही है। भंवता ते फिरता फिरंता ते भवंता, मड़े मसाणे तड़े तड़ंगे। पड़े पंखाणे ह् वातो सिद्धि न काई, निज पोह खोज पिराणी। जो भूल में पड़े हुए है, वे लोग ही भटकते हैं और जो लोग मेड़ी, शमशान, तालाब व तालाबों की पाल पर या पड़े हुए पत्थरों के पास भटकते हैं, वे ही अधिक भ्रमित होते है किन्तु वहां पर सिद्धि कहां है। यदि तुझे सिद्धि ही प्राप्त करनी है तो इन पत्थरों, पालों, मेड़ी को छोड़कर सद्मार्ग की खोज कर। वह सद्मार्ग ही तुझे गन्तव्य स्थान तक पंहुचा सकता है। बिना मार्ग प्राप्त किये अब तक कोई नहीं पंहुच सका है। जे नर दावो छोड्यो मेर चुकाई, राह तेतीसों की जाणी।। जिस जिज्ञासु मानव ने किसी दूसरे कमजोर प्राणी पर अपना अधिकार जताना छोड़ दिया है। गरीब,धनवान,छोटे-बड़े,स्वामी,सेवक के भेदभाव से निवृत हो चुका है यानी नम्रशीलता को धारणा कर चुका है तथा यह मेरा है, मैं इसका हूं, इस प्रकार का मेरापन मिटा दिया है। उस मानव ने ही मानों तेतीस करोड़ प्राणियों के मार्ग को जान लिया है। उसी मार्ग पर चल पड़ा है। एक दिन अवश्यमेव उन बैकुण्ठवासी तेतीस करोड़ प्राणियों से मेल अवश्य ही करेगा, उनमें भी इक्कीस करोड़ तो इसी मार्ग को पकड़कर पंहुचे हैं और बारह को अब पंहुचना शेष है। वे सभी मिलकर तेतीस पूरे हो जायेंगे |
शब्द -72
शब्द -72 ओ३म्- वेद कुराण कुमाया जालूं, भूला जीव कुजीव कुजाणी। बसंदर नहीं नख हीरूं, धर्म पुरुष सिर जीवै पूरूं। भावार्थः- हिन्दुओं का प्रधान ग्रन्थ वेद है तथा मुसलमानों का कुराण। हिन्दू वेद पर गर्व करते हैं तथा मुसलमान कुराण पर। वेद या कुराण ये दोनों ही बहुत बड़े हैं, इनमें अनेकों प्रकार की बातें कही गयी है। बड़े ही परिश्रम से यह एक शब्देां का जाल गुंथा गया है। इस जाल में फंस तो जाते हैं किन्तु निकलना नहीं जानते। तत्कालीन भाषा में अति दुरुह तथा परस्पर विरोधी वार्ता होने से अध्ययनकर्ता संशय में पड़ जाता है। इसीलिए वेद मंत्रों की मीमांसा आदि कई ग्रन्थों में व्याख्या की गई है तथा भूले हुए प्राणी तथा कुजीव दुष्ट प्रकृति वाले तो अपने ही तरीके से उन मंत्रों का अर्थ निकाल लेते हैं। उससे यज्ञ जैसे पवित्र कार्य में भी हिंसा का बोलबाला पहले हो गया था। एक ही मंत्र के अनेक अर्थ हो सकते हैं। इस सुविधा का लाभ कुजीव अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए करते हैं। अग्नि देवता कभी भी हीरे का नग नहीं हो सकती। अग्नि तो अग्नि ही है तथा हीरा तो हीरा ही है। अग्नि में दाहकत्व जलाना प्रकाश देना शक्ति होती है। यह हीरे में नहीं है। फिर भी अपनी जगह पर अग्नि का वह सूक्ष्म रूप हीरा भी अपना विशेष महत्व रखता है अर्थात् वेद तो अग्नि सदृश है तथा शब्दवाणी हीरे के सदृश है। ये दोनों तो अपने अपने स्थान में महत्वपूर्ण है। हीरे के नग से अलंकार बनता है तथा प्रकाश सौन्दर्य भी सर्वगाह्य सुलभ है किन्तु अग्निरूप वेद से तो हाथ जलने का सदा ही डर बना रहता है। इसीलिए अग्नि को देखकर हीरे को त्याग नहीं करना चाहिये। जो धार्मिक पुरुष होगा, वही इन हीरे की परख को जान सकेगा तथा इस शब्दवाणी रूपी हीरे को ग्रहण करके जीवन को पूर्ण करके आनन्द को प्राप्त होगा। कलि का माया जाल फिंटाकर प्राणी, गुरु की कलम कुरांण पिछाणी। दीन गुमान करैलो ठाली, ज्यूं कण घातै घुण हांणी। इसीलिये हे प्राणी! कलयुग की माया का जाल बहुत ही फैल चुका है तथा फैलता ही जा रहा है। इसमें फंसना नहीं। इस माया के नये नये आविष्कारों को देखकर आश्चर्य चकित नहीं होना। उसी जाल को ही सत्य मानकर उसमें फंस नहीं जाता। सद्गुरु के बताये हुए शब्द ज्ञान को ही वेद, कुराण मानकर उन्हें समझकर तद्नुसार ही जीवन को बनाना। वह दिन रात रूप से व्यतीत होने वाला काल तेरे अहंकार को एक दिन तोड़ देगा। तुझे विद्या,धन,बल, परिवार, मजहब आदि का अहंकार हो चुका है किन्तु ध्यान रखना जिस प्रकार से धान, मोठ, बाजरी, गेहूं आदि में घुण (कीट) विशेष जब अन्दर घुस जाता है तो वह दाने के अन्दर के कण भाग को खा जाता है तो वह दाना थोथा हो जाता है। उसी प्रकार तेरे अन्दर भी मजहब रूपी काल बैठा हुआ है। तेरे अहंकार को दिनोंदिन काटता जा रहा है, एक दिन पूर्णतया समाप्त कर देगा तो तुझे इहलोक छोड़कर जाना होगा। इससे तो यही अच्छा है कि तू अपनी इच्छा से ही अभिमान को छोड़कर निरभिमानी हो जा। सरल मार्ग को अपनाकर सहज जीवन जीना प्रारम्भ कर, उस महाकाल से तू युद्ध में तो जीत नहीं सकेगा। जो यही अच्छा है कि उससे समझौता कर ले। साच सिदक शैतान चुकावों, ज्यूं तिस चुकावै पांणी। मैं नर पूरा सर विणजां हीरा, लेसी जांके हृदय लोयण। अन्धा रह्या इंवाणी। जिस प्रकार से प्यास को जल मिटा देता है अर्थात् जल के अभाव में तो भयंकर प्यास लगी थी तथा जल के मिल जाने पर निवृत हो जाती है, उसी प्रकार से ही सत्य, निश्छलता से शैतानता को समाप्त किया जा सकता है। सत्य, दया, प्रेम के अभाव में तो शैतानी ने आकर डेरा जमाया था सत्यादि धर्म आ जाने से यह प्यास की तरह ही चली जायेगी। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि मैं तो पूर्ण पुरुष हूं तथा इन सांसारिक कार्यकलापों के छोटे-मोटे व्यापार को छोड़कर अध्यात्म ज्ञान रूपी हीरों का व्यापार करता हूं। इन हीरे मोतियों के ग्राहक सभी नहीं होते, तभी तो हीरे जवाहरात की दुकानों पर भीड़ दिखाई नहीं देती अर्थात् यहां पर तो वही सुजीव आयेगा जिसके हृदय रूपी नैत्र खुल गये हैं। इन बाह्य चर्म चक्षुओं से तो देखते है किन्तु ह्यदय की आंख अब तक खुली नहीं है, वे न तो मेरे पास में ही आ सकेगे और न ही कुछ प्राप्त कर सकेंगे। ऐसे लोग मानव जीवन धारण करके भी पशु जैसे ही रह जायेंगे। निरख लहो नर निरहारी, जिन चोखंड भीतर खेल पसारी। जंपो रे जिण जंपै लाभै, रतन काया ए कहांणी। जिस परमपिता परमात्मा ने स्वर्ग, पाताल, मृत्युलोक तथा बैकुण्ठलोक इन चारों ही लोकों में यह सृष्टिरूपी खेल रचाया है। ‘‘एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय’’ स्वयं ही एक से बहुत बने हैं तथा यह खेल रचा है तथा जो नर रूप में निरहारी तुम्हारे सामने उपस्थित है उनको ध्यानपूर्वक देखो, स्मरण करो तथा पहचान करके अपने जीवन में अपनाओ अर्थात् परमात्मा मय जीवन को बनाओ। हृदय में प्रभु को दिव्य नर रूप ज्योति धारण करके शुभकर्म करो। उस परमात्मा की प्राप्ति का साधन भी अनेक बतलाये हैं किन्तु सबसे सरल तथा सुगम उपाय तो उनका एकाग्र मन से परमात्मा के नाम का जप ही है, उसी से ही प्राप्ति संभव है। अन्य पशु आदिक शरीरों से यह मानव काया श्रेष्ठ है इसीलिऐ इसे रत्न भी कहा जाता है। इस रत्न सदृश उत्तम काया से ही विष्णु जप द्वारा वहां तक पंहुचा जा सकता है। कांही मारूं काहीं तारूं, किरिया बिहूंणा पर हथ सारूं। शील दहूं उबारूं ऊन्है, एकल एह कहाणी। यहां पर आकर तो में किसी को तो मारता हूं अर्थात् जिनके अजर काम क्रोधादि बलवान शत्रु है, उन शत्रुओं को मार देता हूं तो वह जन भी अहंकार मोह माया रहित मृतवत ही हो जाता है तथा अन्य पुरुष जो सज्जन सात्विक प्रकृति वाले हैं उन्हें तो में पार उतार देता हूं क्योंकि ऐसे लोग तो तैयार ही थे, उन्हें तो केवल सहारे की आवश्यकता थी तथा और जो क्रिया रहित तामसिक प्रकृति वाले जन शुद्ध क्रिया रहित दृष्ट प्रकृति वाले जनों के हाथों में चढ़ चुके थे, उनको में वापिस पंथ में लाया तथा उनकी दृष्टता छुड़ाकरके शीलव्रत दिया। उन्हें सुशील बना करके भवसागर में डूबते हुए को उबार लिया। इसीलए इस कलयुग की तो यही कहानी है। मानवों के दुर्गुणों को संशोधन करके उन्हें शुद्ध सात्विक शील आचरणमय बनाना। केवल ज्ञानी थल शिर आयो, परगट खेल पसारी। कोड़ तेतीसों पोह रचावण हारी, ज्यूं छक आयी सारी। वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा कैवल्य ज्ञानी इस सम्भराथल पर आया है। इससे पूर्व तो अवतारी पुरुषों ने खेल तो रचा था किन्तु वह तो अब अप्रत्यक्ष हो चुका है तथा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा विष्णु महेश भी अप्रगट रूप से ही सृष्टि की रचना रूपी खेल खेल रहे हैं। गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि मैनें यह इस थल पर दिव्य खेल रचा है, यह प्रगट है यानि प्रत्यक्ष है। तथा यह खेल भी निरुद्देश्य नहीं है। तेतीस करोड़ की संख्या पूर्ण करने के लिए इस मार्ग का निर्माण मैनें किया है क्योंकि इससे पूर्व सत, त्रेता, द्वापर में इसी मार्ग पर चलकर इक्कीस करोड़ तो पंहुच चुके हैं और इस समय अवशिष्ट बारह करोड़ को पार पंहुचाना है। जिस प्रकार से गऊवां वन में जाती है वहां घास चरकर वापिस आते समय तालाब या कूवें पर पानी पीकर तृप्त हो जाती है तथा घर में आकर आनन्दपूर्वक बैठ जाती है। उसी प्रकार से इन जीवों को भी संसार में कर्मफल प्राप्ति के लिए भेजे थे। यहां पर कुछ दिन रहकर अपने कर्मों को भोग करके वापिस जब अपने घर परमात्मा के पास पंहुचते हैं तो वहां आनन्दपूर्वक बैठते हैं। असली तृप्ति का अनुभव उसी समय ही होता है और यदि सदा के लिए वन में ही रहना स्वीकार कर लिया तो फिर तृप्ति का अनुभव तो नहीं हो सकेगा। घास यदि मिल भी जायेगी तो पानी नहीं मिलेगा। बिना जल के तृप्ति तो नहीं हो सकती अर्थात् अपने सच्चे घर परमात्मा की ज्योति से ज्योति का मिलान हुए बिना सच्चा सुख तो नहीं मिल सकता।
शब्द-73
शब्द-73 ओ३म्- हरी कंकहड़ी मंडप मेड़ी, जहां हमारा वासा। चार चक नव दीप थर हरै, जो आपो परकासूं। भावार्थः- योगी शिला हिलाता है या शिला योगी को हिलाती है या तुझे केवल हिलती हुई दिखाई देती है या योगी ही शिला ऊपर बैठा हुआ हिल रहा है। इन बातों को आप छोड़िये, यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद ही है। मुख्य बात तो यह है कि योगी जब आसन लगाकर बैठे तो उसका आसन जरा भी हिलना डुलना नहीं चाहिये। ‘स्थिर सुखं आसनम्’ स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठना ही आसन हैं इसी आसन से योग सिद्धि होती है। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि मेरा भी तो आसन यहां पर हरी-भरी कंकेहड़ी वृक्ष के नीचे स्थिर हैं इन्हीं सम्भराथल के आसपास ऊपर नीचे कंकेहड़ी वृक्षों की बहुतायत है। ये ही हमारे लिए मंडप है तथा महल मंदिर भी है। में इनके नीचे सुखपूर्वक बहुत समय से निवास करता आया हूं, आगे भी करता ही रहूंगा। तथा इस कंकेहड़ी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ में यदि अपने ज्योतिर्मय प्रकाश का पूर्णतया विस्तार कर दूं अर्थात् सूर्य रूप अपनी ज्योति का तेज पूर्णतया विकसित कर दूं तो यह सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् चार चक्र तथा नवद्वीपों के रूप में है, यह सभी थर-थर कांपने लग सकती है। इसमें भूचाल आ जाये, यह धरती प्रकम्पित हो जाये तो इसके ऊपर रहने वाले जीव जन्तु भी व्याकुल हो जायेंगे। गुणियां म्हारा सुगणा चेला, म्हें सुगणा का दासूं। सुगणा होय सैं सुरगे जास्ये, नुगरा रह्या निरासूं। जो सद्गुणों से विभूषित सज्जन पुरुष है वो तो हमारे अच्छे शिष्यों में गिने जाते हैं। ऐसे शिष्यों के हम आधीन रहते हैं, जैसा वो चाहे हमें करना पड़ता है। सच्चा भक्त सदा ही भगवान को वश में करता आया है। जो सुगुणा शिष्य हो गया है, वह तो निश्चित ही स्वर्ग में जायेगा तथा नुगुरा गुरु रहित मनमुखी व्यक्ति इस जीवन को पाकर भी निराश ही रह जायेगा। अंत में निराशा ही हाथ लगेगी, इस जीवन के दाव को खो बैठेगा। इसीलिए गुरु धारण करना चाहिये। जाका थान सुहाया घर बैकुण्ठे, जाय संदेशो लायो। अमियां ठमियां इमृत भोजन, मनसां पलंग सेज निहाल बिछायों। जिन लोगों ने आज से पूर्व सुकृत करके बैकुण्ठवास को प्राप्त किया है वे वहां पर सुहावने दिव्य नित्य स्थायी घर में निवास कर रहे हैं, वहां पर अमृतमय मीठा स्वादिष्ट सुरुचिकर पदार्थ स्वतः ही सुलभ है तथा इच्छानुसार पलंग सुकोमल शैय्या सोने के लिए बिछाई हुई सुलभ है तथा मनसा भोग प्राप्त होने से सभी तृप्त तथा शांत भाव से विराजमान है। गुरुदेवजी कहते हैं कि मैनें यह सभी कुछ अपनी आंखों से देखा है तथा उनका संदेशा लेकर आया हूं। वहां का संदेशा देकर आपको भी वहीं पर पंहुचाना है। वे जो लोग ध्रुव, प्रहलाद आदि पंहुच चुके हैं, वे आपके ही सम्बन्धी थे, इसीलिए आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यही उनका संदेशा मैनें आप तक पंहुचा दिया है। इसीलिए आप लोगों का परम लक्ष्य वहीं तक ही होना चाहिये। इन छोटी-मोटी सिद्धियां वा सिद्धों के चक्कर में अपने गन्तव्य स्थान को भूल नहीं जाना। जागांे जोवो जोत न खोवो, छल जासी संसारूं। भणी न भणबा, सुणी न सुणबा, कही न कहबा, खड़ी न खड़बा। इसीलिए हे संसार के लोगो! जागृत रहो, निद्रा में सोना नहीं अर्थात् जागृत अवस्था में सदा सचेत रहो। व्यर्थ में ही आलस्य के वशीभूत होकर समय को सांसारिक विषयों में ही समाप्त नहीं कर देना। इस जीवन के पीछे भी कोई और जीवन है, उसका भी ख्याल रखना। कहीं यह लोक तथा परलोक दोनों ही बिगाड़ नहीं बैठना। सावधान! परमात्मा की दिव्य ज्योति कण-कण में बिखरी हुई है उसका दर्शन अवश्य ही करना। यदि आप लोग भगवान का दर्शन चाहते हैं तो वह सच्चा दर्शन इसी संसार की चित्र-विचित्र वस्तुओं में चेतन रूप से विद्यमान सता के रूप में सम्भव है। केवल इस संसार का ही चिंतन मनन दर्शन करते रहोगे तो तुम्हारे साथ बहुत बड़ा धोखा हो जायेगा। छल लिये जाओगे। हे प्राणी! तुमने जप करने योग्य विष्णु परमात्मा का जप स्मरण किया नहीं, किन्तु, भूत,प्रेत,भैरुं आदि का जप करता रहा तथा सुनने योग्य सत्संग, भजन कीर्तन, नीति विषयक वार्ता नहीं सुनी, वैसे ही जंगली गीत, गाली, कटुवचन सुनता रहा और कहने योग्य भगवद् चर्चा, कथा, महापुरुषों के दिव्य आख्यान, सत्यवाणी आदि तो कहीं नहीं, किन्तु व्यर्थ की आल-बाल झूठ कपट निंदा भरे वचन में ही बोलता रहा। तुझे करणीय योग्य कर्तव्य जो मानव धर्म के अनुकूल हो, वह तो किया नहीं परंतु सदा पापकर्म, चोरी, जारी आदि दुव्र्यसनों में पड़कर समय को व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया। रे! भल कृषाणी, ताके करण न घातो हेलो। कलीकाल जुग बरते जैलो, ताते नहीं सुरां सो मेलो। हे अच्छे किसान! तू खेती तो बड़ी ही मेहनत से करता है किन्तु अध्यात्म साधना रूपी खेती में ढ़ील दे रखी है। इसीलिए जो व्यक्ति सुनने योग्य वार्ता सुन नहीं सकता, कहने योग्य वार्ता कह नहीं सकता, जपने योग्य देव को जप नहीं सकता तथा कर ने योग्य कर्म को कर नहीं सकता, उसके कानों में यह ज्ञान की ध्वनि आवाज कैसे डाली जा सकती हैै। ऐसे लोगों के सामने चाहे जोर से चिल्लाकर कहो, चाहे प्रेमपूर्वक धीरे से कहो, कोई भी फर्क पड़ने वाला नहीं है। हे प्राणी! यह कलयुग का समय अतिशीघ्र ही व्यतीत हो रहा है। वैसे भी बहुत कम प्राप्त था उसमें भी बीतता जा रहा है। यदि यह अवसर बीत गया तो फिर तेतीस करोड़ देवताओं से मिलन नहीं हो सकेगा। क्योंकि इस जीवन के पश्चात पुनः मानव शरीर मिलना दुर्लभ है और यदि मिल भी गया तो यह दिव्य अवसर मिलना अति दुर्लभ है। सतगुरु उतम कुल में जन्म, धन, बल, शरीर से स्वस्थ होना अति कठिन है। ये सभी हुए बिना केवल मानव जीवन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा |
शब्द-74
शब्द-74 ओ३म्- कड़वा मीठा भोजन भखले, भखकर देखत खीरूं। भावार्थः- हे साधु पुरुषों! आप लोगों ने परमपिता परमात्मा की प्राप्ति के लिए तथा परोपकार के लिए घरबार छोड़कर भिक्षापात्र हाथ में ले लिया है। आपका उद्देश्य तो बहुत ही उच्चकोटि का है और यही होना भी चाहिये। अब उदरपूर्ति के लिए भिक्षा द्वारा जैसा भी कड़वा, मीठा, रूखा-सूखा भोजन मिल जाये, उसे प्रेमपूर्वक परमात्मा के अर्पण करके पाओ तथा भोजन करके उसे खीर के समान ही देखो। जिह्या से आगे जाने के बाद तो खीर और सूखी रोटी दोनों बराबर ही है। इसीलिए तुम्हें रसना के स्वाद के लिए यह भूत प्रेतादिक तत्रं मंत्र का कार्य नहीं करना चाहिये। यदि आप लोग उस खीर को खाते तो आपकी बुद्धि तथा मन तामसिक हो जाता, तुम्हारी साधना में विघ्न आ जाता। इसीलिए मैनें ही हाथ बढ़ाकर गिरा दी थी। धर आखरड़ी साथर सोवण, ओढ़ण ऊना चीरूं। सहजे सोवण पोह का जागण, जे मन रहिबा थीरूं। यह सभी प्राणियों को धारण करने वाली धरती ही तुम्हारे लिए पलंग बिछौना है तथा योगी साधक को अकेले भ्रमण व रात्रि में निवास नहीं करना चाहिये। जमात के बीच में रहना श्रेयस्कर है। अकेला रहने पर कई प्रकार की विघ्न बाधायें आ सकती हैं यही तो गोपीचन्द को उसकी माता ने कहा था कि हे बेटा! शय्या पर सोना, किले में बैठना, छतीस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन करना, सवारी से चलना, राजसी ठाठ-बाट से रहना। किन्तु गोपीचन्द ने कहा था कि माता में आज सन्यास ले रहा हूं। ये सभी तो आज मुझे छोड़ना पड़ रहा है। आप क्या बोल रही है, यह मेरी समझ से बाहर है। तब माता ने कहा था कि साधना में रत रहना, जब अच्छी नींद आवे तब सोना, तुम्हारे लिए यह भूमि ही कोमल शय्या होगी तथा अकेले कभी नहीं रहना। अभी तुम युवा हो, तुम्हारे अन्दर विकार उत्पन्न हो सकते हैं और तुम्हें पंथ से विचलित कर सकते हैं। इसीलिए तुम्हारे जैसे साधक समाज के बीच में ही रहना। तीसरी बात यह है कि जब तुम अच्छे भूख लगे तभी भोजन करना, उस समय जो भी रूखा-सूखा भिक्षान्न खाओगे तुम्हारे लिए पकवान ही होगा तथा चैथी बात यह है कि भ्रमण तो अवश्य ही करना किन्तु इतना अधिक नहीं जिससे शरीर थक जाये, साधना में विघ्न आ जाये। उतना ही घूमना जितना यह शरीर सहन कर सके तथा साधना भी चलती रहे, यह सवारी जैसा ही होगा। जो भी वस्त्र छोटा-मोटा मिल जाये, उसे साफ सुथरा रखना तथा उसी में ही संतोष रखना, यही तुम्हारा राजसी रहन सहन होगा। ओढ़ने के लिए ऊन का पवित्र वस्त्र योगी साधक के लिए ठीक रहता है तथा सांयकाल में जब सहजरूप में निद्रा आवे तब सोना चाहिये और प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच स्नानादि से निवृत होकर साधना में लगना श्रेयस्कर हैं इसी प्रकार से यदि साधना में रत रहेगा तो तुम्हारा यह चंचल मन स्थिर होगा। मन की चंचलता को मिटाने के लिए ही साधना होती है और यदि वह भी न मिट सकी तो फिर कैसी साधना कैसा योगी या साधु है। सुरग पहेली सांभल जिवड़ा, पोह उतरबा तीरूं। हे जीव! यह स्वर्ग एक पहेली के समान है अर्थात् जिस प्रकार से लोग पहेलियां पूछते हैं उनमें जबरदस्त उलझन होती है। जब तक उसका ज्ञाता नहीं मिलेगा, तब तक वह सुलझ नहीं सकती। उसी प्रकार से यह स्वर्ग भी उलझनों से भरा हुआ है, वहां तक पंहुचने के लिए तथाकथित धार्मिक लोगों द्वारा डाली गयी अनेक प्रकार की उलझनों को पार करना पड़ेगा। जितने लोग है उतने ही मार्ग हैं। अब साधक किस मार्ग को अपनाए और किसको छोड़े? इसलिए सावधान रहना अति आवश्यक है नहीं तो तेरे को कहीं पर फंसा दिया जायेगा। यदि तेरे को वहां तक पंहुचना ही है तो इन पहेलियों को छोड़कर गुरु द्वारा बताये हुए सद्पंथ को स्वीकार करके उस पर यात्रा प्रारम्भ कर दे, निश्चित ही पंहुच जायेगा |
शब्द-75
शब्द-75 ओ३म्- जोगी रे तु जुगत पिछांणी, काजी रे तूं कलम कुरांणी। भावार्थः- रे योगी! तूं तो युक्ति की पहचान कर।‘‘युक्ताहार विहारस्य युक्त चेटस्य कर्म सु। युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःख हा।। (गीता)’’ योगी के लिए युक्ति का भोजन, युक्ति का चलना, कर्मों में चेष्टा युक्ति युक्त करना तथा समय से जागना और सोना, ये सभी आचार विचार युक्तिपूर्वक चलते रहें तभी दुःख मिटाने वाला योग सिद्ध होता है। (जरणा जोगी) और हे काजी! तू कुराण के कलमों की पहचान कर। उनमें विचारपूर्वक देख, क्या लिखा है। ईश्वरीय सद्पुरुष कभी भी जीवों की हत्या करने का आदेश नहीं दे सकते तो फिर महम्मद ही क्यों देंगे? वे भी तो ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न थे। गऊ बिणासो काहै तानी, राम रजा क्यूं दीन्ही दानी। कान्ह चराई रनबे बांनी, निरगुन रूप हमें पतियानी। आप लोग महम्मद के शिष्य होकर फिर गऊवों का विनाश करते हो तो किस बल पर। आप लोगों को विपतिकाल में कौन सहारा देगा। यदि गऊवों का विनाश ही करना होता तो राम ने दया क्यों दिखाई। उन्होेनें भारत भूमि वासियों को गोपालन की शिक्षा क्यों दी तथा द्वापर में श्रीकृष्ण ने स्वयं गऊवें क्यों चराई। घरबार का सुख आराम छोड़कर वृन्दावन में क्यों गऊवों के पीछे भटकते रहे। यदि गऊवों को मारना ही लक्ष्य होता तो फिर इन महापुरुषों ने इनको जीवित रखने के लिए इतने कष्ट क्यों उठाये, हम अवतारी पुरुष यहां संसार में बार-बार यहां के लोगों को मार्ग दिखाने के लिए आते है किन्तु हमारा वास्तविक रूप तो निर्गुण निराकार ही है। यह साकार रूप तो हमें धारण करना पड़ता है। थल शिर रह्या अगोचर बानी, ध्याय रे मुंडिया पर दानी। फीटा रे अण होता तानी, अलख लेखो लेसी जानी। वही निरंजन निराकार विष्णु यहां सम्भराथल पर दिव्य, अनुपम, अद्वितीय, वेद वाणी के रूप में विराजमान हूं। मेरे पास राम कृष्ण की भांति कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं है, मेरे पास तो यह वाणी ही शस्त्र है। इसीलिए हे मुंडिया! उस परोपकारी देवाधि देव मूलस्वरूप विष्णु का ही ध्यान कर। आप लोग जबरदस्ती जीवों पर जोर चलाते हो, यह भी किसके आधार पर। तुम्हारा ऐसा कौन देवता बलशाली है जो यमदूतों से छुटकारा दिला दे। इस जीवन में तुम्हें पूरी तरह स्वतंत्रता है किन्तु अंत में तुमसे हिसाब किताब पूछा जायेगा, तब तुम्हारा कुछ भी जोर नहीं चलेगा। यहां पर तो तुम किसी को सहायक बना सकते हो किन्तु वहां पर तुम्हारा सहायक कोई नहीं होगा। वह लेखा लेने वाला अलख सबके घट-घट की बात जानने वाला महान ज्ञानी है, उससे आप कुछ भी छुपा नहीं पाओगे।
शब्द-76
शब्द-76 ओ३म्- तन मन धोइये संजम हुइये, हरष न खोइये। भावार्थः- सर्वप्रथम प्रातःकाल उठकर शौच, दातुन, स्नान के द्वारा शरीर की शुद्धि कीजिये। तत्पश्चात् भीतर देश में स्थित मन की संध्या, वंदना आरती, जप, हवन के द्वारा शुद्ध कीजिये। इतने नियम प्रातःकालीन सम्पूर्ण हो जाने के बाद अन्य कार्य कीजिये। इस दैनिक कार्य को संयमपूर्वक करने से सदा शुभ कार्य ही होगा और संयम को नहीं अपनायेगा तो सभी पापकर्म ही होंगे तथा जगत में संयम पालन करते हुए हो सकता है कि कष्ट भी आ जाये तो उन कष्टों से घबराये नहीं, उस समय दुःख का अनुभव नहीं करें। यह तुम्हारा स्वभाव आनन्द स्वरूप है, उसको न जाने दें। सदा ही दुःख में भी प्रफुल्लित बने रहो। ज्यूूं ज्यूं दुनियां करै खुवारी, त्यूं त्यूं किरिया पूरी। अपने नियम, धर्म, संयम में जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति की यदि कोई निंदा करे, उसको बुरा-भला कहे या कटुवचन कहे तो भी उन नियम युक्त जीवन की विधि को छोड़े नहीं। किन्तु ज्यों-ज्यों निन्दा करें, त्यों-त्यों अपनी धार्मिक क्रिया पूर्णरूपेण करें। यदि किसी के कटुवचन खुवारी से डरकर धार्मिक शुद्ध क्रिया छोड़ दी तो फिर हार हो जायेगी। निन्दाकत्र्ता से भी पराजित नहीं होना, सदा उन पर विजय का प्रयत्न करना। मुग्धां सेती यूं टल चालो, ज्यूं खड़के पासि धनूंरी। तथा मुग्ध (मूर्ख) लोगों से तो इस प्रकार से दूर हट करके चलो, जिस प्रकार से धनेर पक्षी या हरिण थोड़ी सी पते की आवाज से भी डरकर भाग जाते हैं अर्थात् जानते हुए भी मोहमाया में मस्त लोगों का कार्य तो दूसरों के कार्य में विघ्न डालना ही है, उन विघ्नकर्ताओं से तो दूर हटकर चलना ही श्रेष्ठ है। वे लोग अपनी करामात अवश्य ही आजमायेंगे। इसीलिए विघ्न आने से पूर्व ही सचेत रहना चाहिये। यदि सचेत नहीं रहेंगे तो वही धनेर पक्षी तथा हरिण जैसी दशा हो जाएगी।
शब्द-77
ओ३म्- भूला लो भल भूला लो, भूला भूल न भूलूं।
जिंहि ठूंठड़िये पान न होता ते क्यूं चाहत फूलूं।
भावार्थः- मन, बुद्धि, चित और अहंकार ये चारों ही अन्तःकरण है तथा यह अन्तःकरण एक होने पर भी कार्य भेद से चार नामों से विख्यात हो गया। चारों का भिन्न भिन्न कार्य होता है। इनमें चित का कार्य स्मरण शक्ति है। जिसका चित पक्ष कमजोर होता है उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है। ‘‘स्मृति भ्रशांत बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’’ (गीता)। स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से महानाश को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि हे प्राणी सचेत रहो। भूल में अचेतावस्था में रहकर उस परमपिता परमात्मा को मत भूलो तथा अपने स्वरूप को न भूलते हुए स्वरूप में स्थिति का प्रयत्न करो। यह मैं देखता हूं कि आप लोग अत्यधिक भूल गहरी निन्द्रा में अचेत हो चुके हो। आप लोगों को बार-बार तुम्हारी भूल का स्मरण दिलाने पर भी अपनी भूल को स्वीकार करके उससे सचेत होने की कोशिश ही नहीं करते।
जिस सूखे ठूंठ पर पते ही नहीं है उस पर फूल फल की आशा क्यों करते हैं अर्थात् यह संसार तथा सांसारिक भूत-प्रेत देवी देवता ये सभी सूखे ठूंठ की तरह ही है। ये स्वयं दुःख के मारे दुःखित है, इनके पास हरियाली सुख नाम की कोई वस्तु नहीं है। फिर भी आप लोग इनके पीछे पड़े हैं, इनमें फल-फूल चाहते हैं, सुख चाहते हैं। यही तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है, नादानी है।
को को कपूर घूंटीलो, बिन घूंटी नहीं जाणी।
कुछ-कुछ लोग तो कपूर की घूंटी लेकर देखते हैं, उन्हें तो मालूम पड़ जाता है किन्तु कुछ लोग घूंटी नहीं ले पाते तो वे लोग ठीक से समझ नहीं पाते अर्थात् कपूर ऊपर से देखने में शुभ्र वर्ण का दिव्य खाद्य मीठा पदार्थ जैसा दिखता है। उसे देखकर कुछ लोग उसकी घूंटी ले लते हैं, मुख में डाल लेते हैं किन्तु उसका रसहीन कड़वा स्वाद असह्य होने से थूक देते हैं, जो ऐसा करके देखते हैं वे तो असलियत जान जाते हैं किन्तु जो लोग ऐसा अनुभव नहीं करते वे नहीं जान पाते। उसी प्रकार ही ये प्रचलित भूत-प्रेतादिक कपूर की तरह ही बाहर से यानी दूर से तो सौम्य ही दिखाई देते हैं पर जब उनसे व्यवहार करते है। तब वे कटुता, रसहीन, दुःखों से भरे हुए ही नजर आते हैं। जो एक बार ऐसा अनुभव करके देखता है वह तो फिर कभी भूल से भी नजदीक नहीं जाता किन्तु जो अनुभवहीन है वे लोग आशा रखते हैं। बार-बार उनसे सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करते हैं।
सतगुरु होयबा सहजे चीन्हबा, जा चंध आल बखाणी।
जिस व्यक्ति ने सतगुरु धारण किया है वह तो सहज रूप में ही परमात्मा का स्मरण करेगा। कभी भी कल्पित देवी देवताओं की आशा नहीं करेगा तथा जो जाचक अर्थात् कुतर्की, झूठा बाद बिवादी, जानते हुए भी न मानने वाला होगा वह अन्धा है और व्यर्थ का झूठ, आल-बाल बाते बोलेगा। लोगों को भ्रमित कर देगा। उससे सदा सावधान रहें, यह कभी भी मार्ग से दूर हटा सकता है।
ओछी किरिया आवै फिरिया, भ्रांती सुरग न जाई।
अन्त निरंजन लेखो लेसी, पर चीन्हैं नहीं लोकाई।
अधूरी धार्मिक क्रिया से तो वापिस जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा। कोई भी कार्य करो तो पूर्णता से करो ताकि उसमें कमी न रह जाये, कुछ किया कुछ छोड़ दिया या बिना इच्छा के किया गया वह अधूरा है और अधूरा कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता, पूर्णता को प्राप्त नहीं करवा सकता तथा जब तक विवेक शून्यता है मानव भ्रांति के अन्दर भ्रमित हो रहा है, धर्म अधर्म का निर्णय नहीं कर सका है वह स्वर्ग में नहीं जा सकता।
मृत्यु के बाद में जब यह जीव इह लोक, शरीर, परिवार को छोड़कर परलोक में जायेगा तब निरंजन माया रहित परमेश्वर उससे हिसाब पूछेगा । तब जीव कहेगा कि मैनें जप दान पुण्य तो किया है तब उससे वह निरंजन यही कहेगा कि तुमने किया तो अवश्य है पर लौकिक भूत प्रेतों का ही। अब यहां पर उनका अधिकार नहीं चलता। जिसको तुमने महत्व दिया वह तो वहीं पीछे ही रह गये।
कण बिन कूकस रस बिन बाकस,बिन किरिया परिवारूं।
हरि बिन देह रै जांण न पावे, अम्बाराय दवारूं।
जिस परिवार गृहस्थी के घर में शुद्ध क्रिया नियम धर्म नहीं है वह परिवार तो जिस प्रकार से धान अन्न के बिना थोथा भूसा तथा रसहीन वाकस की तरह ही होता है। उस परिवार तथा भूसा का कोई महत्व नहीं है। परिवार में से तो शुद्ध क्रिया चली गयी और भूसा में से अन्न चला गया तथा गन्ने के सूखे डंठलों में से रस चला गया। ये तीनों एक ही तरह के हो जाते हैं।
हे प्राणी! भगवान विष्णु की शरण ग्रहण किये बिना ये देहधारी जीवात्मा पार नहीं पंहुच सकती। उस दिव्य सुखमय स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकती। ये सांसारिक भूत-प्रेत, देवी-देवता तुम्हें कभी भी पार नहीं उतार सकते।
ओ३म्- नवै पोल नवै दरवाजा, अहूंठ कोड़रूं राय जड़ी।
कांय रे सींचो बनमाली, इंहि बाड़ी तो भेल पड़सी।
भावार्थः- इस पंचभौतिक शरीर में बाह्य दिखने वाली दो आंखे, दो कान, दो नासिकायें तथा एक मुख, ये सात तो ऊपर के दरवाजे हैं तथा दो नीचे के पायु तथा उपस्थ कुल मिलाकर नौ बड़े दरवाजे हैं तथा इन्हीं दरवाजों के अन्दर प्रवेश करने पर नौ ही उनकी पोल यानी थोथापन है अर्थात् इन इन्द्रियों के अन्दर इनका आकाश है। जिस द्वार से बाह्य भोग वस्तु अन्दर स्थित जीव तक पंहुचती है तथा उन वस्तुओं का सार रूप शरीर के अर्थ में आ जाने पर अवशिष्ट मल रूप से बाहर भी निकलता है तथा उन नौ बड़े दरवाजों के अतिरिक्त साढ़े तीन करोड़ रोमावली भी शरीर में जड़ी हुई हे। ये भी छोटे-मोटे झरोखों के समान हवा, जल आदि ग्रहण एवं त्याग का कार्य करती है।
इतने छिद्रों से युक्त यह शरीर एक घने जंगल की तरह ही है जिसमें झाड़ी घास फूस असंख्य उग आते हैं। उसी प्रकार इस शरीर में भी रोमावली उगी हुई है तथा यह शरीरस्थ जीवात्मा ही इस वन का माली है जो इस शरीर द्वारा इन भोगों को भोगता है। यह जीव प्रसन्न होता है तो इस शरीर को भी भोग्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिससे यह भी हष्ट पुष्ट होता है। संसार के लोग तो यही करते रहते हैं। किन्तु गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि हे योगी! तू दिन रात इसी बनमाली जीव को इस शरीर के नव दरवाजों द्वारा सींचित कर रहा है। यह तेरा कर्तव्य नहीं है, इससे तुम्हारा शरीर मोटा हो जायेगा और शरीरस्थ मन बुद्धि चित अहंकार रूपी अन्तःकरण भी जिसमें चेतन्य जीव का निवास है वह स्थूलता को धारण कर लेगा तो फिर सूक्ष्म विषय योग को कैसे धारण करेगा तथा यह बाड़ी रूपी शरीर भी चाहे स्थूल हो जाये तो भी एक दिन तो इस वनमाली जीव से बिछुड़ ही जायेगा तो फिर इस वन तथा वनमाली को सींचित करने से क्या लाभ है?
सुवचन बोल सदा सुहलाली, नाम विष्णु को हरे सुणे।
घण तण गड़बड़ कायों वायो, निज मारग तो बिरला कायो।
योग समाधि की बात तो बहुत उच्चकोटि की है, वहां तक तो तुम्हारी पहंुच ही नहीं है। इससे पूर्व कई और भी बाते हैं जो ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो तुम्हारी वाणी ही शुद्ध नहीं है। गाली देना, कटु तथा अशुद्ध शब्द बोलना त्यागना होगा। यह तुम्हारे अनेक प्रकार की विघ्न बाधायें उत्पन्न कर देता है। इसीलिए सुवचन, प्रिय, सत्य, हितकर वाणी ही बोलनी चाहिये जिससे सदा खुशहाली बनी रहे। दूसरा तुम्हारा कर्तव्य कर्म यही होना चाहिये कि यदि कुछ सुनना है तो विष्णु नाम का कीर्तन ही श्रवण करना या परमात्मा विषयक सत्संग चर्चा का ही श्रवण करना योग्य है तथा यदि जिह्वा के द्वारा कुछ बोलना ही पड़े तो विष्णु का नाम उच्चारण ही करना या फिर भगवद् भजन सत्संग विषयक वार्तालाप ही करना श्रेयस्कर है।
इससे ज्यादा यदि बोलने तथा सुनने की चेष्टा करता है तो वह जरूरत से ज्यादा होने से अधिक है तथा गड़बड़, झूठ, निंदा, कपट भरी बातें ही कही और सुनी जायेगी। इस प्रकार के चक्कर में पड़ जाने से तो तुम्हारा योग सिद्ध नहीं हो सकेगा। इस संसार के लोगों के साथ तुमने सम्बन्ध स्थापित किया है। यहां पर तो अपने सच्चे मार्ग पर चलने वाला तो कोई बिरला ही होगा। बाकी तो सभी चैरासी के चक्कर में ही भटकने वाले हैं।
निज पोह पाखो पर असी पर, जाण म गाहि म गायो गूंणो।
श्रीराम में मति थोड़ी, जोय जोय कण बिण कूकस कांयो लेणो।
हे योगी! स्वकीय सच्चे मार्ग बिना तो पार नहीं पंहुच सकते। यदि गन्तव्य स्थान में जाने की कोशिश भी करेगा तो भी विफल हो जायेगा क्योंकि बिना मार्ग उजड़ तो कहीं भी पंहुचा नहीं जा सकता। बिना मार्ग तो केवल दिन रात परिश्रम करना तो जान करके भी यह मोठ, चने, धान रहित केवल गुणा (भूसा) ही है, फिर भी उसको खले में डालकर फिर से गाहटा करने जैसा ही है। वहां मोठ चने रूप फल की प्राप्ति कहां है। इसी प्रकार से यदि जानते हुए भी कि बिना मार्ग गांव नहीं पंहुचा जा सकता, फिर चल देना यह मूर्खता ही होगी।
यदि तुम्हारी श्रीराम परमात्मा में, उनके मर्यादायुक्त कर्तव्यों में, वचनों में तो बुद्धि कम लगती है तथा इधर उधर की आल बाल बातों में ज्यादा लगती है तो तुम्हारा प्रयास विफल ही होगा। जिस प्रकार से कण धान रहित कूकस भूसा में अन्न निकालने का बार बार भी प्रयत्न किया जाये तो भी वहां क्या मिलता है।
इसीलिये हे योगी! यदि आप लोग ज्यादा आयु अजमर अमर होना चाहते हो तो यह तुम्हारी भूल ही होगी क्योंकि इस शरीर रूपी गढ़ में अब तक न तो कोई स्थिर रह सका और नही रह सकेगा। सामान्य जन की तो बात ही क्या है, बड़े़-बड़े गुरु-पीर भी निश्चित हो चले गये। अब तुम्हारी यह स्थिर रहने की कामना तो नादानी ही है
चन्द भी लाजै सूर भी लाजै, लाजै धर गैणारूं।
पवणा पांणी ये पण लाजै, लाजै बणी अठारा भारूं।
सूर्य, चन्द्रमा, धरती, आकाश, पवन,जल तथा अठारह भार वनस्पति ये सभी लज्जित हो जायेंगे। इन सभी के अन्दर ज्योति तथा ऊर्जा शक्ति तो परमात्मा की ही दी हुई है। वह परमात्मा जब अपनी शक्ति वापिस समेट लेगा तो फिर इनकी स्थिति जैसा आप लोग इस समय देख रहे हैं, नहीं रहेगी। ये अपना अस्तित्व मिटा कर अपने कारण रूप में लय हो जायेंगे तथा इसके बिना तो सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। तथा च-
सप्त पताल फुणींदा लाजै, लाजै सागर खारूं।
जम्बु दीप का लोइया लाजै, लाजै धवली धारूं।
सिध अरु साधक मुनिजन लाजै, लाजै सिरजन हारूं।
ये सातों पाताल, शेषनाग, खार समुद्र इनकी भी स्थिति यथावत् नहीं रह सकती तथा जम्बूद्वीप के लोग जो यहां पर जीवन कल्याण की आशा लगाए बैठे हैं, वे भी लज्जित हो जायेंगे और हिमालय से निकलकर अजस्त्र धारा प्रवाह वाली पवित्र नदी गंगा भी लज्जित हो जायेगी और यदि गंगा का प्रवाह रूक गया तो फिर इस जम्बूद्वीप के जन अपनी इच्छापूर्ति नहीं कर सकेंगे तथा इस संसार में इस समय सिद्ध साधक तथा मुनिजन जो साधना में रत है, अपना उद्धार करने की लालसा से दिन रात परिश्रम से तत्वान्वेषण कर रहे हैं वे भी लज्जित हो जायेंगे। उनका भी कार्य अधूरा ही रह जायेगा। उन्हें फिर से जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा तथा सबसे बड़ी हानि तो यह होगी कि सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु तथा संहारक रूप शिव भी लज्जित हो जायेंगे। एक ही परमात्मा की शक्ति रूप ये तीनों अपने अपने कार्य में संलग्न है तथा जब अकस्मात् सृष्टि का प्रलय हो जायेगा तो ये त्रिदेव अपने परिश्रम का फल विपरीत देखकर लज्जित हो जायेंगे। पुनः सृष्टि रचना कार्य को इतने मनोयोग से कर नहीं पायेगे अर्थात् पुनः इतनी सुन्दर, सौम्य व्यवस्थित सृष्टि की रचना, पालन, संहार नहीं हो सकेगा। इसीलिए मेरे शयन का फल तो यही होगा। अतः हे जिज्ञासु! तू इन बातों को छोड़कर यदि अपना भला चाहता है तो मैं जैसा कहता हूँं वैसा कर।
सत र लाख असी पर जंपा, भले न आवै तारूं।
सर्वप्रथम तो सत्यवादी बनकर सत्य सनातन पूर्ण ब्रह्म परमात्म में ही रहने की कोशिश करो अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि में ओत प्रोत परमात्मा को ही देखकर उसमें अपने को समाहित करो। यदि इस प्रकार से ज्ञान की धारा प्रवाहित नहीं हो पाती है तो लाख की तरह चित वृति सुरति को तदाकार बना ले अर्थात् जैसे लाख को अग्नि से तपाकर फिर उसे चूड़ी कंगन आदि बनाने के लिए सांचे में ढ़ाली जाती हे। जब वह लाख सांचे में पड़ी हुई ठंडी हो जाती है तो वह तदाकार रूप धारण कर लेती है फिर कभी भी उसका तदाकार निवृत नहीं होता। ठीक उसी प्रकार से यह तुम्हारी जो चितवृति है यह सदा ही बाह्य विषयों में तदाकार होती रहती है किन्तु टिकाऊ नहीं है। इसी वृति को ही प्रेमभाव रूपी अग्नि से पिघला करके परमात्मा रूपी संाचे में ढ़ाल दो, कुछ समय तक तो वहीं पर वृति को एकाग्र रहने दो वह सदा-सदा के लिए वहीं पर ही स्थिर हो जायेगी अर्थात् सदा ही परमात्मा मय चित वृति या सुरति हो जायेगी। ‘शब्द गुरु सुरति चेला’ अर्थात् यह ओम शब्द ही गुरु है और सुरति ही चेला है। इसी प्रकार का ध्यान रूपी जप यदि तुम्हारा चलता रहेगा तो मैं तुझे तार दूंगा। इस संसार के जन्म-मरण दुःख के चक्र से छूट जायेगा।
ओ३म्- भल पाखण्डी पाखण्ड मंडा, पहला पाप पराछत खंडा।
भावार्थः- हे साधु! उस स्त्री ने जो कुछ भी कहा है वह ठीक ही कहा है। मैं बहुत बड़ा पाखण्डी हूँ, मैनें यहां पर पाखण्ड रचकर रखा है। जो कोई भी मेरे पास में आ जाता है, मैं उनके संचित तथा क्रियमाण सभी पापों का खण्डन कर देता हूँ। पापों की बड़ी सेना को पराजित करना मेरा कर्तव्य है। यही बात जम्भसार में महमंद खां तथा लूणकरण को सदुपदेश प्रसंग में सातवें प्रकरण में बतायी है-
चै.- कहे जम्भ जानें मोहे भेवों, ताका इतना धन ठग लेऊं।
काम क्रोध मद लोभ कुकर्मा, आत्म प्रचै बिन सब धरमा।
ईरषा अन्याव रु निंद्या, बांधे पाप पोट रज बिंद्या।
इह धन हिन्दू मुसलां प्यारो, लूट देय कर शब्द नगारो।
तातै मोसै मिलन कोई, जो मिल है सो निरधन होई।
जा पांखडी के नादे वेदे शीले शब्दे बाजत पौण।
ता पाखंडी ने चीन्हत कौण, जाकी सहजै चूके आवागौण।
जिस पाखण्डी ने यह पाप पराजित करने वाला पाखण्ड रच रखा है। उसके अपने कुछ निजी विशेष धर्म है। जैसे- नाद ध्वनि का ज्ञाता होना, वेदों के सार रूप तथ्य का ज्ञाता तथा वक्ता होना, शीलव्रती होना तथा शब्द शास्त्र तथा अनहद नाद ओम् का
साधक होना, ये सभी लक्षण बहुतायत से इस पाखंडी में ही विद्यमान है। इन्हीं सद्गुणों की ही हवा यहां पर चल रही है अर्थात् मैनें ऐसा पवित्र वातावरण यहां पर निर्मित किया है। जो भी इस पवित्र वातावरण में आयेगा तो वह पवित्र हुए बिना नहीं रह सकेगा।
उस पाखंडी को कोई पहचान ले तो उसके जन्म-मरण का चक्र सहज ही में छूट जायेगा। इसीलिए हे साधु तुमने इस रहस्यमय पाखंडी को पहचाना नहीं था, इसीलिए उदास होकर पछतावा कर रहा था, अब ऐसा नहीं होगा।
शब्द-82
ओ३म्- अलख अलख तूं अलख न लखणा, तेरा अनन्त इलोलूं।
कौण सी तेरी करणी पूजै, कोण सै तिंहि रूप सतूलूं।
भावार्थः- हे साधु पुरुष! इन सांसारिक लोगों के कटु कषाय वाक्यों को श्रवण करके अपने स्वरूप को भूलकर क्रोध न करो तथा इन वाक्यों के केवल कहने सुनने से ही कुछ नहीं हो सकता। जैसे तू नित्यप्रति अलख अलख की ध्वनि तो करता है, अलख का नाम लेकर जोर से आवाज करता है किन्तु उससे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। केवल लड्डू का नाम लेने से लड्डू के मीठेपन स्वाद का आनन्द नहीं आ सकेगा। उसी प्रकार से अलख को जाने बिना, अलखमय हुए बिना केवल शब्दमात्र से कोई रस नहीं मिल सकेगा। यदि तुझे परमात्म रस आनन्द का अनुभव करना है तो अलख परमात्मा का साक्षात्कार करेगा, उस समय तेरे आनन्द की अनन्त हिलोरें उठेगी। तुझे अमृत रस में ओतप्रोत कर देगी।
उस घड़ी की बराबरी कोई भी करणी नहीं कर पायेगी। ऐसा और कोई संसार में कत्र्तव्य नहीं है जो उस आनन्दमय बेला की बराबरी कर सके तथा न ही कोई ऐसा दिव्य रूप ही होगा जो उस दशा की समता कर सके अर्थात् उस समय जब तुम्हारा अलख से मिलन साक्षात्कार हो जायेगा, तब तुम्हारे सदृश अन्य किसी का जीवन नहीं हो सकेगा। तुम्हारी समता कोई भी सांसारिक मोहमाया में ग्रसित मानव नहीं कर सकेगा।
मूंड मूंडायो मन न मूंडायो मोह अबखल दिल लोभी।
सबद- 101
ओशम् नितही मावस नित संकराति, नित ही नवग्रह बैसें पांति।
नितही गंग हिलोले जाय, सतगुरु चीन्हें सहज न्हाय ।
भावार्थ-जब सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि में आ जाते हैं और जब तक एक ही राशि में रहते है तब
तक अमावस्या होती है। सूर्य के प्रभाव से चन्द्र लुप्त प्रभाव हीन हो जाता है। इसलिये उपबास का विधान किया
है तथा शुभ कार्यो के लिये पवित्र दिन माना गया है यह संयोग एक महीने में आता है। किन्तु यहाँ पर
जम्भदेवजी कहते हैं कि नित्य ही अमावस्या है तथा एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य संक्रमण काल को सक्रान्ति
कहते हैं। सूर्य एक महीने तक एक ही राशि में रहता है यह पुण्य काल भी एक महीने पश्चात् ही आता है। परन्तु
यहाँ पर नित्य ही संक्रान्ति बतलाया है और रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि और राहु केतु ये सदा ही
एक साथ नहीं आ सकते। इनका भी अपना अपना काल निश्चित है परन्तु श्री देबजी कहते है कि ये भी नित्य
पंक्ति लगाये बैठे रहते हैं। साधक के उपर अपना प्रभाव नहीं जमा सकते तथा गंगा भी मरूप्रदेश से बहुत दूर है
बड़ी कठिनाई से पहुँचा जा सकता है, वह भी कभी कभी लेकिन यहाँ पर बतलाया है कि गंगा भी हिलोरें नित्य
ही लेती है।
ये सभी अमावस्या संक्रान्ति, नवग्रह तथा गंगा जी उसी के लिये सुलभ है तथा नित्य आनन्द देने वाले
पर्व है जो सदा ही सतगुरु परमात्मा को पहचान करके उनमें एकाग्र वृति से स्मरण करता हुआ तल्लीन हो जाये
और उसमें ही उस परमानन्द का दिव्य स्नान करता हो, उनके लिये न तो अमावस्या की प्रतीक्षा करनी होगी और
न ही संक्रान्ति गंगा आदि की ही। वह तो सदा ही स्नान करता ही है। ऐसा स्नान ही परम दिव्य तथा नित्य होता
है।
*निरमल पाणी निरमल घाट , निरमल धोबी मांड्यो पाट।
जे यो धोबी जाणै धोय, घर में मैला वस्त्र रहे न कोय।*
पीछे की पंक्तियों में स्नान करना बतलाया था। अब आगे यह बतला रहे हैं कि स्नान करने के लिये
साधन रूप जलादि कया हो सकते है। बाह्य शरीर का स्नान तो जल से किया जा सकता है। किन्तु अन्दर के
शरीर-अन्तःकरण का स्नान उमंग की तरंगों से किया जा सकता है। जिस प्रकार से जल में तरंगें उठती है उसी
प्रकार से हृदय में भी आनन्द की तरंगे उठती है। वही जल आन्तरिक स्नान के लिये उपयुक्त है तथा यह स्थूल शरीर हीअन्दर प्रवाहित होने वाली नदी का घाट है। इसलिये सर्वप्रथम यह शरीर रूपी घाट ही परम पवित्र होना चाहिये तथा इनआत्मा को आच्छादन करने वाले वस्त्र रूपी जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या मत्सर्य आदि को धोने वाली बुद्धि रूपी धोबी ने परम पवित्र होकर हृदय रूपी पाट मांड दिया है।
यदि बुद्धि रूपी धोबी वस्त्रों को धोना जानता हो तो अपने घर रूपी आत्मा में किसी प्रकार का मैला
वस्त्र काम क्रोधादि नहीं रह सकते। इस काम के मेल को काट देगा तो वह परिवर्तित होकर निष्काम हो
जायेगा। क्रोध रूपी मेल कट जाने से वह शांत हो जायेगा। लोभ रूपी मैल कट जायेगा तो वह संतोषी हो
जायेगा। मोह कट जाने से वह निर्मोही हो जायेगा तथा राग द्वेष रूपी मेल कट जायेगा तो उसमें समता का भाव
आ जायेगा। इस प्रकार से बुद्धि रूपी धोबी बस्त्रों को धोकर परम पवित्र बन सकता है।
एक मन एक चित साबण लावबै, पहरंतो गाहक अति सुख पावै।
इन वस्त्रों को धोने के लिये धोबी के पास मैल काटने वाली साबुन भी तो चाहिये। वह विवेक ही
साबुन है। जिस प्रकार साबुन मेल काटकर शुद्ध पवित्र करती है, उसी प्रकार विवेक भी सत्य असत्य का
निर्णय करके असत्य स्थूल का तो परित्याग करवा देता है और सत्य को ग्रहण करवा देता है। इसलिये कहा है
चित तथा मन को एकाग्र करके विवेक करें इस विवेक से ही सत्य असत्य का निर्णय हो सकेगा। ऐसी साबुन
यदि कोई लगाता है तो निश्चित ही कामादि मैल छूट जायेंगे, ये ही आत्मा को आच्छादित करते हैं। वस्त्र की
तरह ढ़के हुए रखते है इनकी निबृति होते ही आत्म दर्शन हो जायेगा। शुभ्र बस्त्रों का यानि सद्गुणों का समागम
हो जाता है। जिसे धारण करने से जीवात्मा अत्यधिक आनन्द को प्राप्त होती है इस प्रकार के स्नान से ही बस्त्रो
तथा शरीर का मैल काटा जा सकता है।
*ऊंचे नीचे करे पसारा, नही दूजै का संचारा।
तिल में तेल पहुंप में वास , पांच तंत में लियो प्रकाश।*
गीता में कहा है कि “दिव्य ददामि ते चश्लु पश्य में योग मैश्वरम्'' भगवान ने जब अर्जुन को दिव्य नेत्र
प्रदान किये, तब उसने विराट् रूप देखा था। उसी प्रकार से जब साधक स्नातक हो जाता है हृदय की आनन्द
की उमंगों में स्नान करता हुआ जब बाह्य यदा कदा दृष्टि फैलाता भी है तो जहाँ तक दृष्टि का पसारा होता है वहाँ
तक उसी परमात्मा का ही संचार दिखाई देता है। बह ऐसी अवस्था आ जाती है जो योगी की दृष्टि को परमात्मा
मयी बना देती है। परमात्मा के परम धाम से लेकर नीचे पाताल पर्यन्त एक ही परमात्मा की ज्योति का दर्शन
होता है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखता “'जैसी दृष्टि बैसी सृष्टि!
जिस प्रकार से तिलों में तेल रहता है और फूलों में सुगन्धि रहती है उसी प्रकार से इन स्थूल पांचों तत्वों
में भी परमात्मा की ज्योति का प्रकाश है। जिस प्रकार तिल में तेल फूल में सुगन्धि दिखती नहीं है, अनुभव का
विषय बनती है, उसी प्रकार से वह परमात्मा सर्वत्र समाया हुआ होने पर भी दृष्ट नहीं होता किन्तु अनुभव का
विषय हो सकता है।
*बिजली कै चमके आवै जाय, सहज शून्य मैं रहे समाय।
नै यो गावै न यो गवावै, सुरगै जाते बार न लावै।*
इस शरीर में जीवात्मा का प्रवेश बिजली को तरह ही होता है। जिस प्रकार से बादलों में एक क्षण में
तो बिजली चमक जाती है यानि प्रगट होकर दीख जाती है दूसरे ही क्षण में पुनः छुप जाती है। उसी प्रकार से
यह जीवात्मा भी शरीर में एक क्षण में तो प्रवेश कर जाती है और दूसरे ही क्षण में निकल भी जाती है तथा जो
नित्य ही उमंगों में स्नान करता है जो परम ज्ञानी हो चुका है उसकी आत्मा शून्य ब्रह्म में ही लीन हो जाती है। वह
जन्म मृत्यु के चक्कर से छूट जाता है।
दूसरा अर्थ-जब साधक साधना में लीन हो जाता है उस प्रारम्भ की दशा में कुछ समय तक तो
मनोवृतियां बिजली की तरह ही होती है। जब वे निरोध अवस्था में होती है तब तो एक क्षण के लिये आत्म
साक्षात्कार परम ज्योति का दर्शन होता है किन्तु दूसरे ही क्षण में बृति का उत्थान हो जाता है। तो पुन: अन्धकार
आ जाता है। बिजली की भांति ही चितवृतियां चंचल होती है। किन्तु अभ्यास की तीब्रता से जब बृतियों का
निरोध हो जाता है तो सहज रूप से ही शून्य ब्रह्म में समाहित हो जाती है। ऐसी परमावस्था को प्राप्त हुआ साधक
योगी फिर मौन हो जाता है। कहा भी है -“बालयं पाण्डित्यं निर्विद्य मुनि मौन भवति। '!
सर्व प्रथम चंचल बाल्य अवस्था आती है। तत्पश्चात् साधना द्वारा पाण्डित्य विद्वता आती है तथा अन्त में
इन दोनों को ही छोड़कर तीसरी अवस्था में मुनि मौन हो जाता है। न तो वह किसी के गुणों अबगुणों का बखान ही
करता है और न ही किसी से अपने लिये करवाता है। ऐसा व्यक्ति ही स्वर्ग सुख अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करते हुऐ
देर नहीं करता। उनके लिये मुक्ति अति सुलभ हो जाती है।
*सतगुरु ऐसा तत्व बतावै, जुग जुग जीवै बहुर न आवै।*
सतगुरु परमात्मा स्वयं विष्णु ही आपको ऐसा तत्व आत्मोपलब्धि का उपाय बतला रहे हैं। जो इस तत्व
को प्राप्त कर लेगा, बह युगों युगों तक जीवित रहेगा। वह कभी मरता नहीं है।उसकी आत्मा सहज ही में शून्य ब्रह्म
में लीन हो जाती है। तो फिर मरने का तो सवाल ही पैदा कहाँ होता है। वह युगों युगों तक जीवन धारण करता हुआ
फिर यहाँ मृत्युलोक में शरीर धारण करके नहीं आयेगा।
प्रसंग-56 दोहा
एक विश्नोई आय कै, पूछे भेद विचार।
बेटा बेटी क्ुटुम्ब सूं, मोह न छूटै लिंगार।
घर मांही मुक्ति होवै, सो तुम कहो मुरार।
बूढ़े ऐसे बुझीयो, जीव का करो उद्धार।
बूढ़े खिलेरी ने एक समय सम्भराथल पर श्री देवजी से पूछ कि हे देव! मेरा बहुत ही लंबा चौड़ा परिवार है। कूटुम्बी जने से मेरा मोह हो चुका है अब छूट नहीं रहा है। यदि इस प्रकार से मोह में जकड़े हुऐ प्राण निकल गये तो फिरजन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा किन्तु मैं मुक्ति चाहता हूँ। इस मोह के रहते हुए कैसे संभव है, घर बैठे ही मेरी मुक्तिहो जाये, ऐसा उपाय बतलाइये तब श्री देवजी ने सबद सुनाया-
सबद- 102
ओझ३म् विष्णु विष्णु भण अजर जरीजै, धर्म हुवै पापां छूटीजै।
भावार्थ-हे मानव ! यदि तूँ घर में रहते हुए अपना कल्याण चाहता है तो परम पिता परमात्मा को परम
प्रिय “ ओम्ू-विष्णु'” इस नाम के द्वारा हर क्षण स्मरण कर तथा तुम्हारे हृदय में बैठे हुए जो काम, क्रोध, लोभ,
मोह आदि सभी अभी जले नहीं है। किन्तु तुम्हें दिन-रात दुखी कर रहे हैं। उनको ज्ञान अग्नि द्वारा जला दे
“ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरूतेअर्जुन: '' इससे तुम्हारे भीतर धर्म की राशि एकत्रित होगी और बह राशि
पापों के ढ़ेर को काट देगी, क्योंकि धर्म के सामने पाप कभी टिक नहीं सकते।
हरि पर हरि को नाम जपीज, हरियालो हरि आण हरूं, हरिनारायण देव नरूं।
हरि विष्णु का नाम पापों को काटने वाला है, इसलिये बारंबार हरि का नाम जपते रहो। यानि जप तो
इस तरह किया जाबै ताकि बीच में व्यवधान उत्पन्न नहीं हो सके। अन्य कोई संस्कार बीच में न आ सके । यदि
नाम जप करते हुऐ अन्य वासनाएँ बीच में आ गई तो नाम की श्रृंखला तोड़ देगी और इस प्रकार बार बार टूटती
ही रहेगी तो नाम का धन बहुतायत से इकट्ठा नहीं हो सकेगा, तो फिर पाप कैसे कटेंगे।
हरि परमात्मा विष्णु की प्राप्ति तो नाम जप या अन्य साथना के द्वारा करना श्रेयस्कर है और यही
जीवन का उद्देश्य है तथा मानव जीवन का फल है। इस आनन्द मय अवस्था तक पहुँचने के लिये “हरि
आण ” यानि हरि की माया से ऊपर उठना होगा, यह माया बहुत ही लुभावनी है। हरि तक पहुँचने नहीं देती।
अपना जाल फैला रखा है यह जाल दूर से ही देखने में भले ही सुहावना लगे किन्तु असावधानी के कारण मानव
इसमें फंस जाता है। इसमें थोड़ा सा सुख दिखाई देता है यह भी भ्रम मात्र ही है। परमात्मा का सुख ही माया में
सुख झलकता है। वह माया का अपना नहीं है इसलिये '“हरि आण हरू'” माया त्याज्य है, परमानन्द प्राप्य है
और वही परमात्मा ही हरि तथा नारायण नाम से कहा जाता है। वही देवताओं में श्रेष्ठ है। उसी प्रकार जब मानव
रूप धारण करते हैं तो मानवों में भी अति उत्तम है।
आशा सास निरास भइलों, पाइलों मोक्ष द्वार खिणूं।
प्रति क्षण परिवर्ततशील आशाएँ जो श्वांस प्रश्वांस के साथ बदलती रहती है। ये सभी आशाएँ पूर्ण तो
हो नहीं सकती “ आशा पाश शर्तैर्बद्धा: काम क्रोध परायणा '' “गीता '' काम तथा क्रोध के परायण मानव सैकड़ों
आशाओं की पास में बंधा हुआ रहता है। इनमें से कोई एक आशा की पूर्ति हो जाती है तो उसको जगह असंख्य
आशाएँ और आकर जम जाती है। इसलिये इन व्यर्थ की आशाओं से निरास होना पड़ेगा। निराशा ही मुक्ति है। वह
चाहे जीवन जीते ही आ जाये या फिर मृत्यु के अवसर पर आ जाये। इसलिये आशा ही दुखमय बन्धन है और
निराशा ही सुखमय मुक्ति है।
प्रसंग-57 दोहा
ऐसो झगड़यो देख के, उन्ह लीन्हों मन मार।
ताके उरमी क्या करे, हृदे ज्ञान आगार।
प्रांत: भयो हरि पै गयो, पाय जु प्रशे ईश।
इन मन में ठहराइयों, सबद कह्यो जगदीश।
मूला पुरोहित जम्भदेव जी का परम शिष्य था। यदा कदा सम्भराथल पर दर्शनार्थ आया करता था तथा
कुछ दिनों तक रहकर साधना करता था। एक समय कुछ दिन पश्चात् घर पर पहुँचा तो अपनी स्त्री तथा अपनी
बहन के पुत्र भानजे को आपस में झगड़ते हुऐ देखा। मूले ने ही अपनी बहन की मृत्यु के पश्चात् भानजे को
पाल-पोश कर बड़ा किया था तथा घर का उतराधिकारी बना दिया था परन्तु इस समय को गृह कलह से मूला
तंग आ चुका था क्योंकि वह तो रोज का ही धन्धा बन चुका था। वहाँ पर तो दोनों को जैसे-तैसे शांत किया उनसे
कुछ भी कहा नहीं दूसरे दिन प्रातःकाल ही मूला फिर सम्भराथल पर आया। जम्भदेवजी को प्रणाम किया और
पास में बैठकर अपनी कहानी सुनाई भी नहीं थी कि श्री देबजी उसकी भावना समझ कर उनके प्रति यह सबद
सुनाया-
सबद- 103
ओदइम् देख्या अदेख्या सुण्या असुण्या, क्चिमा रूप तप कीजै।
थोड़े मांहि थोड़ेरो दीजै, होते नांहि न कीजै।
भावार्थ-हे मूला |! अब तुम सांसारिक जीवन व्यतीत कर चुके हो और वृद्धा अवस्था का यह अध्यात्म
जीवन प्रारम्भ कर चुके हो। इस अवस्था में आकर तुम्हें संसार के लोगों की चिंता नहीं करनी चाहिये। अब
तुम्हारे अन्दर वह शक्ति नहीं है। जो तुम अन्याय का विरोध कर सको। इसलिये जो कुछ भी अन्याय देखते हो
तो उसका विरोध न करो, अदेख्या कर दो तथा निंदा व झूठ कपट भरे अथवा स्तुति भरे बचनों को सुनते हो।
असुण्या कर दो। यही देखना व सुनना ही तुम्हें नरक की तरफ ले जाने वाला है क्योंकि इनमें से ही गुण अवगुण
भलाई बुराई अन्दर प्रवेश करती है। इसलिये अब तो तुम्हारे लिये क्षमा रूप तपस्या ही सर्वश्रेष्ठ साधन है।
“तेरे भाव कुछ करे, भलो बुरो संसार, नारायण तूं बैठकर अपनों भवन बुहार ''
तुम्हारे पास यदि अधिक नहीं है तो भी आये हुए याचक को न मत कहो। यदि थोड़ा है तो थोड़ा ही देना
चाहिये। देने के लिये तुम्हारे पास बहुत धन है। वह धन कई तरह का हो सकता है। जैसे विद्या, करूणा, दया, दान,
ध्यान, ज्ञान, द्रव्य, रूपये आदि ये सभी देय वस्तु है। ये देने से घटते नहीं है। किन्तु बढ़ते रहते है।
कृष्ण मया तिहूं लोका साक्षी, अमृत फूल फलीजै।
जोय जोय नांव विष्णु के दीजै, अनन्त गुणा लिख लीजै।
परमात्मा श्री कृष्ण हमें देना ही सिखाते हैं। उन्होंने हमें सभी कुछ दिया है हमसे लिया कुछ भी नहीं है।
उसी प्रकार से तुम देना सीखो। श्री कृष्ण सर्वप्रथम दान स्वरूप अपनी माया को अपने से पृथक् कर देते हैं
और उस माया को सृष्टि रचने का आदेश देते हैं। वह माया ही एक से अनेक होती हुई संसार के रूप में
परिवर्तित होती है तथा अमृत होकर फूलती फलती है। यह सभी कुछ फैलाव कृष्ण का ही है। सीधा प्रसारित
न होकर अपनी माया के माध्यम से होता है। इतना होने पर भी सबयं साक्षी बना रहता है। वह कौतुकी होते हुऐ
भी स्वयं माया से उपर रहता है। सभी को देखता हैं ऐसा दान परमात्मा का है।
इसलिये हे मानवों ! आप भी कुछ न कुछ देना सीखो। इसी लेन देन से ही संसार का व्यवहार चलता
है किन्तु देते समय अहंकार को भावना आ गई तो तुम्हारा दान व्यर्थ हो जायेगा। इसलिये विष्णु परमात्मा को
अर्पण करके दिया हुआ ही सफल होता है। वही आगे जाकर कृष्ण की माया की तरह ही अमृत फूल फल
वाला होकर अनन्त गुणा हो जाता है। “दान सुपाते बीज सुखेते, अमृत फूल फलीजै'' इसलिये बाह्य अवगुणों
को धारण न करते हुऐ विष्णु के अर्पण करके कुछ न कुछ देते रहना ही मुक्ति का परम साधन है।
प्रसंग-58 दोहा
विएनोईं बिजनौर को, अर्ज करी उण आय।
छे धड़ी सोनों तबै, चाडुरू लागे पाय।
तब साहूं ऐसे कह्यों, बकसे शील सिनान।
देव कहै पुन अधिक है, कहो किते अनुमान।
तीन लोक लो पुन करे, आंख न लाथे एक।
रतन काया सहनाण यहै, यांको इहे विवेक।
एक बिजनौर नगर का बिश्नोई गुरु जम्भेश्वर जी के पास सम्भराथल पर पहुँचा। पहले तो हाथ
जोड़कर प्रार्थना की तथा छ: धड़ी सोना गुरु महाराज के चरणों में रखकर कहने लगा -हे देव | मैं ठण्डे प्रदेश का
रहने वाला हूँ। सर्दियों में स्नान करना बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है तथा मेरा कार्य सुनार का है।
आप जानते ही है कि सुनार कार्य में सच्चाई ईमानदारी चलनी कठिन हैं इसलिये मुझे आप इस स्नान और शील
नियम पालन के लिये बाध्य न करो। ये तो मेरे से पालन होते नहीं और सभी नियमों का पालन मैं करूँगा। इस
नियम के बदले में आप यह सोना स्वीकार कीजिये। तब श्री देवजी ने कहा-कि इस स्वर्ण दान का कितना
पुण्य तूँ समझता है अर्थात् शील स्नान से ज्यादा पुण्य इस दान का कदापि नहीं हो सकता। परमात्मा ने यह रत्न
सदृश काया दी है। बड़ी ही अमूल्य है। यदि कोई तीनों लोकों को भी दान में दे दे तो भी एक आँख नहीं मिल
सकती। जो परमात्मा ने दी है। वही अनुपम है और यदि वह चली गयी तो फिर किसी भी दान से मिलना
असंभव है। इसलिये इस शरीर के नियमों में कटौती दान देकर नहीं की जा सकती | इसी सम्बन्ध में यह सबद
सुनाया-
सबद-104
ओ३म् कंचन दानों कछु न मानूं, कापड़ दानूं कछु न मानूं।
चोपड़ दानूं कछु न मानूं, पाट पटंबर दानूं कछु न मानूं।
भावार्थ-स्वर्ण के दान को मैं कुछ नहीं मानता, कपड़े के दान को भी कुछ नहीं मानता, घी, तेल आदि
के दान को कुछ नहीं मानता तथा सामान्य वस्त्र से लेकर बड़े बड़े कीमती रेशमी वस्त्रों के थानों के दान को भी
शील स्नान के दान के सामने कुछ भी महत्व नहीं है।
पंच लाख तुरंगम दानूं कछु न मानूं , हस्ती दानूं कछु न मानूं।
तिरिया दानूं कछु न मानूं, मानूं एक सुचील सिनानूं।
यदि कोई एक या दो सुन्दर घोड़ों का दान तो कया पांच लाख दिव्य अश्वों का दान कर दे तो भी मैं
कुछ नहीं मानता, मेरी दृष्टि में यह दान उतना महत्वपूर्ण नहीं है तथा हाथी का दान तो शील स्नान के सामने कुछ
भी नहीं है। कन्या दान को भी संसार में उतम दान समझा जाता है परन्तु इन नियमों के सामने वह भी तुछ ही
समझा जायेगा क्योंकि ये महत्वपूर्ण नियम धर्म ही कल्याणकारी हैं।
हे मानव! मैं तो एक मात्र शील और स्नान को ही सबसे बड़ा पुण्यकारी मानता हूँ। अनेक प्रकार के
दान से तो अहंकार आ सकता है। उससे आत्मा अधोगति की ओर जाती है। किन्तु स्नान से तो बाह्य शरीर की
शुद्धि होती है और शील ब्रत से आन्तरिक पवित्रता आती है जिससे ज्ञान धारण करने में सफलता मिलती है।
ये दोनों नियम ही सफलता का मूल है। यदि ये नियम धारण हो जाये तो इनके पीछे सभी खींचे चले आयेंगे।
प्रसंग-59 दोहा
मालदै कहै सुण देवजी , एहि कहो विचार।
आद उत्पति कुण थो, ताहि करो निरधार।
जोधपुर नरेश मालदेव को लोहाबट की साथरी पर सबद 93-94 सुनाया था तथा पुन: किसी समय
दूदा मेड़तिये के साथ जम्भदेवजी के पास में आया था और दर्शन के उपरांत सृष्टि की उत्पति और प्रलय से
सम्बन्धित प्रश्न पूछते हुए कहा था कि सृष्टि के आदि में कौन थे तथा किससे यह उत्पति हुई है। इसका निर्णय
करते हुए यह सबद सुनाया था। यह सबद-जद पवन न होता-4 के जैसा ही है।
सबद- 105
ओ३म् आप अलेख उपन्ना शिंभू, निरह निरंजन धंधूं कारूं।
आपै आप हुआ अपरंपर, हे राजेन्द्र लेह विचारूं।
भावार्थ-हे राजेन्द्र | जो भी मैं तुझे बतलाऊँगा, वह तूँ अपनी बुद्धि से विचार अवश्य ही कर लेना।
जब तक तूँ विचार नहीं करेगा तब तक तुझे कुछ भी ज्ञान हासिल नहीं होगा। सृष्टि के आदि में तो स्वयं स्वयंभू
निराकार माया रहित अकेला ही कथन, लेखन श्रवणादिक मर्यादाओं से ऊपर सर्वशक्तिमान थे। या फिर यदि
कुछ था तो केवल धन्धुकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था जैसा इस समय यह सूर्य, चन्द्र से प्रकाशमान जगत
दृष्टिगोचर हो रहा है वैसा उस समय नहीं था। इस प्रकार की स्थिति रहते हुए कई युग बीत जाने पर ““एकाकी
न रमते'! *“एकोअहं बहुस्यां प्रजायेय '' उस परब्रह्म में इच्छा उत्पन्न हुई कि कुछ खेल रचा जाये। अब अकेले
से खेल नहीं खेला जाता, इसलिये एक से अनेक होने के लिये और कोई नहीं था। स्वयं ही स्वकीय इच्छा से
माया की उत्पति की तथा माया से आगे सृष्टि का विस्तार हुआ। इसलिये कण कण में सत्ता उस परमपिता
परमात्मा की ही है।
नै तद चंदा ने तद सूरूं, पवण न पाणी धरती आकाश न थीयों।
ना तद मास न वर्ष न घड़ी न पहरूं, धूप न छाया ताव न सीयों ।
जब सृष्टि की प्रलयावस्था थी, केवल शुद्ध ब्रह्म था या धंधुकार था। उस समय में ये वर्तमान में दृष्ट
ज्योतिर्मय सूर्य, चन्द्रमा नहीं थे। परमात्मा ने अपनी ज्योति का विस्तार नहीं किया था तथा न ही जल, पवन, धरती
और आकाश को ही उत्पत्ति हो सकी थी। ये भी अपने अपने कारण में लीन थे। इन्होंने यह स्थूल रूप धारण नहीं
किया था और न ही उस समय काल निर्धारण हो सका था। काल भी स्वयं घड़ी, प्रहर, दिन, रात, महीना, वर्ष और
उतरायण-दक्षिणायन के रूप में प्रसिद्ध नहीं हो सका था तथा उस समय तो वर्तमान में सुख दुख दायी धूप, गर्मी,
सर्दी, छाया आदि भी नहीं थे।
न त्रिलोक न तारा मंडल, मेघ न माला वर्षा थीयों।
न तद जोग नक्षत्र तिथि न वारसियो, ना तद चवदस पूनों मावसियो।
और न तो उस समय स्वर्ग, मृत्यु तथा पाताल लोक ही बने थे और न ही तारा मण्डल ही था तथा ये
मेघ मालाएँ जो वर्तमान में वर्षा करती है, ये भी नहीं थी और उस समय योग नक्षत्र, तिथि, वार, राशि, ग्रह, आदि
नहीं थे और न ही चवदस, बारस, द्वादशी, पूर्णमासी, अमावस्या आदि पवित्र तिथियाँ ही थी।
ने तद समद सागर न गिरि न पर्वत, ना धौलगिर मेर थीयौं।
ना तद हाट न बाट न कोट न कसबा , बिणज न बाखर लाभ थीयों।
उस समय यह विशाल समुद्र तथा छोटे-मोटे ताल तलैये नहीं थे और ये वर्तमान में स्थित छोटी-मोटी
पर्वत मालाएँ तथा बर्फ से ढ़का हुआ हिमालय पर्वत भी उस समय नहीं था और न ही उस समय हाट, मार्ग,
कोट, कस्बा, शहर ही थे और बिणज व्यापार से होने वाला हानि-लाभ भी उस समय नहीं था।
यह छत धार बड़े सुलतानों , रावण राणा ये दिवाणा।
हिन्दू मूसलमानूं, दोय पन्थ नांही जूबा जूवा।
इस समय में इस धरती को विभाजित करके बैठे हुऐ ये छोटे-बड़े छत्रधारी राजा, सम्राट, सुलतान
आदि उस प्रलय अबस्था में नहीं थे तथा न ही रावण, कुम्भकरण, कंसादि, राव राणा, बल, धन, ऐश्वर्य में
मदमस्त दीवाने उस समय नहीं थे तथा इस समय धार्मिकता की रेखा खींचने वाले ये हिन्दू मूसलमान दो
पंथ-मार्ग अलग-अलग दिख रहे हैं उस समय ऐसा नहीं था।
ना तद काम न करषण जोग न दरसण, तीर्थ वासी ये मसवासी।
ना तद होता जपिया तपिया, न खच्चर हींवर बाज थीयों।
वर्तमान में होने वाले शारीरिक, मानसिक, परिश्रम के कार्य उस समय नहीं होते थे और न ही किसी
प्रकार का हठ योग या राजयोग ही था। न ही ये वर्तमान में प्रसिद्ध छ: दर्शन शास्त्र ही उस समय थे। तीर्थों में
निवासी तथा मठ या श्मसानों में निवास करने वाले भक्त या साधु सन््यासी भी उस समय नहीं थे और न ही उस
समय जप करने वाले जपिया तथा तपस्या करने वाले तपिया ही थे और न ही खच्चर तथा उतम जाति के घोड़े
या सामान्य अश्व भी उस समय नहीं थे।
ना तद शूरवीर न खड़ग न क्षत्री , रण संग्राम जूझ न थीयों ।
ना तद सिंह न स्थावज मिरग पंखेरूं , हंस न मोरा लेल सूबवों।
इस समय जो शूरबीर लोग हाथ में तलवार लेकर युद्ध में जाकर अपना क्षत्रिय पना दिखाते हैं तथा
कुछ लोग आपसी भाई-चारा निभाते हैं तथा कुछ लोग मोह में भी फंस जाते हैं ये सभी संग्राम, युद्ध, भिड़ंत,
क्षत्रिय, शूरबीरता, शत्रुता, बन्धुपना आदि सृष्टि के पूर्वकाल में नहीं थे तथा भविष्य में नहीं रहेंगे तथा उस समय
सिंह, सियार, नाहर, भेड़िया, मृग आदि पशु योनी के प्राणी भी नहीं थे और पक्षी योनी के हंस, मयूर, लेली,
चिड़िया सूवा तोता आदि नहीं थे।
रंग न रसना कापड़ चोपड़, गोहूं चावल भोग न थीयों।
माय न बाप न बहण न भाई , ना तद होता पूत धीयों।
वर्तमान में होने वाले राग रंग, स्वादिष्ट भोजन, उत्सव त्यौहार, सुन्दर वस्त्र धारण, मिठाई-पकवान
आदि उस समय नहीं थे और न ही गेहूं चावल आदि भोज्य पदार्थ ही थे। ये तो सभी सृष्टि सृजन के बाद ही
उत्पन्न हुऐ है। ये सदा एक रस रहने वाले नहीं है। उस प्रलयाबस्था में सृष्टि से पूर्व तो माता-पिता, बहन-भाई,
पुत्र-पुत्री भी नहीं थे। ये भी सृष्टि सृजनान्तर ही उत्पन्न हुऐ है इसलिये नित्य नहीं है इनसे मोहित हो जाना
नादानी है।
सास न शब्दूं जीव न पिण्डूं, ना तद होता पुरुष त्रियों।
पाप न पुण्य न सती कुसती, ना तद होती मया न दया।
ये वर्तमान में चलने वाले श्वांस मुख से उच्चरित होने वाले शब्द शरीर में स्थित जीव और ये पिण्ड
स्वयं ही सृष्टि के प्रारम्भ से पूर्व नहीं थे और न ही उस समय पुरुष स्त्री का जोड़ा ही था तथा न तो पाप था न
पुण्य ही था और सती स्त्रियां या सत पर अडिग रहने वाले पुरुष तथा सतीत्व को तोड़ने वाली स्त्री तथा सत्यत्व
को भंग करने वाले पुरुष भी नहीं थे। ऐसा वह शून्य काल था और न ही वहाँ पर मया-प्रेम भाव ही था और न
ही दया भाव था।
आपै आप उपनना शिंभू, निरह निरंजन धन्धूं कारूं।
आपों आप हुआ अपरंपर, हे राजेन्द्र लेह विचारूं।
बिना किसी दृष्ट जागतिक वस्तु की सहायता के ही स्वयंभू स्वयं ही उत्पन्न हुए है। ऐसा स्वयंभू स्वयं तो अलेख,
निराधार, निरंजन, अपरंपर होते हुए भी साकार जगत के रूप में प्रगट होते है। एक का ही यह नाम रूप अनेकों विस्तार हुआ
है।
प्रसंग-60 दोहा
सब प्रचे साबत मिले , समझे काजी खान।
सतगुरु शब्द सुणाइये , जब आवै इमान।
एक समय भ्रमणार्थ काबुल तथा मुलतान आदि देशों में जम्भगुरु जी पधारे थे। रणधीर जी आदि
प्रमुख शिष्य साथ में थे। वहाँ पर अनेक देशों में भ्रमण करते हुऐ, काजी मुल्ला, खानों को अपने दिव्य
चमत्कारों से चमत्कृत करते हुए उनसे जीव हिंसा करना छुड़वाते हुऐ अन्त में मुलतान आये। वहाँ पर एक
पहाड़ की टेकरी पर आसन लगाया था। उस समय उनके पास में बारह काजी और तेरह खान आये थे। ये सभी
प्रहलाद पंथी जीब थे। उन्होंने चार पर्चे मांगे थे। वे चारों ही पूर्ण करके दिखलाये तभी से वे जम्भदेवजी के
शिष्य बन गये थे। तब उन्होंने श्री देवजी से प्रार्थना की थी कि आप हमें अपने मुखारविन्द से दिव्य शब्द
सुनाइये जो ज्ञान वर्धक तथा मार्ग निर्देशक भी हो तथा आपके बारे में भी हम ठीक प्रकार से जान सके। तब श्री
देवजी ने यह सबद सुनाया
सबद- 106
ओम सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, सुणियो लोग लुगाई।
नर निरहारी एक लवाई , जिन यो राह फुरमाई।
भावार्थ-रे काजी ! रे मुल्ला सुनों | हे संसार के स्त्री पुरुषों | तुम भी कान खोलकर सुनो! मैने परब्रह्म परमेश्वर
से सगुण साकार रूप धारण किया है। वैसे मेरा वास्तविक रूप तो निराहारी एकत्वपना ही है परन्तु जब भी धर्म की हानि
और पाप की अभिवृद्धि होती है तो मैं अनेक बार नये नये रूप धारण करके पीड़ितों की रक्षा करता हूँ। उस समय मुझे
सभी मर्यादाओं को तोड़कर संसार के पदार्थों को भी ग्रहण करना पड़ता है। किन्तु इस समय तो मैंने निराहारी एक वायु
के सहारे ही रहकर यह धर्म का मार्ग चलाया है। इसलिये तुम्हें यह अवश्य ही अद्भुत लगता है।
जोर जरब करद जे छाड़ो , तो कलमा नाम खुदाई ।
जिनके साच सिदक इमान सलामत, जिण यो भिस्त उपाई।
यदि आप लोग निरीह जीवों पर जोर जबरदस्ती करते हो तो करना छोड़ो तथा उनके गले पर छुरा
चलाना छोड़ दो तो तुम्हारा कलमा यानि खुदा का नाम लेना जायज होगा और यदि जब तक जीव हिंसा तथा
उनका उत्पीड़न चलता रहेगा तब तक तुम्हारा नमाज पढ़ना, कलमा रखना रोजा आदि सभी व्यर्थ है तथा जिसके
हृदय में सच्चाई ईमानदारी और दयाभाव सही सलामत विद्यमान है वही स्वर्ग या भिस्त को पहुँचने का उपाय
कर रहा है। इनके अतिरिक्त तो सभी ने नरक का मार्ग अपना रखा है।
जद जद हु
प्रसंग-64 दोहा
एक वैरागी आय कै, हरि सूं पूछी बात।
आसण बिछाणों क्यूं नहीं, हमें बतावो तात।
ताके मन की लखी, शब्द सुणायो देव।
एक शब्द असौ कह्यो, पायो सब ही भेव।
एक वैष्णव संतों को जमात हरिद्वार से चलकर द्वारिका जा रही थी। वह जमात परपासर में डेरा
लगाकर बैठी थी। किसी के द्वारा श्री जम्भेश्वर जी के बारे में श्रवण किया तब जमात के महंत लालदास ने
एक अपने विश्वसनीय साधु को सम्भराथल पर यह जानने के लिये भेजा कि वास्तव में कोई सिद्ध पुरुष है या
पाखण्डी है। जब वह साधु वहाँ पर पहुँचा तब श्री देवजी सम्भराथल पर हरि कंकेहड़ी के नीचे विराजमान थे।
उस साधु ने आकर कहा कि आपने आसन क्यों नहीं बिछाया है। क्योंकि हमारे साधु समाज में आसन बिछाकर
बैठने की परंपरा है। जम्भदेवजी ने उनके मन की बात जान ली थी कि यह अब आगे ओर भी बहुत सी बातें
पूछने वाला है उससे तो अच्छा है कि कहने से पूर्व ही इसकी शंकाओं का समाधान कर दिया जाय। इन्हीं गुप्त
शंकाओं के समाधानार्थ यह सबद सुनाया-
सबद-107
ओ३म् सहजे शीले सहज बिछायो , उनमन रह्या उदासूं।
भावार्थ-हे साधो ! मैंने तो सहज ही में शील रूपी अति उत्तम आसन बिछा ही रखा है। किन्तु वह
दिव्य आसन तुझे इन चर्म चक्षुओं से दिखाई नहीं दे रहा है। इसके लिये तो तुझे दिव्य ज्ञान के नेत्र ही खोलने
होंगे। आप लोग इन बाह्य स्थूल आसन, वेश- भूषा को ही महत्व देते हैं किन्तु मेरे यहाँ तो इन बाह्य वस्तुओं का
महत्व न होकर आन्तरिक शुद्ध गुणों का विकास करना ही महत्वपूर्ण है। मैंने इन शील रूपी उत्तम आसन पर
बैठकर नित्य प्रति साधना के बल से मन को संसार के विषयों से हटाकर उपर उठा दिया है। बह सदा परमात्मा
के रस में मग्न रहता है। इसलिये सांसारिक विषयों से मैं उदासीन हो गया हूँ। अब मेरे लिये वस्त्र से निर्मित
आसन की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम्हें भी यह शील रूपी आसन चाहिये तो यहाँ से प्राप्त कर सकते है।
जुगे जुगन्तर भवे भवन्तर, कहो कहाणी कासूं।
रवि ऊगा जब उल्लू अन्धा, दुनिया भया उजासूं।
इसी शील रूपी आसन पर बैठे हुऐ मेरी आंखों के सामने ही यह पंचभौतिक संसार अनेकों बार बीत
चुका है पुनः निर्मित हो गया है तथा यह काल भी मास, वर्ष, युगों के रूप में ही व्यतीत हो चुका है। मैंने इस
संसार का बहुत लंबा इतिहास देखा है। इसमें होने वाली उथल-पुथल भी मैंने अनुभव किया है। उन सभी
खटू्टी-मीठी वार्ताओं को मैं बताना चाहता हूँ किन्तु यहाँ पर किसको कहूँ कोई सुनने के लिये भी तैयार नहीं है।
क्योंकि जब सूर्य उदय हो जाता है तो तब कर्म हीन उल्लू अन्धा हो जाता है। सूर्य संसार को प्रकाशित
कर देता है, सूर्य की सहायता से संसार के लोग तो देखने लग जाते है परन्तु उल्लू अन्धा हो जाता है। इसमें सूर्य
का क्या दोष है। इसी प्रकार से उल्लू की तरह जो लोग है बे तो इस ज्ञान प्रकाश से बंचित रह जायेंगे तथा कुछ
लोग उल्लू से विशेषता, मानवता रखने वाले लोग सचेत होकर आत्मोपलब्धि कर लेंगे।
सतगुरु मिलियो सत पंथ बतायो भ्रान्त चुकाई, सुगरा भयो विएवासूं।
जांजां जांण्यो तहां प्रवाण्यों, सहज समाणों, जिहिं के मन की पूगी आसूं।
सतगुरु मिल चुका है, सतपंथ बतला दिया है। भ्रान्ति मिटा दी है जिससे सतगुरु पर श्रद्धा विश्वासी
लोगों की तो भ्रान्ति मिट चुकी है। उन्हें तो पक्का विश्वास हो गया है। क्योंकि वे लोग सुगरा है। उनसे जो अन्य
लोगों की अब तक श्रान्ति नहीं मिट सकी है। भ्रान्ति स्वर्ग न जाई, जिस तिस ने भी जाना है उस उस ने ही प्रमाण
विश्वास प्राप्त किया है और वे सहज ही परमात्मा में समाहित हुऐ है। उनकी तो मनोकामनाएं पूर्ण हुई है। अन्य
तो अनेकानेक इच्छाओं के जाल में फंसकर जीवन की खुशी को पलीता लगाते है।
जहां गुरु न चीन्हों पन्थ न पायो, तहां गल पड़ी परासूं।
जिस जिस व्यक्ति ने जहाँ कहीं भी रहते हुऐ सतगुरु परमात्मा को पहचाना नहीं है। उनके द्वारा बताये
हुऐ मार्ग का अनुसरण नहीं किया है। उनके गले में तो निश्चित ही इस जीवन को जीते हुऐ मोह-माया रूपी
फांसी की वजह से ही अनेकानेक जीब योनियों में जाना पड़ेगा। इह लोक एवं परलोक दानों ही नरकमय बन
जायेंगे।
दोहा
तब वैष्णव ऐसे कही, जोग कहो महाराज।
अन्तःकरण इन्द्रिय सभी, शुद्ध होने के काज।
ऐसो उदम बताइये , जासू धर्म ही होय।
निज अर्थ पाये विना, सुखी भया न कोय।
ऊपर के शब्द को श्रवण करके उस वैष्णव साधु ने इस प्रकार की विनती की कि हे महाराज ! हमें
आप योग के बारे में बतलाइये जिससे अन्तःकरण इन्द्रिय सभी पवित्र हो सके हमें आप इस प्रकार का उद्योग
बतलाइये, जिसको हम लोग आसानी से कर सके तथा उस कर्तव्य द्वारा धर्म ही होवे। हे प्रभु! जब तक अपना
मुख्य धर्म नहीं मिल जाता है। तब तक कोई सुखी नहीं हो सकता। यदि योग मार्ग को अपना लेने पर भी उसके
पास योग साधना नहीं रहेगा तो वह सुखी कैसे हो सकता है। क्योंकि '' श्रेयान् स्व धर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्' '
“गीता” बचन से यही प्रमाणित होता है। तब जम्भदेवजी ने सबद सुनाया-
सबद-108
ओ३म् हालीलो भल पालीलो, सिध पालीलो खेड़त सूना राणों।
भावार्थ-हे हल चलाने वाले हाली ! तथा योग सिद्धि को साधना करने वाले साधक ! आप दोनों एक
ही श्रेणी में आते हो। इसलिये तुम्हारे दोनों का जो परम कर्त्तव्य है उसको आप अच्छी प्रकार से मन लगाकर
करो। तब तक करते रहो जब तक सिद्धि यानि फल नहीं मिल जाता है। “स तु दीर्घ काल नैरन्तर्य सत्कार
सेवितो दृढ़ भूमि '' योग खेती में बीज बोया जाता है तो उसकी छ: महीने प्रतीक्षा करनी पड़ती है तथा उस दौरान
कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। उसी प्रकार से योग साधना से भी लम्बे समय तक तथा अबाध गति से और
सत्कार श्रद्धा पूर्वक अभ्यास करना होता हैं तभी सिद्धि रूपी फल को प्राप्ति होती है।
तथा किसान खेती के लिये भी वही उपजाऊ तथा सूना ग्राम से दूर जहाँ पर ग्रामीण पशुओं को पहुँच न हो
उसी एकान्त निर्जन बन में ही जाकर खेती करनी होगी, तभी बह निपजती है। उसी प्रकार से योग साधक को भी
वही स्थान चुनना चाहिये जहाँ पर साधना भली प्रकार से हो सके। जन समूह से दूर एकान्त प्रदेश में ही खेती पक
सकती है। नहीं तो समाज के बीच में रहकर तो यह कार्य कदापि नहीं हो सकता क्योंकि अनेक विध्न बाधाएँ आने
की प्रबल संभावनाएँ हो सकती है।
चन्द सूर दोय बैल रचीलो , गंग जमन दोय रासी ।
सत संतोष दोय बीज बीजीलो, खेती खड़ी आकाशी।
किसान के पास खेत जोतने के लिये दो बैलों की जोड़ी चाहिये तथा उनको वश में रखकर हल चलाने
के लिये रास डाली जाती है तथा बीज भी खेत में बोया जाता है। वह मूल रूप सत्य ही होता है तथा उसमें संतोष
छिपा रहता है। आज ही बीज बोकर के फल की प्राप्ति आज ही हो जाये ऐसा लोभ नहीं होता। बीज बोने के
बाद संतोष करना ही होता है। इसी भाग्य पर आश्रित खेती किसान करता है।
ठीक उसी प्रकार से योग साधना में स्थित साधक के पास भी चन्द्र और सूर दो बैल है अर्थात् बांयी
नासिका से जो श्वांस का स्वर निकलता है यह तो चन्द्र स्वर है तथा दाहिनी नासिका से निकलने वाले श्वांस को
सूर्य स्वर कहते हैं। ये दोनों ही स्वर दो बैलों की तरह स्वच्छन्द विचरण कर रहे हैं। संसार को विषय वासना में
उलझे हुए हैं। इनको वश में करने के लिये गंगा यमुना दो रासियाँ डाल रखी है अर्थात् इन श्वांसों के पीछे इडा
पिंगला नाम की दो नाड़ियां है जो इन दोनों बैलों के लिये रासों का कार्य करती है अर्थात् इन्हीं दोनों रासों द्वारा
इन दोनों श्वासों को खींचकर तीसरी महत्त्वपूर्ण नाड़ी सुषुम्णा में डाल दिया जाता है। उसी के द्वारा वह
श्वांस-प्राणबायु सहस्नार तक पहुँच कर स्थिर हो जाती है। तभी योगी को समाधि लग जाती है तथा समाधि
अवस्था में “जरा न व्यापै जुग जुग जीवै। /'
तथा इस योग रूपी खेत में सत् और संतोष का बीज बोना होगा अर्थात् पहली शर्त तो यह है कि सत्य
पर अडिग रहना, किसी प्रकार का लोक दिखावा या पाखण्ड से कार्य नहीं चलेगा तथा दूसरी शर्त यह है कि
योग सिद्धि में संतोष करना होगा। आज ही प्रारम्भ करके कल ही फल प्राप्त नहीं हो सकेगा। फल की प्रतीक्षा
करनी ही होगी तथा बाह्य विषय भोगों की प्राप्ति को तरफ से वृति को हटाना पड़ेगा। जो भी शरीर निर्वाह के
लिये प्राप्त हो जाये उसी में ही संतोष करना होगा तथा विचारों से सर्वथा शून्य होकर ही योग साधना रूपी खेती
की जा सकती है। जब तक विचारों का प्रवाह चलता रहेगा तब तक आपकी साधना सफल नहीं हो सकेगी।
विचारों की शून्यता दशा ही समाधि की प्रथम अवस्था होती है। इसलिये कहा भी है-खेती खड़ी आकाशी।
चेतन रावल पहरै बैठे, मृगा खेती चर नहीं जाई।
गुरु प्रसादे, केवल ज्ञाने, सहज स्नाने, यह घर रिद्ध सिद्ध पाई।
जिस प्रकार किसान हल जोतने के पश्चात् खेती की रखवाली सचेत होकर स्वयं करता है या किसी
अन्य से भी करवाता है, ऐसा न करने पर तो जरा सी असावधानी से तो मृग आदि जंगली पशु पक्षी खेती को
खा जायेंगे। उसी प्रकार योग साधक के भी 'योगश्चितवृति निरोध:'' चित की बृतियों के निरोध रूपी खेती को
वासनाएँ चर जायेगी। इसलिये उसे भी स्वयं को ही बुद्धि द्वारा सचेत रहकर साधना को रक्षा करनी होगी। ऐसा
न करने पर तो यह तुम्हारा मन रूपी हिरण तथा मन की वृति रूपी हरिणियां विषय वासना द्वारा एकाग्रता रूपी
खेती को खा जायेगी ।
मन तथा इन्द्रियां निरंतर अभ्यास द्वारा आत्मा में समाहित होती है। उस समय सचेत नहीं रहने से एक क्षण
में ही ये चट कर जायेगी। इसलिये सदा सचेत रहकर निर्णय लेने वाली बुद्धि राबल को पहरे पर बिठाना होगा।
उपर्युक्त परिश्रम तो साधक और किसान का ही होगा तथा जब इतना परिश्रम सच्चे मन से करोगे तो गुरु परमात्मा
की असीम कृपा प्रसन्नता का आशीर्वाद आपको सुलभ हो सकेगा। वह आशीर्वाद भी खेती तथा साधना के लिये
परमावश्यक है। सभी कुछ हो जाने पर भी यदि गुरु प्रसाद नहीं मिलेगा तब तक कार्य की सफलता में संदेह है तथा
जब परिश्रम तथा गुरु प्रसाद दोनों ही प्राप्त होंगे। उस समय योग सिद्धि होगी तो वह व्यक्ति कैवल्य ज्ञान और
ब्रह्मज्ञान में सहज रूप में ही स्नान करेगा ।उस समय वह साधक कृत्य कृत्य हो जायेगा। जिस प्रकार किसान को
जब लहलहाती फसल तथा उसके फल की प्राप्ति के समय खुशी होती हैं, हे वैष्णव ! आप लोग ऐसा ही करो।
जैसा मैने बतलाया है। तभी रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति होगी।
दोहा
जो कह्मा सुन सिद्धि लही, पाई वसस््त अलेख।
शून्य ध्यान हृदय धरे, साधु कहे अलेख।
तिस का उतर देत है, जम्भ गुरु जगदीश।
कोट जन्म के पाप जो , होत पलक में खीस।
उक्त सबद को श्रवण करके वह साधु पुन: कहने लगा-हे अलेख !आपने जो बात कही है वैसी
साधना, ध्यान मैं करता हूँ। मैंने वह अलेख निरंजन, निराकार वस्तु की प्राप्ति को है। तब जम्भेश्वर जी ने
इसका उतर देते हुए, उसके अन्दर जो ध्यान समाधि की मिथ्या धारणा बैठ चुकी थी, उसका खण्डन करने के
लिये यह सबद सुनाया।
सबद- 109
ओझम् देखत भूली को मनमानै, सेवै बिलोवै बाझ सनाने
देखत भूली को मन चैवै, भीतर कोरा बाहर भैवै।
भावार्थ-मानव जीवन में कुछ भूल तो अनजान में होती है। उनका सुधार तो ज्ञात होने के पश्चात्
संभव है तथा कुछ भूले जानकर के करता है उनका सुधार सम्भव नहीं है। ““जाणत भूला महापापी ''। वह पापी
कभी भी नहीं सुधर सकता। गुरु जम्भेश्बर जी कहते हैं कि देखते हुऐ जानते हुऐ भी यह कार्य करना ठीक नहीं
है। फिर भी करता है। अपना तन मन धन उसी भूल में ही लगा देता हैं तो वह व्यक्ति जिस प्रकार से कोई बांझ
को सेवा करता है या जल को बिलौता है उसी प्रकार से व्यर्थ का ही कार्य करता हैं न तो बांझ गऊ आदि से दूध
या पुत्र की प्राप्ति होगी और न ही जल को बिलौने से घी की प्राप्ति हो सकेगी। बही दशा उन देखते हुऐ भूल
करने वालों को होगी अर्थात् कार्य निष्फल ही होगा।
इसी प्रकार से हे वैष्णब! इस संसार को घूम फिर कर देखने से, भटकने से अमृत तत्व की प्राप्ति नहीं
हो सकेगी और न ही देवी देवताओं की पूजा करने से ही स्वर्ग या मुक्ति मिल सकेगी इस बात का तुम्हें पता है
फिर भी तुम भूल करते हो तथा देखते हुऐ जानते हुए भी कि यह कार्य ठीक नहीं है फिर भी करते हो मन से
चाहते हो तो वह अन्दर से तो सूखा है किन्तु बाहर से स्नान करने जैसा ही है। अन्दर से सूखा यानि प्यासा रहकर
केवल बाह्य स्नान से उसकी प्यास नहीं मिटेगी अर्थात् आप लोग बाहर से तो साधु का वेश, साफा, तिलक
माला, जयएऐं, वस्त्र विशेष पहन लिये है किन्तु अन्दर से अन्तःकरण को साधु नहीं बनाया है तो तुम्हारा ढ़ोंग
व्यर्थ ही है। यह भी आप जानते हुऐ भूल करते हो।
देखत भूली को मन माने , हरि पर हर मिलियो शैताने
देखत भूली को मन चेवै, आक बखाएणी थंदे मेवे ।
देखते हुए ही भूल को मन में मानकर अर्थात् यह जानते हुए कि यह कार्य नहीं करना चाहिये, उस
वर्जनीय कार्य को भी कर बैठता है। जैसे हरि विष्णु परमात्मा को तो छोड़ दिया और शैतान लोगों के साथ में
जाकर मिल गया। वे शैतान लोग बर्बाद कर देंगे। यही सभी कुछ जानते हुए होता है। हे साथो ! तुमने भी यही
किया है। हरि विष्णु की प्राप्ति का उपाय तो किया नहीं किन्तु शैतान जो भूत-प्रेत, तन्त्र-मंत्र आदि के चक्कर
में पड़कर अपने आप का जीवन बर्बाद किया तथा अन्य आपके सम्पर्क में आने वाले जनों का भी जीवन
शैतान बना दिया है। यह भी भूल तुम्हारे जानते हुए ही हुई है।
तथा तुमने विषमय आक को तो बहुत ही अच्छा बताया, उसको बड़ाई करता हुआ संसार में घूमता रहा
और मेवा आदि पदार्थों की तूँ निंदा करता रहा। यह भी तुम्हारे मन की चाहना पर हुआ है। तुमने समझ से काम
नहीं लिया अर्थात् संसार में भ्रमण करते हुऐ तुमने भांग, धतूरा अफीम, आदि नशीली वस्तुओं की तो बड़ाई
करता रहा सेवन करता रहा और अन्य जनों से करवाता रहा इसका ही प्रचार किया किन्तु अमृत तुल्य दूध, दही,
घी आदि की निंदा करता रहा। यह भी तुमने जानते हुऐ भूल की है।
भूला लो भल भूला लो, भूला भूल न भूलूं।
जिहिं ठुंठड़िये पान न होता, ते क्यूं चाहत प्हूलूं।
हे भूले हुऐ लोगों ! आप बार-बार भूल न करो। वैसे ही आप लोग भूल में फंस कर दुख उठाते आये
है फिर उस भूल को क्यों भूल जाते हो। एक बार की हुई भूल का यदि स्मरण रखा जाये तो फिर वही भूल दुबारा
नहीं हो सकेगी। इस प्रकार भूलों को सुधारा जा सकता है किन्तु आप लोग तो भूल के ऊपर भूल किये जा रहे
हो। जिस ठूंठ सूखे वृक्ष पर पते नहीं है तो उस पर फूल क्यों चाहते हो। यही तुम्हारी ना समझी है। जिन भूलों
में जीवन व्यतीत करने से सांसारिक क्षणिक सुख भी उपलब्ध नहीं है, वहाँ पर परमानन्द की खोज क्यों करते
हो। इसलिये जानते हुए भी इन भूलों को, पाखण्डों को छोड़कर सहज जीवन जीते हुऐ सच्चे मन से योग साधना
करो तभी तुम्हारा जीवन सफल हो सकेगा।
प्रसंग-62 दोहा
सतगुरु ऊभा साथरी , खिणिये जाम्भोलाव ।
धमकारा धरती हुवे, गहिही सूदे घाव।
ऊभो रावल जैतसी, खोदे जुड़ी जमात।
गोबर गैरे गढ़ पति, उभा डारै खात।
चौपाई
इक नारी की रीतहूं भारी, जम्भ जन सेती रहत नियारी।
निज तन घूंघट मांही छिपावै , द्रस काहूं कू नाहि दिखावै।
सो श्री घुंघट कबहूं न खोलै , वचन मुखा कर कबहूं न बोलै।
जिणरी सतगुरु साख सुणाएऊं, नर नारी सब देखण आएऊं।
गुरु जम्भेश्वर जी जाम्भोलाव तालाब खुदवा रहे थे। अनेकानेक नर नारी नि :स्वार्थ भाव से सेवा कार्य
में जुटे हुए थे। उस समय भारी कोलाहल हो रहा था। जेसलमेर नरेश जेतसी भी वहीं पर उपस्थित थे। वे स्वयं
सेवा कार्य कर रहे थे, वहाँ पर बिखरे हुए गोबर खात बुहार रहे थे। उसी समय ही एक स्त्री को लोगों ने देखा।
वह सभी से अलग रहकर घूंघट में मुंह छिपाये हुए दिन-रात मिट्टी निकालने का कार्य कर रही थी और न ही
किसी से वार्ता ही करती थी। ऐसी अवस्था देखकर जेतसी आदि प्रमुख लोगों ने आकर जम्भदेवजी से पूछा कि
हे महाराज ! इस स्त्री को रीति-रिवाज तो भिन्न ही दिखाई दे रही है। आप बतलाइये यह कौन जीव है जो इस
प्रकार से दिन-रात सेवा कार्य में ही जुटी रहती है तब श्री देबजी ने यह सबद सुनाया-विशेष कथा जाम्भा पुराण
में पढ़ें।
सबद-110
ओझःम् मथुरा नगर की राणी होती , होती पाटम दे राणी।
भावार्थ-यह जो एक विचित्र स्त्री दिखाई देती है इसके तीन जन्मों की बात मैं तुम्हें बतलाता हूँ। इस
समय तो तुम्हारे सामने मानव शरीर इसको मिला हुआ है तथा इससे पहले भी एक बार यह स्त्री शरीर में थी तथा
बीच में एक बार इसे गधी का शरीर भी मिल चुका है। ये कर्म न जाने कहाँ कहाँ जीव को ले जाते हैं।
अब सुनों प्रथम जीवन की कहानी-यह मथुरा नगर के राजा की पटराणी थी। आशा नाम से विख्यात
थी। राजा की मृत्यु पश्चात् राज्य को उतराधिकारिणी यही बनी। पटराणी थी तथा पूर्णतया अधिकारिणी बनने
के बाद तो इसको अच्छे कर्म करने चाहिये थे। किन्तु इसने-
तीरथ वासी जाती लूटे, अति लूटे खुरसाणी।
मानक मोती हीरा लूट्या, जाय बीलूधा डाणी।
गुजराती तीर्थ यात्री यमुना गंगा आदि तीर्थों में स्नान करने के लिये आये हुऐ थे। वे लोग बड़े धनवान
सेठ साहूकार लोग थे। उन लोगों ने ज्योंहि मथुरा की सीमा में प्रवेश किया तो उनके पीछे राज्य कर्मचारी कर
वसूलने वाले पीछे पड़ गये। उन्होंने कहा कि भाई हम लोग तीर्थ यात्री है कोई व्यापार करने नहीं आये है। आप
हमसे रुपये किस बात का मांग रहे हो। राज कर्मचारियों ने रानी से जाकर यह वार्ता सुनाई। तब रानी ने अपने
कर्मचारियों को आज्ञा प्रदान की कि ये तीर्थ यात्री नहीं है इन्होंने बनावटी भक्त का वेश बनाया है, आप इनसे
धन लूट लीजिये।
रानी के कथनानुसार ही कर्मचारियों ने उनसे माणिक, मोती, हीरा, खुरसाण, आभूषण आदि कीमती
सामान बूरी तरह से लूट लिया। इसी दौरान कई एक जनों को चोटें भी आयी तथा कुछ लोग मारे भी गये। राज
कर्मचारियों ने उनकी चीख पुकार को कुछ भी नहीं सुना और धन रानी को लाकर सौंप दिया। रानी तथा
रजवाड़े ने वह धन अपने काम में ले लिया इसलिये-
कवले चूकी वचने हारी , जिहिं औगुण ढ़ांची ढ़ोवै पाणीं।
विष्णु कूँ दोष किसो रे प्राणी, आपे खता कमाणी |
रानी ने राजा, प्रजा तथा ईश्वर के सामने कवल किया था, जो प्रजा की भलाई के लिये वचन दिया
था। उस वचन तथा प्रतिज्ञा को छोड़ चुकी थी जिस कारण से दूसरे जन्म में उसे गधी की योनी मिली। कई बार
जन्मते मरते अपने फल को भोगा। अन्त समय में यह बूढ़े नामक आदमी के घर पर खरी का जन्म लेकर
आयी। वहाँ पर बूढ़ा नित्य प्रति उस खरी के पीठ पर ढ़ांचे में घड़े रखकर प्याऊ में पानी पिलाता था। जिससे
कुछ पुण्य का भाग इसे भी मिला, जिससे इसके खोटे कर्मों का दुख कट गया और अब यह इस स्त्री रूप में
आयी है। तालाब में मिट्टी निकाल रही है। इसके सभी कर्म इससे कट जायेंगे, फिर जन्म मरण के चक्कर में
नहीं आयेगी।
हे प्राणी! इसमें कोई भी विष्णु का दोष नहीं है। प्राणी अपने आप ही सद्मार्ग को छोड़कर दुष्कर्म
करता है। जिससे उसे स्वयं को ही फल भोगना पड़ता है। व्यक्ति सुख में तो कहता है कि यह तो मैने किया है
और दुख में कहता है कि ईश्वर ने किया है। वह दोष ईश्वर को लगाना जायज नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही कर्त्ता
है और स्वयं ही भोक्ता है।
प्रसंग-63 दोहा
झाली राणी पूछियो, देव तणें दरबार।
अयोध्या में आनन्द घणां, सुखी किसो किरतार।
सबद संख्या 63 के प्रसंग में यह बतलाया था कि चितौड़ नरेश सांगा राणा तथा उनकी माता झाली राणी
जम्भगुरु जी के शिष्य बन गये थे तथा बहाँ पर उनके प्रति '' आतर पातर '' शब्द भी सुनाया था। कुछ समय पश्चात्
जम्भदेवजी जाम्बा सरोवर खुदवा रहे थे उसी समय झाली राणी जम्भदेवजी के दर्शनार्थ जाम्भोलाव आयी थी। साथ
में एक सन्दूक लायी थी, जिसमें भेंट देने के लिये अमूल्य वस्तुऐँ थी किन्तु मार्ग में चोरों ने युक्ति से चुरा ली थी।
तब रानी ने श्री देवजी को याद किया। तब चोर अन्धे हो गये और रानी को लाकर सन्दूक वापिस सौंप दी, तभी
उनकी आंखें ठीक हो सको थी।
रानी श्रीदेवजी के पास जाम्बा सरोवर पर पहुँची तथा आठ दिन तक वहीं निवास किया। वहाँ से वापिस
रवाना होते समय जम्भदेवजी से पूछा कि आप पहले अयोध्या में राम रूप में थे, तब कैसा सुख था तथा अब यहाँ निर्जन
बन में आपको कैसा सुख मिलता होगा। तब जम्भदेवजी ने सबद सुनाया-
सबद- 111
ओ३म् खरड़ ओढ़ीजै, तूंबा जीमीजै , सुरहै दुहीजै।
त खेत की सींव म लीजै, पीजै ऊंडा नीरूं।
भावार्थ-हे रानी ! अयोध्या में सुख तथा यहाँ के सुख में बहुत ही अन्तर तुझे दिखाई देता है। यह मरू
भूमि वाला देश है, यहाँ पर लोग पशु पालन ही विशेष रूप से करते हैं। उन ऊंट, भेड़, बकरी आदि पशुओं की
ऊन जटाओं से ही वस्त्र विशेषत: बनाये जाते है वे ही वस्त्र शरीर को चुभने वाले करड़े जरूर होते हैं किन्तु
स्वास्थ्य के लिये लाभदायक होते है, उन्हें ही ओढ़ते तथा पहनते है तथा भोजन के लिये मोटा अनाज, मोठ,
बाजरा, ज्वार आदि ही खाया जाता है। कभी कभी विपति काल में तो तूंबे के बीज जो अति कड़वे होते है उन्हें
भी युक्त द्वारा मीठे बनाकर खाये जाते है। दूध, दही, घी के लिये गऊवें ही ज्यादा पालते है उन्हीं का अमृतमय
दूध पीते है तथा ये लोग अपने हक की कमाई करके जीवन निर्वाह करना ही पसन्द करते है। जो इनके अपने
अधिकार में खेत जमीन जायदाद है, उसी में ही सीमित रहकर परिश्रम करके अन्न उपजाते है। दूसरे के खेत के फल
की आशा नहीं करते, अपनी सीमा में ही रहते है तथा कूवे का जल ही पीते है। यहाँ पर जल बहुत ही गहरा भूमि के नीचे
पाताल का है। जल जितना गहरा होगा उतना ही लाभदायक होगा। ऐसा यह दिव्य देश है तथा इसी प्रकार के लोग यहाँ
पर निवास करते हैं।
सुर नर देवा बंदी खाने, तित उतरिया तीरू।
भोलब भालब टोलम टालम, ज्यूं जाणों त्यूं आणों।
देवता, नर तथा नरों के भी देवता राजा, इन्द्र तथा महाराजा सभी लोग कर्मो के बन्धन में जकड़े हुऐ है
ये सभी अपने अपने कर्मो के अनुसार ही उच्च पदवी को प्राप्त हुए है किन्तु इनके भी तो कर्म भोगों की समाप्ति
पर वापिस सामान्य धरातल पर ही आना पड़ेगा।ये लोग उच्च पदवी प्राप्त करने से पार तो नहीं उतर सकते।
सदा सदा के लिये जन्म मरण के चक्र से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करने के लिये तो उन्हें भी इसी कर्म भूमि में
ही आना पड़ेगा। पार तो यहाँ पर आकर ही उतरा जा सकता है क्योंकि समुद्र में छलांग लगाने के लिये यही मरू
देश ही किनारा है। इस घाट पर आये विना तो नौका उपर बैठ ही नहीं सकता। तो फिर पार कैसे उतर सकते
है। यहाँ के लोग भोले भाले सीधे सरल हृदय वाले है। ऐसा ही समझकर मैं यहाँ पर आया हूँ तथा ऐसे लोग ही
मुक्ति व ज्ञान के अधिकारी भी होते हैं। ये लोग प्रहलाद पंथी भी है। किन्तु अब अपने मार्ग को भूल गये हैं इन्हें
पुन: सचेत कर देना मेरा कर्तव्य है।
मैं वाचा दई प्रहलादा सूं, सुचेलो गुरु लाजै।
कोड़ तेतीसूं बाड़े दीन्ही, तिनकी जात पिछाणों ।
क्योंकि मैंने सतयुग में प्रहलाद भक्त को नृसिंह रूप धारण करके वचन दिया था कि मैं तुम्हारे बिछुड़े
हुऐ तेतीस करोड़ जीवों का उद्धार करूँगा। इससे पूर्व पांच, सात, नव इस प्रकार तीनों युगों में इकौस करोड़ तो
पार पहुँच गये है। अब शेष बचे हुऐ बारह करोड़ का उद्धार करना मेरा कर्तव्य हो जाता है। यदि मैं कर्तव्य का
पालन न करूँ तो अच्छा शिष्य तथा सद्गुरु दोनों को ही लज्जित होना पड़ता है। पहले तो दोनों ने वचन कह
दिया किन्तु अब निभा नहीं पा रहे है। वे बारह करोड़ यत्र-तत्र इस मरूभूमि में ही विशेष रूप से बिखरे हुए हैं,
उनकी जाति को मैं पहचानता हूँ, उनको खोज-खोज कर पार पहुँचाना है तभी मैं शिष्य प्रहलाद के ऋण से
उऋण हो सकूँगा।
इसलिये हे महारानी ! उन प्रहलाद के बाड़े के तेतीस करोड़ भक्तों का उद्धार समय-समय पर मैंने किया है।
इस कर्तव्य के लिये मुझे कष्ट भी उठाना पड़ा है। तो भी हम लोग मर्यादा के पक्के होने से हमारे सामने कष्ट भी घुटने
टेक देता है।
जद औ एक
प्रसंग-64 दोहा
मूलां सधारी बूझियों , जांभाजी सूं जबाब।
सरै तोरे विना महब है, झूठा सभी खुबाब।
एक समय मुल्ला सधारी नाम का व्यक्ति जम्भदेवजी के पास आया और आकर के कहा कि-' शरह
तोरे'' नाम की पुस्तक में जो कुछ लिखा है वही सत्य है। इसके अतिरिक्त जो कुछ कहा या सुना जाता है बह
सभी या महज झूठा है या फिर केवल कल्पना मात्र है। इनमें सत्यता नहीं है। इस प्रकार के सवाल जबाब करने
पर उसको उत्तर स्वरूप यह सबद सुनाया-
सबद- 112
ओश३म् जंके पंथ का भाजणा, गुरु का नींदणा, स्वामी का दुस्मणा।
कऋुफर ते काफरा, कुमली क्ृपातूं , कुचीला क् धातूं।
भावार्थ-हे मूल्ला ! यदि तुम अपनी पुस्तक को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हो तो यह तुम्हारी भूल ही होगी
इसका तो मतलब यह होता है कि अन्य सभी मत मतान्तर ग्रन्थ झूठे हैं तथा आप लोग भी जैसी तुम लोगों ने
आज्ञा दी है बैसा ही आचरण कहाँ करते हैं। इस प्रकार से जो पन्थ को तोड़ता है, सद्गुरु तथा ईश्वर की बतायी
हुई मर्यादाओं का उल्लंघन करता है और सतगुरु की निंदा करता है तथा सभी के स्वामी परमात्मा से दुश्मनी
मोल लेता है, वह वास्तव में काफिर, नास्तिक, पनन्थ भंजक ही है।
ऐसा व्यक्ति सदा ही अपवित्र तथा कूपात्र है। इसी कुपात्रता मलीनता के कारण जो भी कार्य करेगा
वह अन्य जनों के लिये दुखदायी ही होगा। सद्गुणों में दोषारोपण करने वाला कुचील होकर शरीर में ही विकृत
हो जायेगा। आप लोग इसी मार्ग का अनुसरण करते हुऐ दिखाई दे रहे है। इसलिये तुम्हें यह विकृत वार्ता सूझी
है।
हड़ हड़ा भड़ भड़ा, दाणवै दूतबा, दाणवै भूतबा।
राकसा बोकसा , जाका जन्म नहीं पर कर्म चंडालूं।
जो मन बुद्धि तथा शरीर से ही विकृत हो चुका है, ऐसा व्यक्ति बिना सतगुरु की शरण ग्रहण किये कोई
भी कार्य ठीक से नहीं कर सकेगा। वह विना विचारे कुछ न कुछ करेगा तो अवश्य ही परन्तु वह अति शीजघ्रता
के कारण ऐसा ही हड़हड़ा ही होगा अर्थात् सुचारू रूप से नहीं हो सकेगा तथा वह कार्य करते समय फूहड़ को
भांति एक बर्तन से दूसरे बर्तन को भड़हड़ बजा देगा अर्थात् इसका कार्य निर्माण जनक न होकर तोड़ फोड़ वाला
ही होगा। जिस प्रकार से दानव, यमदूत, भूत-प्रेतों का कार्य जोड़ का न होकर तोड़ने वाला ही ज्यादा होता है। उस
विकृत दशा में मानव भी राक्षस हो जाता है। किन्तु वह राक्षसपना भी सदा स्थिर रहने वाला नहीं होता। एक राक्षस
दूसरे को खा जाया करता है। ऐसे लोग जन्म से तो चाण्डाल नहीं है किन्तु कर्मो से चण्डाल ही होते है। वह चाहे
उत्तम कुल में जन्म क्यों न ले परन्तु दुष्ट कर्मो के कारण उसे चण्डाल राक्षस ही कहना चाहिये।
और कूं जिभे कर आप कूं पोखणा, जिहि की रूवां ले दीजैसी।
दौरै घूंप अंधारौ , तानबे तानबा, छानबे छानबा।
तोड़बै तोड़बा , कूकबै पूकारबा , जाकी कोई न करबा सारूं।
अपने से अन्य निरीह प्राणियों को मारकर अपने शरीर का पोषण यदि करेगा तो तुम्हारी जीवात्मा को
यमदूत पकड़ कर नरक में ले जायेंगे। वहाँ ले जाकर कठिन से कठिन अन्धेर घुप नरक में डाल दिये जाओगे।
वहाँ पर यम के दूत एक दूसरे की तरफ खींचातानी करेंगे तथा भयंकर शूलों द्वारा तुम्हारे सूक्ष्म शरीर-जीवात्मा
के पीड़ादायक छेद करेंगे तथा शरीर को तोड़ मरोड़ डालेंगे। उस समय भारी कष्टों का सामना करना पड़ेगा।
तुम यदि पुकार भी करोगे तो भी “न तहां दइयां न तहां मइयां, नागड़ दूत भयाणों ' वहाँ पर न तो दादी ही
सहायता करेगी और न माता पिता या भाई बन्धु ही साथ देंगे, वहाँ पर तो नंगे दूत ही दिखाई देंगे। इसलिये
तुम्हारी कूक पुकार कोई भी नहीं सुन सकेगा क्योंकि ऐसे पंथ भंजक, स्वामी के दुश्मन, जीव हिंसक जन की
कोई भी सहायता नहीं करेगा और न ही तुम्हारी यह '“शरह तोरेत'' नाम की पुस्तक ही सहायता कर सकेगी।
दोहा
मुला सधारी यूं कहै, महंमद ही फुरमान।
रोजे रखे निवाज पढ़े, बंदगी करे साहब तेहि मान।
उक्त शब्द को सुन करके मुल्ला कहने लगा-आप ऐसी बातें क्यों कहते हैं, जिससे हम दुखी हो जाते
हैं। हम लोग महमद का फरमान स्वीकार करते हैं। रोजे रखते हैं, तीन समय नमाज पढ़ लेते हैं, ऐसी हमारी
बंदगी साहब जरूर स्वीकार करेगा। हम लोग नरक में कैसे गिर सकते हैं। श्री देवजी ने पुनः: दूसरा सबद
सुनाया-
सबद- 113
ओश३म् ईमा मोमण चीमा गोयम, महंमद फुरमानी ।
भावार्थ-तुम्हारे मजहब के आदि सतगुरु या पीर महंमद ने तो जैसा तुम लोग कहते हो तथा करते हो
वैसा नहीं फरमाया था। उनका कहना तो यह था कि सच्चा मानव तो वही हो सकता है जो ईमानदारी से हृदय
गुफा में छिपे हुए परमेश्वर की खोज करें। वैसे वह सर्वव्यापी परमात्मा कहीं गया नहीं है और न ही लंबी
आवाजें देने से कहीं से आयेगा। वह तो घट-घट में व्यापक है। उसे तो शांत चित से ही देखा जा सकता है।
उरका फुरका निवाज फरीजा, खासा खबर विनाणी।
नवाज या अल्ला के नाम पर तुम लोग जितना हो हल्ला मचाते हो, वह जायज नहीं है। बह तुम्हारे कंठ
से निकली हुई ध्वनि को नहीं सुनेगा क्योंकि कण्ठ तथा आत्मा का तो कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यदि आप लोगों
को वहाँ तक अपनी आवाज पहुँचानी है तो वह हृदय के द्वारा पहुँचाई जा सकती है। इसलिये हृदय में ही नमाज
का स्फुरण करो। यही अच्छी खबर तुम्हारे लिये मुहम्मद ने सुनायी थी और मैं पुन: तुम्हें सचेत कर रहा हूँ।
इला रास्ती ईमा मोमन, मारफत मुल्लाणी ।
हृदय में परमात्मा का स्मरण करना ही सच्चा मार्ग है और इसी मार्ग द्वारा ही दयालु परम पिता
परमेश्वर तक पहुँचा जा सकता है तथा काजी मुल्लाओं के मारफत यही बात कही जानी चाहिये क्योंकि उन
महा पुरुषों का ऐसा ही आदेश था।
प्रसंग-65 दोहा
जाट जमाती आय कै, गुरु के लागा पाय।
क्रिया धर्म जांणो नहीं, थूल जू वचन सुणाय।
मूरख परचै याहि सूं, जो म्हानै परचाय।
तो सतगुरू सांचो कहूं, ईश्वर जाणू ताहि।
एक जाटों की जमात जम्भदेवजी के पास दर्शनार्थ आयी और आकर चरणों में शीश झुकाया तथा
कहने लगे-हे देव | हम लोग क्रिया धर्म के बारे में कुछ भी नहीं जानते है और न ही हममें जानने की सामर्थ्य है।
ऐसा कुछ चमत्कार कीजिये ताकि हमारे में बह शक्ति आ सके ताकि ज्ञान ग्रहण करके जीवन को आदर्शमय
बना सके। हमारा विश्वास तो तभी जम सकता है अन्यथा आपको बातें हमारी समझ से बाहर होगी। हम लोग
ईश्वरीय अवतार भी चमत्कार के बिना स्वीकार नहीं कर सकते। तब श्री देवजी ने उनके प्रति सबद सुनाया-
सबद- 114
ओझ३म् सुर नर तंणो सन्देशो आयो, सांभलियो रे जाटों।
चांदणै थके अंधेरे क्यों चालो, भूल गया गुरु वाटो।
भावार्थ-परम पिता परमात्मा ने ही आप लोगों के लिये यह संदेशा देकर मुझे सुरनर को भेजा है
अर्थात् यह कार्य तो उसी परम सत्ता निराकार निरंजन ब्रह्म का ही है। किन्तु बह तो निराकार होने से कार्य तो कर
नहीं सकता, इसलिये बही निराकार स्वयं ही देव तथा मानव का यह रूप धारण करके इस खबर को बता रहा
है। ऐसी खबरें देव-मानव से परमात्मा बना देने वाली कभी कभी ही मिल पाती है। इसलिये हे जाटों ! संभल
जाओ, सावधान तथा सचेत हो जाओ अन्यथा यह अवसर हाथ से निकल जायेगा।
अब तो तुम्हारे सामने ज्ञान प्रकाश हो चुका है तो इस प्रकाश में चलकर जीवन व्यतीत कीजिये। इस
प्रकाश की वजह से अब तो भटकना नहीं चाहिये। यदि प्रकाश होते हुए भी जान बूझ कर अन्धेरे में ही चलोगे
तो फिर किसी को दोष नहीं देना। गुरु के बताये हुऐ मार्ग से अवश्य ही भटक जाओगे तथा गुरु द्वारा निर्देशित
मार्ग से भटकने का अर्थ अच्छा नहीं होता।
नीर थक घट थूल क्यूं राखो, सबल बिगोवो खाटो |
मागर मणिया क्यूं हाथ बिसाहो, कांय हीरा हाथ उसाटो।*
जल होते हुऐ भी घड़ा खाली क्यों रखते हो अर्थात् इस समय तुम्हारे यहाँ ज्ञानामृत को वर्षा हो रही है तो
फिर यह अन्तःकरण रूपी घड़ा खाली क्यों रखते हो। वे मन, बुद्धि, चित, अहंकार ज्ञान के लिये तरस रहे हैं। जन्म
जन्म के प्यासे हैं इन्हें ज्ञानामृत से तृप्त कीजिये तथा बार बार पूरा बल लगाकर छाछ को क्यों बिलो रहे हो। जिसमें
से एक बार घी निकल चुका है। अब दुबारा घी निकालने का परिश्रम व्यर्थ है अर्थात् युवा अवस्था में सांसारिक
भोग्य पदार्थों का एक बार भोग कर चुके हैं अब वृद्धावस्था में वह सुख वापिस लौटकर नहीं आयेगा उसके लिये
बार-बार परिश्रम करना व्यर्थ है।
मगरे के चिड़ी मणियां जो कोई सुन्दर और टिकाऊ नहीं होते, उनको तो तुम हाथों में लेकर प्रसन्न होते
हो, अपना श्रृंगार करना चाहते हो तथा हाथ में आये हुऐ हीरों को फेंक देते हो, यह कैसी बुद्धिमानी है अर्थात्
लोक प्रसिद्ध दन्त कथाएँ तथा झूठी स्वार्थ भरी बातों पर विश्वास करके कल्पित देवी देवता भूत प्रेतों को पूजा
तो तुम लोग करते हो तथा इस समय तुम्हारे हाथ में आया हुआ हीरा सदृश ज्ञान जो तुम्हें परम तत्व की प्राप्ति
करवा सके। इस संसार कौ सर्वश्रेष्ठ सत्ता से मिलाप करवा सके, उसकी तुम लोग उपेक्षा करते हो तो तुम्हारे
जैसा और कौन भाग्यहीन होगा।
सुर नर तंणो संदेशो आयो, सांभलियो रे जाटों।
इसलिये हे जाटों | इस समय तुम्हारे लिये ही विशेष रूप से यह संदेशा आया है। अब तुम सोते नहीं
रहना यदि इस समय सोते रह गये तो फिर सदा के लिये ही सो जाओगे, फिर तुम्हें जगाने वाला कोई नहीं
आयेगा। इसलिये संभल कर सचेत हो जाओ। इस संदेशे को श्रवण करके मनन, धारण, निदिध्यासन करोगे तो
तुम्हें स्वत: चमत्कार मालूम पड़ेगा। ये दिव्य शब्द ही तुम्हें चमत्कृत कर देंगे, तुम्हारे जीवन में शांति ला देंगे।
प्रसंग-66 दोहा
जोगी एक ज आवियो, जम्भगुरु के पास।
हाथ जोड़ बोलत भयो, सूधो वचन प्रकाश।
गूदड़ी धर बैठत भयो, कीन्हों एह विचार।
रूप तुम्हारो जोग निध, स कैसे किरतार।
एक योगी श्रीदेवजी के पास में आया और हाथ जोड़कर कुछ विना विचारे ही वचन बोलने लगा- तथा
कुछ कहने के बाद गूदड़ी रखकर बैठ गया और फिर विचार करके कहने लगा कि आपका रूप तो महान योगी
जैसा दिखता है। आपका दिव्य स्वरूप जैसा कि एक योगी का होना चाहिये, उससे कहीं अधिक उच्च कोटि
का है किन्तु आपका शरीर इतना दुबला पतला क्यों है। इसका कारण बताइये। तब श्री देवजी ने सबद
उच्चारण किया।
सबद - 115
ओदशम् म्हे आप गरीबी तन गूदड़ियो , मेरा कारण किरिया देखो।
बिन्दो ब्योहरो व्योर विचारो, भूलस नाही लेखो।
भावार्थ-मैं स्वयं गरीबी में ही हूँ और मेरा यह शरीर ही गूदड़ी (ओढ़ने का वस्त्र है) जो सदा ही मेरे
साथ रहता है अर्थात् मेरी इस आत्मा में सांसारिक धन जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष और भाई बन्धु,
धन दौलत इत्यादि नहीं है। मैं इससे सदा ही वंचित हूँ इसलिये गरीब हूँ तथा कृश काय ही मेरी इस आत्मा की
रक्षा के लिये गूदड़ी की जगह पर्याप्त है। अब यह गूदड़ी प्राचीन होकर जीर्ण-शीर्ण हो जायेगी तो इसको छोड़
दिया जायेगा। तब तक तो इससे कार्य ले रहा हूँ। *बासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति '' गीता वचन
से भी यही बात सिद्ध होती है। हे योगी ! तुमने मेरे इस शरीर को तो देखा किन्तु शरीरस्थ परम ज्योति को तो नहीं
देख सका और न ही मेरे कारण क्रिया अर्थात् मेरे द्वारा किये जाने वाले कार्य को ही देखा है। इसलिये अब तुम
मेरे द्वारा होने वाले आचार-विचार साधना को देखो।
वह परम तत्व बिन्दु के रूप में अवस्थित होता है। बाह्य तत्वों पर विचार करते करते अन्त में सूक्ष्म
बिन्दु यानि शून्य ही अवशेष रह जाता है। योगी लोग उसी बिन्दु शून्य पर ही ध्यान केन्द्रित करते है। उसी बिन्दु
की ओम ध्वनि है। गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि उसी बिन्दु के बारे में ही विचार करता हूँ तथा उस शून्य का
ब्यौरा पेश करता हूँ तथा मेरे द्वारा बार-बार उस शून्य के ब्यौरे को याद रखने, विचार करने के लिये कहा जाता
है हे लोगों| उस लेख को विवरण को भूल नहीं जाना। उसे सदा याद रखते हुऐ वहाँ तक पहुँचने के लिये
प्रयत्तशील रहना।
नदिये नीरूं सागर हीरूं, पवर्णा रूप फिरे परमेश्वर ।
वह परम तत्व सर्वत्र समाया हुआ है क्योंकि शून्य रूप में अवस्थित रहता है। जैसे नदियों में जल रूप
से उसकी ही स्थिति है। इसलिये तो जल से प्यास की तृप्ति होती है तथा इस जल तत्व से शरीर का पोषण होता
है सागर में वह हीरे के रूप में विद्यमान है। सागर का सार तत्व हीरा ही होता है तथा विशेषत: वह पवन के रूप
में सर्वत्र समाया हुआ हैं इन चर्म चश्लुओं से तो वायु नहीं दिखती किन्तु स्पर्श का विषय तो बनती ही है। उसी
प्रकार से वह परमात्म तत्व भी अनुभव का विषय बनता है और हमारे श्वांसों द्वारा अन्दर प्रवेश करके हमें
जीबन प्रदान करता है। उन्हीं के द्वारा दी हुई प्राण शक्ति से हम जीते है। इसी प्रकार से कण कण में उसकी
सत्ता विद्यमान है। परन्तु उसका साक्षात्कार इन पाँच स्थूल तत्वों के माध्यम से संभव हो सकता है।
बिंबै बैला निशचचल थाघ अथाघूं, ते सरवर कित नीरूं, गहर गंभीरूं।
बिंबै बेला में यानि ब्रह्म मूहुर्त में दिग या जीवन कौ प्रारम्भिक अवस्था में जब सूर्योदय होता है। ऐसी
दिव्य बेला में ध्यान किया जाता है। गुरु जी कहते हैं कि में उस दिव्य बेला में निश्वल होकर यानि आसन
लगाकर जब बैठता हूँ तो जो इन दृष्ट वस्तुओं का थाघ लगाया जाता है। इनका निर्णय शब्द द्वारा किया जाता है।
इनसे उपर उठकर वह जो परम सत्ता अथाघ है उसी में पहुँच जाता हूँ। यह योग द्वारा संभव है। उस दिव्य
अवस्था में जब पहुँचता हूँ तो अन्दर एक दिव्य प्रकार की उमंग, आनन्द की लहर उठती है। उन्हीं लहरों के
सागर में अमृत जल में स्नान करता हूँ तो फिर बाह्य सांसारिक विषयों का क्षणिक सुख छोटे से तालाब में पड़े
हुऐ गंदे जल की भांति प्रतीत होता है फिर कभी भी उस छिलरीये में स्नान करने की इच्छा नहीं हो सकती | ऐसा
वह समाधि का दिव्य आनन्द है।
वह जितना आनन्दमय है उतना ही गहरा और गंभीर भी है। इसलिये उसमें आगे ओर बढ़ने की
कोशिश सदा चलती रहती है तो भी उसका थाघ नहीं आता है। वह कभी भी सूखने वाला भी नहीं है और न ही
वह चंचल भी है जो कदाचित अप्राप्य हो सके।
खिण एक सिद्ध पुरी विश्राम लियो, अब जूं मण्डल भई अवाजूं।
मे शून्य मण्डल का राजूं।
मैं कुछ समय तक सिद्धों की पुरी अर्थात् जहाँ पर समाधि लगाने वाले योगी रहते हैं। समाधि अवस्था
में सिद्ध लोग स्थिर रहकर परम दिव्य आनन्द को प्राप्त करते हैं वहाँ स्थिर रहकर सत्य मंडल की ओंकार ध्वनि
को श्रवण करके वापिस शून्य मण्डल में आ जाता हूँ। क्योंकि मुझे वहाँ पर सदा ही समाधि लगाकर बैठना नहीं
है। मैं जिस कार्य के लिये आया हूँ वह भी तो मुझे पूर्ण करना है केवल समाधिस्थ होने से तो कार्य नहीं चलेगा
तथा मैं शून्य मण्डल में तो सदैव रहता हूँ वहाँ का तो मैं राजा ही हूँ अर्थात् सांसारिक विचारों से शून्यता तो मुझे
सदैव रखनी होती है। अन्यथा संसार के दुखी लोगों मे तथा मेरे में अन्तर ही क्या होगा। उन लोगों की तरह मेरी
वृति भी यदि सदा संसार के विषय भोगों में लिप्त हो गई तो फिर मैं भी उन्हीं की तरह दुखी हो जाऊँगा। ऐसा
होने पर जीवों का कल्याण कौन करेगा।
प्रसंग-67 दोहा
जोगी सब भेला हुआ, आया मारूं देश।
भास्मी रमाई देह में, लम्बे बढ़ाया केश।
जोगी तब डेरा किया, हिमटसर में आय।
सतगुरु को जब खबर हुई, सनमुख मिले तांह।
जोगी तब बोले नहीं, सतगुरु कियो आदेश।
धूनी पावड़ी पवन पाणी, सब ही कियो अलेख।
लोहाजड़ नाथ, पीतलजड़ नाथ तथा मृघीनाथ ये तीनों ही अपनी मण्डली सहित जम्भेश्वर जी की परीक्षा लेने
के लिये दूर देश से चलकर हिमटसर गांव में डेरा लगाया। उन नाथ साधुओं ने लम्बे लम्बे केश बढ़ा रखे थे तथा शरीर
में भस्म रमा रखी थी। किसी के द्वारा खबर पाकर जम्भदेवजी हिमटसर पहुँचे। उनके सामने जाकर आदेश कहा किन्तु
उनमें से कोई भी नहीं बोला, सभी एक मत से चुप हो गये। तब पुन: जम्भदेवजी ने आदेश आदेश कहा। तब भी वे
तो नहीं बोले किन्तु उनकी धूणी, पावड़ी, पानी, पतन आदि से आदेश आदेश की ध्वनि निकलने लगी। ऐसी
करामात दिखाकर सम्भराथल पर वापिस पहुँचे। योगी लोग भी चैन से नहीं बैठ सके और जम्भदेवजी के पीछे पीछे
सम्भराथल पर पहुँच कर मृगछाला तथा पावड़ी आकाश में घुमाते हुए अपनी सिद्धि दिखाने लगे। ऐसी उनको सिद्धि
देखकर श्री देवजी ने सबद सुनाया- विशेष कथा “' जम्भसार '' में पढ़ें।
सबद-116
ओझ३म् आयसां मृगछाला पावोड़ी कांय फिरावों ,मतूंत आयसां ऊगंतो भांण थंभाऊं।
दोनों परबत मेर उजागर , मतूंत अध बिच आन भिड़ाऊं।
भावार्थ-हे आयस् | हे नाथ साधुओं के महंत! आप लोग इस मृगछाला और पाबड़ी को आकाश में
घूमा करके मुझे क्या सिद्धि दिखला रहे हो। इस सिद्धि को दिखाने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो आप लोगों
की करामात पहले से ही जानता हूँ। आप लोग तो इन छोटी छोटी सिद्धियों तक ही सीमित हो और यदि मैं चाहूँ
तो उगते हुऐ सूर्य को भी रोक सकता हूँ। किन्तु ऐसा करना तुम्हारे लिये आवश्यक नहीं है और यदि मैं चाहूँ तो
उदय गिरि और सुमेरू इन दोनों पर्वतों को अपने स्थानों से उठाकर यहाँ बीच में लाकर आपस में भिड़ा दूँ किन्तु
यह भी किसलिये। आप लोगों के लिये तो मेरा शब्द ही पर्याप्त है।
तीन भवन की राही रूक्मण, मतूंत थलसिर आंण बसाऊं।
नवसे नदी निवासी नाला, मतूंत थलसिर आन बहाऊं।
तीनों भवनों की रानी रूक्मणी जो सीता, लक्ष्मी के रूप में सदा रहती है। उसको यदि मैं चाहूँ तो इस
सम्भराथल पर लाकर बसा दूँ। यह असंभव कार्य भी संभव कर सकता हूँ तथा इस भू लोक में अनेकानेक बहने
वाली नयी और प्राचीन काल से चली आ रही नदियों को तथा उनमें समाहित होने वाले असंख्य नालों को मैं
यहाँ सम्भराथल के उपर बहा दूँ। यदि मैं तुम्हारी इन सिद्धियों का प्रत्युतर देना चाहूँ तो संभव हो सकता है।
सीत बहोड़ी लंका तोड़ी , ऐसो कियो संग्रामूं।
जां बाणे म्हें रावण मार्यो , मतूंत कोवड सोखा हाथे सांह।
है आयस्! तूं मुझे क्या सिद्धि दिखला रहा है। मैंने त्रेता युग में ऐसा भयंकर संग्राम करके रावणादि
राक्षस्रों को मारा था और लंका को तोड़ डाली थी तथा सीता को वापिस बहोड़ी लाये थे। जिस धनुष बाणों से
यह कर्तव्य किया था तथा समुद्र को सुखाने की योजना जिन बाणों द्वारा बनायी थी वही धनुष बाण यदि मैं चाहूँ
तो अभी भी अपने हाथों में धारण कर सकता हूँ। किन्तु ऐसा होने पर तो यहाँ पर उन राक्षसों की तरह मुझे भी
सर्वनाश करना होगा, परन्तु इस समय यह उचित नहीं है। अब केवल पापों का नाश करना है पापी का नहीं।
कैरू पांडव जादम जोधा, मतूंत गढ़ हथनापुर आंणि दिखाऊं।
अति अनेरा बाग सवाया, मतूंत सोवन म्रिगा करि चराऊं।
द्वापर युग के कैरब, पाण्डव, यादव आदि योद्धाओं को वापिस मैं हस्तिनापुर में लाकर बसा सकता हूँ उन्हें
यदि चाहूँ तो यहाँ पर भी बुला सकता हूँ। किन्तु इस समय उनकी आवश्यकता नहीं है तथा इस मरुभूमि में यदि मैं
चाहूँ तो अति सुन्दर बाग-बगीचे लगा सकता हूँ जो सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं तथा उनमें स्वर्ण वर्ण के मृगों को चरा
सकता हूँ। अनहोनी घटना भी मैं चाहूँ तो हो सकती है क्योंकि कृष्ण चरित्र से यह कार्य संभव हो सकता है और मेरे
पास ऐसा ही दिव्य चरित्र विद्यमान है।
अति अनेरा पावस पाणी, मतूंत घण पाहण बरसाऊं।
आयसां! मृगछाला पावोड़ी कांय फिराबो, मतूंतो उगंतो भाण थंभाऊं।
मैं वर्षा ऋतु में आवश्यकतानुसार बादलों से पानी बरसाता हूँ । यह तो मैं सामान्य दशा में करता
ही हूँ किन्तु यदि मैं चाहूँ तो उस जल के स्थान में पत्थरों की वर्षा करवा सकता हूँ। वे भी अत्यधिक
संख्या में कर दूँ तो सम्पूर्ण सृष्टि का प्रलय हो जायेगा। इसलिये हे आयस ! आप लोग ये मृगछाला और
पावड़ी आकाश में क्यों घूमा रहे हो। यदि मैं चाहूँ तो ऊगते हुऐ सूर्य को भी रोक सकता हूँ।
दोहा
जोगी तब ऐसे कही, सुनो स्वामी जी बात।
जोग सिद्धि हम भी लई, सतगुरु केरे पास ।
उक्त शब्द को सुनकर जोगी लोगों ने इस प्रकार से कहा कि हे स्वामी ! हमारी बात सुनिये! हम कोई ऐसे -बैसे
मन मुखी साधु नहीं है। हमने गुरु धारण किया है तथा गुरु से योग मार्ग सीखा है। इसलिये आप हमें साधारण साधु नहीं
समझना, हम सिद्ध है। तब श्री देवजी ने दूसरा सबद सुनाया-
सबद-117
ओश३म् दूका पाया मगर मचाया, ज्यूं हंडियाया कुता।
भावार्थ-जिस प्रकार से घर घर हांडने वाला यानि घूमने वाला कुत्ता होता है, बह घर-घर के टुकड़े
खाकर लड़ाई झगड़े करता हुआ भौंकता है। उसी प्रकार से हे आयस ! आप लोग भी भिक्षा मांगने के अधिकार
के नाम पर घर घर टुकड़े मांगकर खाते हो, फिर उन्हीं कुत्तों की तरह आपस में लड़ाई -झगड़े करते हुऐ शोर
मचाते हो तथा जिस प्रकार से कुत्ता अपने क्षेत्र में दूसरे कुत्ते को नहीं आने देता उसी प्रकार आप लोग दूसरे भिक्षु
को अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं आने देते। तो फिर आप लोग तथा उस हांडने बाले कुत्ते में क्या अन्तर है।
जोग जुगत की सार न जांणी, मूंड मुंडाय बिगूता।
चेला गुरु अपरचै खीणां , मरते मोक्ष न पायो।
आप लोगों ने योग तथा युक्ति की सार महत्व को तो जाना ही नहीं है अर्थात् न तो आपके पास समुचित
योग साधन है और न ही युक््ति पूर्वक जीवन की कला ही है। किन्तु योगी-साधु जैसा वेश जरूर बना लिया है।
योग या साधुता जीवन से रहित केवल मूंड मूंडाय लेना या जया बढ़ा लेना तो अविश्वासी जीवन बना लेना हैं
क्योंकि जैसे तुमने बाह्य वेशभूषा से जीवन को दिखाने का प्रयत्न किया है जैसा अन्त ःकरण से नहीं बन पाये।
बाह्य कुछ ओर अन्दर से वास्तविकता कुछ ओर होना ही बेविश्वासी-विगूता जीवन हो जाता है। अब तुम
विश्वास करने के योग्य ही नहीं हो। तुम्हें इस वेशभूषा के द्वारा तो जीवन को सर्वोच्च बनाना था किन्तु तुमने इसे
नीचे गिरा दिया है। इससे बढ़कर और ज्यादा हानि क्या हो सकती है। इसलिये गुरु और शिष्य दोनों ही बिना ज्ञान
प्राप्त किये इसी प्रकार से भटकते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
“गुरु लोभी चेलो लालची, दोनों खेले दाव '' ये दोनों ही अपने अपने दांव पेंच खेल रहे हैं। गुरु चाहता है कि
शिष्य का धन हरण कर लू तथा शिष्य चाहता है कि गुरु का धन-दौलत मेरा है। इस प्रकार के सन्दर्भ में दोनों ही मृत्यु
को प्राप्त हो जाते हैं। किन्तु मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते। “ आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास ”' घर बार छोड़
करके हरि का भजन करने के, मुक्ति प्राप्त करने के लिये आये थे किन्तु यहाँ आकर मोह-माया के जाल में फंस गये।
प्रसंग-68 दोहा
विश्नोवण एक बाल ले, आई सतगुरु पास।
बालक मुख बोले नहीं, मन में घणी उदास।
सतगुरु मूंह बोलाइये, सांसो मिटे अपार।
देव तवै चुटकी दई, बाले कियो उचार।
एक बिश्नोई माता अपने बालक को लेकर जम्भदेवजी के पास आयी और हाथ जोड़कर कहने
लगी-हे देव | यह मेरा बालक अब आयु में तो काफी बड़ा बोलने लायक हो गया है किन्तु कुछ भी मुख से शब्द
नहीं बोलता, सदा ही मौन रहता है। इसलिये आपके पास लायी हूँ। अब आप ही कृपा करके इसे मुख से
बोलाइये, तभी मुझे शांति मिलेगी। तब श्री देवजी ने चुटकी बजाई तो वह बालक बोलने लग गया।
प्रथम बार बोलते ही उसने जाम्भोजी के बारे में जानना चाहा था कि आप यहाँ क्यों आये ? मैंने तो
आपको स्वर्ग में देखा था। जैसी ज्योति स्वर्ग लोक में थी ठीक उसी ज्योति में आप यहाँ विराजमान है, ऐसा क्यों
और कैसे हुआ। इसी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते हुऐ जम्भदेवजी ने यह शब्द उच्चारण किया और बालक को
वर्ज दिया कि अब ज्यादा नहीं बोलना, नहीं तो तेरी पूर्व जन्म में दशा हुई थी वही इस जन्म में भी हो सकती है।
इस प्रकार से उस पूर्व जन्म को कथा याद दिलाई। साथरियों ने पूछा तब उस बालक ने अपने पूर्व जन्म की
कथा विस्तार से सुनायी। वही कथा जाम्भा पुराण में विस्तार से पढ़ें।
सबद-118
ओझम् सुरगां हूंते शिम्भूं आयो, कहो कुणां के काजै।
नर निरहारी एक लवाई , परगट जोत विराजै।
भावार्थ-हे बालक ! यदि तूँ मेरे बारे में विस्तार से जानना चाहता है तो इस छोटे से शब्द द्वारा श्रवण
कर। जैसा तुमने स्वर्ग में मुझे नर, निरहारी, कैवल्य तथा ज्योति स्वरूप में विराजमान देखा था। वही मैं यहाँ पर
आया हूँ। जैसा तुम्हारा कथन है वह सत्य है। यह स्वरूप तो तुमने अपनी आंखों से देखा है क्योंकि तूँ योग भ्रष्ट
होने से तुझे यह याद भी है किन्तु आगे की वार्ता तूँ नहीं जानता यहाँ पर आने के प्रयोजन से भी तूँ अनभिज्ञ है।
इसलिये तुम्हारा पूछना जायज ही है। मैं अभी आगे तेरे को बतलाता हूँ। सुनों !
प्रहलादा सूं वाच्चा कीवी, आयो बारां काजै।
बारां मैं सूं एक घटै तो , सू चेलो गुरु लाजै।
मैंने सतयुग में नृसिंह रूप धारण करके हरिण्यकश्यपु को मारा था। उस समय प्रहलाद को मैंने वचन
दिया था कि तुम्हारे साथ में जो तेतीस करोड़ तुम्हारे अनुयायियों का भी उद्धार होगा। उस बचन को मैंने पांच
करोड़ प्रहलाद के साथ उद्धार करके, सात हरिश्चन्द्र के साथ और नौ करोड़ करोड़ युधिष्ठिर के साथ उद्धार
करके निभाया था। किन्तु इतना होने पर भी बारह करोड़ अब शेष रह गये है। उनका कल्याण करने के लिये
मुझे यहाँ आना पड़ा है। यदि मैं प्रतिज्ञा करके पूरा न कर सकूँ अर्थात् इन बारह करोड़ से एक भी कम रह जाये
प्रहलाद के पास पहुँच न पाये तो वचन देने वाला गुरु तथा वचन लेने वाला शिष्य दोनों ही लज्जित हो जायेंगे।
प्रहलाद जैसा तो शिष्य और नृसिंह जैसा गुरु यदि बचन दे करके न निभा सके तो बड़ी लज्जा की बात होगी।
इसलिये मुझे यहाँ आना पड़ा है तथा यह कार्य पूर्ण हो जाने के बाद मैं शीघ्र ही वापिस चला जाऊँगा। ““बारा
थाप घणां न ठाहर।
प्रसंग-69 दोहा
अतली सतगुरु सूं कहै, रोमावली को भार।
सो वो कहो कद उतरै , तुम ही कहो किरतार।
ऊदो तथा अतली ये दोनों पति-पत्नी जम्भेश्वर जी की आज्ञानुसार चलकर अपना जीवन व्यतीत कर
रहे थे। उनका मुख्य धर्म था अतिथि सुभ्यागत को तन-मन-धन से सेवा करना। कई बार उन्हें कठिन
परिस्थितियों से गुजरना पड़ा था तथा कुछ स्थानों में जाकर निवास करने से उनकी सेवा भावना भी कम हो गई
थी। जिससे घर में घाटा भी रहने लगा था। अन्त में जम्भदेवजी ने इनको गाँव पारवा में बसाया था, वहाँ पर
बसने के बाद पुन: खुशहाली आ गई थी।
एक बार श्री देवजी उनकी परीक्षार्थ उनके घर पर भी वेश बदल कर गये थे। अतली ने घी की धारा
न रोकते हुऐ पात्र के उपर से निकाल दिया था। तब जम्भदेवजी ने अति प्रसन्नता से उनको मुक्ति का वरदान
दिया था। उसी समय ही अतली ने सतगुरु जी से पूछा था। कि हे देव | मानव के शरीर पर जितनी रोमावली
यानि रोंएऐँ है उतने ही उसके उपर जन्म जन्मान्तरों के पाप छाये रहते हैं। यदि ऐसा है तो फिर बह इतने पापों को
काटकर पार कैसे उतरेगा। आप ही इसका निस्तार कौजिये। तब श्री देवजी ने सबद सुनाया। विशेष कथा
जाम्भा पुराण में पढ़ें।
सबद-119
ओझम् विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, पैंके लाख उपाजूं।
रतन काया वैकुण्ठै वासों , तेरा जरा मरण भय भाजूं।
भावार्थ-हे प्राणी | तूँ विष्णु विष्णु इस महामंत्र का बार बार जप किया कर। जिस प्रकार से एक एक पैसा
जोड़ते-जोड़ते एक दिन लाखों रूपये एकत्रित हो जाते हैं उसी प्रकार से एक एक परमात्मा विष्णु का नाम जुड़ते
जुड़ते अनन्त नाम इकट्ठे हो जायेंगे। वही तुम्हारे अनन्त पापों को काट डालेगा। जीवन रहते हुएऐ तो तुम्हें वृद्धावस्था
तथा मृत्यु का भय नहीं रहेगा। क्योंकि इतनी नाम राशि एकत्रित हो जाने से तुम्हाशा जीवन सफल हो जायेगा।
अज्ञानान्धकार की निवृति हो जायेगी इसलिये कोई भय नहीं रहेगा तथा मृत्यु पश्चात् यह तुम्हारी सूक्ष्म रलल सदृश
काया बैकुण्ठ लोक में बास करेगी। जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदा-सदा के लिये छूट जायेगा। यही विष्णु के नाम
की महता है।
प्रसंग-70 दोहा
आत्म कट्ो अंत ग्रन्थ के , प्रिथम कह्यो हरि नाम।
मैं अधिकारी कास को , कहिये सुन्दर श्याम ।
रतने राहड़ का प्रशन सुन, बोले जम्भ दयाल।
तूं अधिकारी नाम को, छोड़ो आल जंजाल।
गाँव जाँगलू का रतना राहड़ जाम्भोजी का परम भक्त था। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिये अपने ससूराल
वालों से नेह तोड़ दिया था तथा श्वसूराल से वापिस आते समय मार्ग में एक हरिण की रक्षा अपने प्राणों की
आहुति देकर भी ठान ली थी। परन्तु रतने ने दृढ़ निश्चय के सामने उसी गाँव के ठाकुर को झुकना पड़ा था।
उसने पत्नी सहित रतने को सादर भेंट देकर वहाँ से विदाई दी थी। अपने घर पर आने पर तो उसके भाई व
पिता ने रतने को घर से निकाल दिया था, तो भी वह चिंतित नहीं हुआ। जम्भदेवजी के पास सम्भराथल पर
पहुँचा था। अपने ही भाई बन्धुओं ने जिनको ठुकरा दिया था किन्तु जम्भेश्वर जी ने सस्नेह उसको अपनाया तथा
आशीर्वाद दिया, जिससे रतने की खेती दिन दूनी रात चौगुनी फलित हुई।
वही रतना यदा कदा सम्भराथल आया करता था। गुरु महाराज के शब्दों को श्रवण किया करता था।
एक बार जम्भदेवजी से पूछा कि आप अपनी वाणी द्वारा कभी भी आत्म ज्ञान का उपदेश देते हो, कभी योग के
बारे में बतलाते हो तथा कभी निष्काम कर्म की शिक्षा देते हुए समझाते हो, मेरे लिये अर्थात् हमारे जैसे किसानों
के लिये आपको क्या शिक्षा है क्योंकि हम गृहस्थ लोग योग ध्यानादि कठिन कार्य तो नहीं कर सकते। तब श्री
देवजी ने यह सबद सुनाया जो सर्वसाधारण के लिये सुलभ है।
सबद -120
ओशभमू विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, इस जीवन के हावै।
क्षण क्षण आव घटंती जावै, मरण दिनों दिन आवै।
भावार्थ-हे प्राणी ! जब तक तुम्हारे इस पंचभौतिक शरीर में प्राण वायु का संचार हो रहा है अर्थात् जब
तक तुम्हारा यह शरीर स्वस्थ है तब तक तूँ विष्णु विष्णु इस महामन्त्र का जप किया कर क्योंकि ऐसा कार्य तो
इस जीवन के रहते ही हो सकता है। मनुष्येतर शरीरों से तो संभव नहीं है इसलिये तुम्हारे जैसे कृषक समाज के
लिये तो यही सर्वोत्तम साधन है। इसी से ही जीवन की भलाई हो सकती है। परमात्मा ने विष्णु नाम स्मरण
करने के लिये यह दिव्य देह तो दी है। किन्तु ध्यान रखना, यह अस्थिर काया स्थिर अजर-अमर नहीं है। इस
शरीर की आयु सीमित तथा निश्चित है। मृत्यु दिनों दिग नजदीक आ रही है। लोग कहते हैं कि मेरा बेटा बड़ा
हो गया किन्तु श्री देवजी कहते हैं कि छोटा हो गया। बड़ा तो उस दिन था जब पैदा हुआ था। अब दिनोंदिन
छोटा होता जा रहा है। मृत्यु नजदीक आ रही है।
पालटीयों गढ़ कांय न चेत्यो, घाती रोल भनावे।
गुरुमुख मुरखा चढ़े न पोहण, मनमुख भार उठावै।
यह शरीर रूपी गढ़ तुम्हारे देखते देखते ही पलट गया है। कभी यह बालक था फिर जवान हुआ और
अब बूढ़ा हो गया। एकाएक पलट गया। किन्तु फिर भी तूँ सचेत नहीं हो सका और अब वृद्धावस्था का अर्थ
है कि काल ने रोल घात दी है अर्थात् काल ने तेरे शरीर पर अपना प्रभाव जमा दिया है और प्रति क्षण इसे तोड़
रहा है। इसे क्षीण कर रहा है। एक दिन इस शरीर की शक्ति को काल भस्म कर देगा, इसे तोड़-मरोड़ कर
जर्जरित कर देगा तो फिर इस गढ़ में निवास करने वाली जीवात्मा भी इसे छोड़कर चली जायेगी। ऐसा काल
का प्रत्यक्ष खेल होने पर भी मूर्ख लोग तो इसे देख नहीं पाते। गुरु के बताये हुऐ मार्ग पर चल नहीं सकते । यदि
वे लोग गुरुमुखी होकर यह जीवन यापन करें तो उन्हें इस संसार का दुख रूपी भार उठाना नहीं पड़ेगा किन्तु ये
लोग तो अपनी मूर्खता के कारण मनमुखी कार्य करेंगे, जिससे उन्हें संसार का दुख द्वन्द्द रूपी भार उठाना ही
पड़ेगा। सतगुरु ने इन्हें नियम धर्म मर्यादा रूपी वाहन चढ़ने के लिये दिया है। परन्तु ये लोग उस वाहन का
उपयोग न करते हुऐ मनमुखी सतगुरु के नियम को परवाह न करते हुए अनीति अधर्म अमर्यादित जीवन को
जीना स्वीकार करके दुख उठायेंगे।
ज्यूं ज्यूं लाज दुनी की लाजै, त्यूं त्यूं दाव्यो दावे ।
भलियो होय सो भली बुध आवै, बुरियो बूरी कमावै।
ज्यों ज्यों दुनिया की लाज से लज्जित होगा, त्यों त्यों ही वह दबता जायेगा। अर्थात् दुनिया के लोगों का
अपना एक संसार होता है। आपसी भाई-बन्धु, माता-पिता, कूटुम्ब, सगा-सम्बन्धी इनके कथनानुसार चलना
अपनी मर्यादा समझता है। ये लोग सदा मोह माया में फंसाने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि कोई पिंजरे से बाहर
निकलना भी चाहता है तो उसे अनेक प्रकार की, कुल परिवार की मर्यादाओं से अवगत करवा कर निवृत्त कर
देते हैं। यदि कोई साधक इन्हीं लोगों द्वारा दी हुई इस प्रकार की लज्जा से लज्जित होकर साधना भजन परोपकार
आदि कार्य करना छोड़ देता है तो उसके उपर दबाव अधिक बढ़ जायेगा। वह कभी भी उस दबाव से उपर नहीं
उठ सकेगा।
इन्हीं संसारी लोगों में से यदि कोई भला पुरुष होगा तो सदा भली बुद्धि उपजेगी तथा वह सदा सच्ची
ज्ञान वर्धक धर्म की बात ही बतलायेगा किन्तु जो दुष्ट स्वभाव का आदमी है वह कभी भी भली अच्छी बुद्धि
नहीं उपजायेगा। सदा कुबुद्धि ही प्रदान करते हुए पापमय कर्मों में प्रेरित करेगा तथा स्वयं भी वही कर्म करेगा।
बूरो जूणी चवरासी भुविसी, भलौ आवागुवणी न आवै।
दुष्ट व्यक्ति तो सदा चौरासी लाख योनियों में भटकेगा किन्तु भला सज्जन व्यक्ति आवागमन बार बार
जन्म मरण के चक्कर से छूट जायेगा यही भले तथा बुरे का फल है। जैसा फल आप चाहते है बैसा मार्ग कर्म
अपना सकते है।