जांभोजी महाराज ने 16वीं शताब्दी में मानव समाज को एक नई वैचारिक क्रांति दी
थी और अपनी वाणी, जिसे बिश्नोई समाज में पंचम वेद अर्थात चारों वेदों का सार
माना जाता है, के द्वारा पुरातन वैदिक परम्परा को कायम करते हुए अद्वैतवाद की
स्थापना की और यज्ञ को महत्त्व देते हुए यज्ञ में ही परम तत्व के दर्शन माने।
यज्ञ पर्यावरण शुद्ध रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक बिश्नोई के घर
में आज भी यज्ञ (हवन या होम) किया जाता है। केवल परमपिता परमात्मा का निर्गुण
रूप विष्णु नाम से उपासना व जप किया जाता है। इतर ( अन्य ) देवी-देवताओं का बिश्नोई
समाज में कोई स्थान नहीं है।
थी और अपनी वाणी, जिसे बिश्नोई समाज में पंचम वेद अर्थात चारों वेदों का सार
माना जाता है, के द्वारा पुरातन वैदिक परम्परा को कायम करते हुए अद्वैतवाद की
स्थापना की और यज्ञ को महत्त्व देते हुए यज्ञ में ही परम तत्व के दर्शन माने।
यज्ञ पर्यावरण शुद्ध रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक बिश्नोई के घर
में आज भी यज्ञ (हवन या होम) किया जाता है। केवल परमपिता परमात्मा का निर्गुण
रूप विष्णु नाम से उपासना व जप किया जाता है। इतर ( अन्य ) देवी-देवताओं का बिश्नोई
समाज में कोई स्थान नहीं है।
जांभोजी के वैकुण्ठ-वास के पश्चात बिश्नोई समाज
के जांभाणी संतों ने बिश्नोई समाज का हर प्रकार से मार्गदर्शन किया एवं रक्षा
की। उनमें नाथोजी, रेड़ोजी और वील्होजी आदि प्रमुख है। सन्तो, थापनों (जिन्हें
जांभोजी महाराज ने कलश-स्थापना का अधिकार दिया था) एवं गायणाचार्यों ने
बिश्नोई धर्म के प्रचार-प्रसार में व इसे सुरक्षित रखने में बहुत बड़ा योगदान
दिया है। पूरे विश्व में बिश्नोई समाज ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जिसमें
शत-प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं। इन्होनें वन, वन्य जीव एवं प्रकृति व पर्यावरण
की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की अनेक बार आहुति दी है।
के जांभाणी संतों ने बिश्नोई समाज का हर प्रकार से मार्गदर्शन किया एवं रक्षा
की। उनमें नाथोजी, रेड़ोजी और वील्होजी आदि प्रमुख है। सन्तो, थापनों (जिन्हें
जांभोजी महाराज ने कलश-स्थापना का अधिकार दिया था) एवं गायणाचार्यों ने
बिश्नोई धर्म के प्रचार-प्रसार में व इसे सुरक्षित रखने में बहुत बड़ा योगदान
दिया है। पूरे विश्व में बिश्नोई समाज ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जिसमें
शत-प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं। इन्होनें वन, वन्य जीव एवं प्रकृति व पर्यावरण
की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की अनेक बार आहुति दी है।
वृक्षों की रक्षा के लिए स्त्री-पुरूष और यहां तक कि नन्हें बच्चे और बच्चियों ने भी अपने
प्राणोत्सर्ग किये हैं। मुख्य रूप में खेजड़ली का बलिदान जिसमें 363 पुरूष
और महिलाओं ने खेजड़ी को बचाने हेतु अपने प्राणों की आहुतियां दी। यह घटना विक्रम
सम्वत् 1787 के भादो सुदी 10 की है।खेजड़ली ग्राम जोधपुर से लगभग 22 किमी दूर
पूर्व की ओर स्थित है।
प्राणोत्सर्ग किये हैं। मुख्य रूप में खेजड़ली का बलिदान जिसमें 363 पुरूष
और महिलाओं ने खेजड़ी को बचाने हेतु अपने प्राणों की आहुतियां दी। यह घटना विक्रम
सम्वत् 1787 के भादो सुदी 10 की है।खेजड़ली ग्राम जोधपुर से लगभग 22 किमी दूर
पूर्व की ओर स्थित है।
इससे पहले भी रामासड़ी (रेवासड़ी), तिलवासनी आदि कई
स्थानों पर भी महिलाओं और पुरूषों ने खेजड़ी को बचाने के लिए अपने बलिदान दिए।
स्थानों पर भी महिलाओं और पुरूषों ने खेजड़ी को बचाने के लिए अपने बलिदान दिए।
ये सब जांभोजी की कृपा और बिश्नोई समाज की अपने धर्म पर दृढ़ता का परिचय है जो
कि विश्व में अनुकरणीय उदाहरण है। प्राय:सदैव पडऩे वाले भीषण अकालों से ग्रसित
मरूप्रदेश के कृषक एवं जनसाधारण को जांभोजी ने मानव जीवन, उसके उद्देश्य और
सांसारिक समस्त भय बाधाओं को उनकी ही बोली में जिस भांति सम्बोधन किया और
जिसके फलस्वरूप इस गौरवशाली बिश्नोई समाज की स्थापना हुई जिसका इतिहास में
अन्यत्र कोई उदाहरण हमें दृष्टिगोचर नहीं होता।
कि विश्व में अनुकरणीय उदाहरण है। प्राय:सदैव पडऩे वाले भीषण अकालों से ग्रसित
मरूप्रदेश के कृषक एवं जनसाधारण को जांभोजी ने मानव जीवन, उसके उद्देश्य और
सांसारिक समस्त भय बाधाओं को उनकी ही बोली में जिस भांति सम्बोधन किया और
जिसके फलस्वरूप इस गौरवशाली बिश्नोई समाज की स्थापना हुई जिसका इतिहास में
अन्यत्र कोई उदाहरण हमें दृष्टिगोचर नहीं होता।
जांभोजी द्वारा संस्थापित व निर्देशित बिश्नोई समाज आज के विश्व का एकमात्र ऐसा समाज है, जिसे जीव दया, हरे वृक्षों की कटाई न करना, अंहिसा पालन करना और हिंसा को रोकने हेतु बलिदान
हो जाना, नैतिकता एवं उच्च आदर्शों के लिए स्मरण किया जाता है।
हो जाना, नैतिकता एवं उच्च आदर्शों के लिए स्मरण किया जाता है।